पुस्तक समीक्षा : ‘हमारे दरमियाँ’ लेखक डॉ. राजीव कुमार रावत

आशा विनय सिंह बैस, नई दिल्ली। डॉ. राजीव कुमार रावत सर वायु सेना में मेरे सीनियर रहे हैं। वह वर्तमान में आईआईटी खड़गपुर में वरिष्ठ हिंदी अधिकारी के पद पर कार्यरत हैं। उनकी पहली पुस्तक ‘हमारे दरमियाँ’ अभी हाल ही में प्रकाशित हुई है। यह पुस्तक एक निबंध संग्रह है। इसमें देश, समाज, राजभाषा, ग्रामीण जीवन, विभिन्न लेखकों, कवियों पर चर्चा जैसे विभिन्न विषयों पर 32 निबंध संग्रहित हैं। डॉ. राजीव कुमार रावत के लेख विभिन्न पत्र पत्रिकाओं और सन्मार्ग हिंदी दैनिक में पहले भी प्रकाशित होते रहे हैं।

हालांकि डॉ. राजीव रावत अपने जीवनकाल में देश के तमाम शहरों में रहे हैं और वर्तमान में एक प्रतिष्ठित संस्था में उच्च पद पर कार्यरत हैं। लेकिन पुस्तक की प्रस्तावना में वह कहते हैं कि-“मेरा मन वानर जीवन भर जीवंत संबंधों के बाग-बगीचों, खेत-खलिहानों, जंगलात और झाड़ियों में उछला कूदा है। इसलिए मार्बल, कंक्रीट, फर्नीचर के जंगल में औपचारिक क्रॉकरी, नैपकिन, कटलरी संबंधों के प्रति सदैव एक विरक्ति सी ही रही है।”

अपने गांव, अपनी मिट्टी के प्रति उनका यह प्रेम उनके तमाम निबंधों में स्पष्ट रूप से दिखता है। पहले ही निबंध- ‘गुरबत में तंग आकर सोचा कि बेच दूं’ में वह पुश्तैनी जमीन बिकने पर अपना दर्द बयां करते हुए अपने दादा का एक शेर लिखते हैं-
“गुरबत में तंग आकर सोचा कि बेच दूं ,
पैरों में लिपट गई मिट्टी मेरे खेत की।”
आज की पीढ़ी का गांव-गिरांव से विलगाव उनके इन शब्दों में बयां होता है – “आज के युग में तो शायद किसी इंटरनेशनल स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों के लिए यह एक अबूझ पहेली हो जाएगी यदि उन्हें ‘भारत एक कृषि प्रधान देश है’ विषय पर निबंध लिखने को दे दिया जाए। क्योंकि उनके लिए तो इंडिया बड़ी-बड़ी गाड़ियों, कोठियों, फ्लैटों, बीएचके, बंगला, मोबाइल, टीवी, ऐप, गैजेट, मैगी, कूल-कूल, दिल मांगे मोर, कुरकुरे, कैडबरी प्रधान देश है।”

‘मेरी देहरी मुझे भीगी हुई सी लगती है’ निबंध में वह कृषि के भूत, वर्तमान और भविष्य पर गंभीर और वृहद चर्चा करते हैं। वह लिखते हैं एक समय खेती करना सबसे उत्तम, व्यापार करना मध्यम और नौकरी करना अधम माना जाता था। उनकी मां कहती थी कि- “नौकरी पर पूत पड़ोसी दाखिल हो जाता है।”

लेकिन आज पेट की भूख और गांव की दुर्दशा, शासन प्रशासन की नीति और नीयत, शिक्षा स्वास्थ्य का अभाव, संयुक्त परिवारों का टूटना, जोत का बंटवारा, विलासिता की चाहत, श्रम से पलायन जैसे बहुत से कारण हैं कि खेती करना अधम से भी अधम कार्य हो गया है। जिन घरों में चार-छह गाय-भैंस हुआ करते थे, उन घरों में आज बकरी भी नहीं है। दूध का पैकेट बाज़ार से आता है।

वह कृषि उत्पादन बढ़ने लेकिन इसकी गुणवत्ता गिरने पर चिंतन करते हुए लिखते हैं कि पहले किसान- ‘गोबर राखी पाती सड़े, फिर खेती में दाना पड़े’ के सिद्धांत का पालन करते हुए जैविक खादों, गोबर आदि से ही कृषि उत्पादन करते थे। लेकिन आजकल के तथाकथित किसान शुद्ध व्यापारी हो गए हैं। वह रासायनिक खादों और कीटनाशकों का अंधाधुंध प्रयोग कर अन्न के नाम पर जहर उगा रहे हैं।

डॉ. राजीव रावत के निबंधों की सबसे खास बात यह है कि वह लगभग प्रत्येक निबंध में दो-तीन पैराग्राफ के बाद अपनी बात को पुष्ट करने के लिए किसी बड़े लेखक, कवि, शायर का गीत या शेर उद्धृत करना नहीं भूलते। ऐसा करने से उनकी बात और अधिक प्रमाणित तो होती ही है साथ ही निबंध की नीरसता में काव्य की सरसता भी आ जाती है। वह मीठे के नाम पर नकली मावे की जगह देसी गुड़ परोसते हैं ताकि स्वाद भी आए और स्वास्थ्य भी न जाए।

यह निबंध संग्रह कोरी लफ्फाजी नहीं बल्कि समाज का, मानवीय संबंधों का, आज की वास्तविकता का सच्चा प्रतिबिंब है। रावत सर प्रत्येक लेख में मानवीय सरोकारों को तलाशते हुए नजर आते हैं। ‘आय गए तुम’ निबंध में वह पूछते हैं-
“बस कर शहर में, अब गांव ढूंढते हो।
हाथ में कुल्हाड़ी ले, अब छांव ढूंढते हो ?”

डॉ. राजीव रावत ने बहुत कम उम्र में अपने बड़े भाई, पिताजी, मां दादी, एक बहन, दो बहनोई, भाभी को खोया है। इसलिए वह अपनों को खोने का दर्द जानते हैं। वह कहते हैं : “मेरे लिए लिखना मात्र बौद्धिक शब्द विलास ही नहीं है बल्कि टीस और आह्लाद के बीच चलती रही मेरी जीवन यात्रा की स्मृतियों के फफोलों पर मुंह से मारी हुई फूंक है। मैं अपने शब्दों से अपने घावों की कूकर स्नेहन लार चिकित्सा करने का प्रयास करता रहता हूं।”

‘घर जलाने को वह जला तो गया’ निबंध में वह अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुए कहते हैं कि- “आज घर में सब वस्तुएं साबुत हैं, बस आदमी टूटा-बिखरा है। “इसी लेख में वह श्री उत्तम को उद्धृत करते हुए कहते हैं कि-
“गलतफहमियों के सिलसिले कितने गहरे हैं।
हर ईट सोचती है दीवार उस पर टिकी है।”

‘सुबह अपनी शाम अपनी, रात दिन अपने लगें’ निबंध में वह लिखते हैं- “हम जीवंत इतिहास एवं जीवन अनुभवों से वंचित संवेदना शून्य मशीनी पीढ़ी हैं।” अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए वह वर्तमान जीवन की आपाधापी पर व्यंग्य करते हुए कहते हैं कि- “जड़ों से कटे लोग फल फूल रहे हैं और बहुत बड़े आदमी बन रहे हैं। यह लोग सारी जिंदगी फ्लैट की 38 मंजिल पर बिता देंगे। रात उस फ्लैट में लटके, दिन मेट्रो के हैंडल से लटके, बचपन स्कूल बैग की तनी में लटके, शेष समय अपोलो, फोर्टिस एस्कॉर्ट जैसे किसी सेवन स्टार अस्पताल के बेड पर लटके, फिर किसी तस्वीर में लटके। वाह !जिंदगी।”

‘जाने कैसा कैसे हमारा मकाँ जल गया’ निबंध में वह पिता-पुत्र संबंधों का विद्रूप रूप हम सबके सामने रखते हैं। अपनी बात को प्रमाणित करने के लिए वह खड़गपुर की एक वास्तविक घटना का उल्लेख करते हैं जिसमें एक धनपशु अपने अमेरिका में रहने वाले पुत्र के व्यवहार से दुखी है। जबकि उस धनपशु ने अपने जीवन में अपने माता-पिता के साथ वैसा ही व्यवहार किया है। ‘बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से होय’ कहावत ऐसे ही संवेदनहीन लोगों के लिए बनी होगी।

‘अपने तो होंठ भी ना हिले’ निबंध में डॉ. राजीव रावत आधुनिक पीढ़ी के बच्चों पर व्यंग्य करते हैं- “पहले चश्मा बड़े-बूढ़ों को लगते थे। लेकिन आजकल के बच्चों को देखकर तो लगता है कि शायद सूर्यपुत्र कर्ण के कवच कुंडल की भांति चश्मा उनका शारीरिक अववय है।”
‘जीना भी सीख लीजिए नाकामियों के साथ’ निबंध में वह दार्शनिक भाव से कहते हैं –
“जब आपकी जिंदगी में सब कुछ गलत हो रहा हो तब उस बात का आनंद अलग होता है। आपकी आत्मा आपके धैर्य और साहस की परीक्षा लेती है।” वह दीक्षित दनकौरी के शब्दों में कहते हैं कि-
“लाजमी नहीं है कि हर कोई हो कामयाब ही, जीना भी सीख लीजिए नाकामियों के साथ। ”

इस पुस्तक के तमाम निबंधों में डॉ. राजीव रावत का ग्रामीण जीवन का प्रचुर अनुभव तो है ही साथ ही ब्रजभाषा की मिठास भी है। ‘स्मृतियों के हिमखंड’ में वह लिखते हैं कि उनकी दादी कहती थी- “तेरी माथे की तो माथे की, तेरे हिय कीऊ फूटि गई।’ अर्थात तुम्हें भौतिक आंखों से नहीं दिखता तो क्या मन की आंखों से भी दिखना बंद हो गया है।
इसी निबंध में वह लिखते हैं – “मैं खुद ही विषय हूं और स्वयं ही भोक्ता भी हूँ। मात्र सतही अनुभव एवं लेखकीय अभिव्यक्ति कौशल, जो कि मुझ में है भी नहीं, प्रभावी कारक नहीं है बल्कि निजी अनुभूतियां अधिक प्रबलता से मेरे ऊपर हावी रही हैं।”

वह कहते हैं कि परफेक्ट पुरुष यूटोपिया है। सांसारिक आदमी गलतियों का पुतला है। इसलिए यह पुस्तक मेरी खताओं का कबूलनामा जैसा भी है। समीम अब्बास के शब्दों में वह कहते हैं-”
तुममें तो कुछ भी बाहयात नहीं, छोड़ो तुम आदमी की जात नहीं।”
‘वक्त करता है परवरिश वर्षों’ निबंध में वह कहते हैं कि आजकल के संबंधों, भावनाओं, संवेदनाओं का यह बुरा दौर एक दिन का परिणाम नहीं है बल्कि-
“वक्त करता है परवरिश बरसों, हादसा एक दिन एकदम नहीं होता।”

अपने निबंधों में डॉ. राजीव रावत ने कुछ नए शब्द भी कॉइन किए हैं, गढ़े हैं। ‘संवाद प्रक्रिया चुनौती एवं समाधान’ निबंध में वह –
मिस कॉल को कुंवारी पुकार
और कनेक्ट कॉल को श्रीमती कॉल कहते हैं।

‘हिंदी दिवस समारोह से आगे’ निबंध में वह हिंदी दिवस को हिंदी दिवस, सप्ताह, हिंदी पखवाड़ा, हिंदी माह से आगे ले जाने की वकालत करते हैं । उनका मानना है कि हिंदी दिवस का संदेश राजभाषा कार्मिकों को नहीं बल्कि शीर्ष पर बैठे वैज्ञानिकों, देश को प्राध्यापकों, कुलपतियों कुलसचिवों, राजनीतिक नेतृत्व को समझना है कि भाषा कैसे संस्कार और व्यक्ति का निर्माण करती है। अपनत्व से उसका परिष्कार और प्रशिक्षण करती है, कैसे असफलताओं में भी जीना सिखाती है। गिरकर खड़ा होना मातृभाषा की जीवंत कहानी एवं वंश परंपरा से ही लोग सीख पाएंगे। अंग्रेजी की चकाचौंध वाले इसमें असफल ही रहेंगे।

‘शिक्षा में भारतीय भाषाएं : चुनौतियां एवं संस्कृत से समाधान’ निबंध में वह प्राथमिक शिक्षा को मातृभाषा एवं उच्च शिक्षा हिंदी अथवा संस्कृत में देने की जोरदार वकालत करते हैं। इस लेख में वह संस्कृत भाषा की तमाम विशेषताएं बताते हुए कहते हैं कि भारत की भाषा संबंधी उलझन का समाधान संस्कृत को आधार बनाकर खोजना होगा।
‘आजादी तो पूरी है’ लेख में वह हमारे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों और सैनिकों के प्रति आमजन के व्यवहार पर अपनी अंतर्दृष्टि रखते हैं। वह श्रीमती सुधा मूर्ति के एक संस्मरण का उदाहरण देते हैं जिसमें एक युगल रूस में वर्षा होने के बावजूद शहीद स्मारक पर श्रद्धांजलि इसलिए देता है क्योंकि वह मानता है कि सैनिको के बलिदान से ही वह खुली हवा में सांस ले रहे हैं। जबकि हमारे देश में एक परमवीर चक्र प्राप्त सैनिक और एक तथाकथित सिनेमा के हीरो की शव यात्रा निकले तो भीड़ किस में ज्यादा होगी और प्रिंट मीडिया और डिजिटल मीडिया में चर्चा किसकी ज्यादा चर्चा होगी सभी को पता है।

वह इस लेख के बहाने हमारी कुछ मान्यताओं पर भी प्रश्नचिन्ह लगाते हैं। वह कहते हैं कि बच्चों के गिरने पर ‘चींटी मर गई, खड़ा हो जाये मेला लाजा बेटा’ के स्थान पर हमें बच्चों को यह सिखाना चाहिए कि-” देखो तुम गिरना नहीं, नहीं तो चींटी मर जाएगी।” क्योंकि चींटी का भी इस संसार में, सृष्टि में उतना ही महत्वपूर्ण अस्तित्व है जितना हमारा। वह समाज की वर्तमान दशा, संयुक्त परिवारों के विघटन पर अपनी चिंता व्यक्त करते हुए कहते हैं कि पहले बच्चे अनाथ होते थे आजकल मां-बाप, बुजुर्ग अनाथ होते जा रहे हैं।

इस पुस्तक के कुछ निबंधों कुछ में डॉ. राजीव रावत की सैनिक के रूप में पीड़ा उद्घाटित होती है। ‘चहत उड़ावन फूंकि पहारू’ निबंध में वह हमें एक नए सच से रूबरू कराते हुए लिखते हैं कि –
“14 अगस्त 1947 को पाकिस्तान में यूनियन जैक उतार कर फाड़ा गया था, आग लगाई गई थी। जबकि हमारे यहां 15 अगस्त 1947 को यूनियन जैक सम्मान से उतारा गया सलामी देते हुए। बल्कि पहले तो योजना थी कि दोनों झंडे साथ रहेंगे। ”

जिन फिरंगियों ने आपको सैकड़ो वर्षों तक लूटा, जिन्होंने सोने की चिड़िया कहे जाने वाले इस देश को दरिद्रता की आग में झोंक दिया, जिन्होंने मानवीय मूल्यों की बाल बराबर भी चिंता नहीं की, हमें जानवरों से बदतर समझा; उस देश के प्रतीकों के प्रति इस तरह का दासता पूर्ण सम्मान एक सैनिक को विचलित करता है।

एक पूर्व सैनिक होने के नाते उन्हें इस बात का भी दु:ख है कि हमारा मीडिया युद्ध को कैसे अनावश्यक हाइप देता है। कई बार तो अति उत्साह में मीडिया दुश्मनों की मदद भी कर देता है। अभी एयर स्ट्राइक के दौरान हमारे मीडिया चैनल पूरे डिटेल में बता रहे थे कि जहाज कहां से उड़े, कहां तेल भरा, कैसे उतरे। जबकि इस घटना की तुलना वह अमेरिका से करते हुए कहते हैं क्या आपको पता है कि ओसामा जैसे दुर्दांत आतंकवादी को ठिकाने लगाने वाले सील कमांडो कहां से गए, कैसे उन्हें मारा और क्या उनको फूल माला पहनाने का नाटक उनके देश में हुआ था। अभी 26/11 हमले के दौरान हमने देखा कि हमारे ही तथाकथित पत्रकारों ने किस तरह पाकिस्तान की परोक्ष रूप से मदद की थी।

आज के प्रेम संबंधों पर चुटीला व्यंग्य करते हुए वह “कृष्ण तुम तो आ सकते थे’ में भारी मन से कहते हैं कि कृष्ण तुम अब न ही आओ क्योंकि अब ‘मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई’ गाने वाली कोई मीरा तुम्हारा इंतजार नहीं कर रही है। आज की मीराओं के आठों पहर के आठ गिरधर हैं। वह पल-पल नए गिरधर के साथ डीपी बदल रही हैं।

इसी पुस्तक के अपने निबंधों में डॉ. रावत ने केदारनाथ सिंह, त्रिलोचन, कबीर, प्रेमचंद जैसे ख्यातिप्राप्त लेखकों के व्यक्तित्व और कृतित्व की सांगोपांग व्याख्या की है। इस पुस्तक में कुल 32 निबंध और 216 पृष्ठ हैं। मेरे साथ समस्या यह है कि मैं किसी कृति की सरसरी, सतही समीक्षा और व्याख्या नहीं कर सकता। लेकिन बहुत गहराई से, डूबकर व्याख्या और समीक्षा करूंगा तो समीक्षा बहुत लंबी, कुछ ज्यादा ही विस्तृत हो जाएगी। समीक्षा पढ़ने वाले पाठकों का भी ध्यान रखना पड़ता है। इसलिए अपनी बात समाप्त करता हूँ।

फिर भी चलते-चलते इतना जरूर कहूँगा कि ‘हमारे दरमियां’ पुस्तक उन पाठकों को जरूर रिझाएगी जिनकी नाल शहर में रहते हुए भी ग्रामीण जीवन से जुड़ी है। जिन पाठकों को समाज के गिरते मूल्यों, टूटते परिवारों, युवा पीढ़ी में बढ़ती संवेदनहीनता की चिंता है।

यह पुस्तक ग्रामीण पृष्ठभूमि से जुड़े एक भावुक व्यक्ति के तमाम खट्टे-मीठे अनुभवों, एक राजभाषा सेवक के अपनी भाषा और बोली के प्रति अगाध स्नेह, पूर्व सैनिक के अपने देश के प्रति असीम निष्ठा और एक जागरूक नागरिक के वर्तमान समय की तमाम ज्वलंत समस्याओं और उनके संभावित समाधानों का दुर्लभ संग्रह है। इस अद्भुत पुस्तक को आप भी अपने दरमियां जरूर रखिये।

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