आशा विनय सिंह बैस की कलम से : भूत 

आशा विनय सिंह बैस, नई दिल्ली। बहुत साल पहले की बात है। तब मैं छोटा बच्चा था और गांव बरी, पोस्ट-मेरुई, जनपद-रायबरेली में रहता था। एक बार भादों के महीने में ऐसे ही झमाझम बारिश हो रही थी और मुझे जोर से ‘दो नंबर’ लग आई। तब घरों में शौचालय नहीं हुआ करते थे। इसलिए मैं छाता और मोबिल ऑयल वाले एक लीटर के खाली डिब्बे में पानी लेकर घर के पास वाले खेत की तरफ निवृत्त होने के लिए जाने लगा। खेत पहुंचने से कुछ पहले देखता हूं कि तालाब के पास वाले नीम के पेड़ की डाली पर एक आकृति सामने वाले घर की तरफ मुंह करके बैठी हुई है। पहले तो मुझे लगा यह मेरा वहम है, भ्रम है। बारिश की वजह से ठीक से दिख नहीं रहा है। लेकिन दोबारा ध्यान से देखने पर आकृति स्पष्ट से दिखाई पड़ी।

एक क्षण के लिए मुझे लगा कि शायद अम्मा और अजिया (दादी) से जो भूतों की कहानियां वर्षों से सुनते आया हूं, वह आज सच हो गई हैं। कोई भूत-प्रेत सचमुच डाल पर पैर हिलगाये (लटकाए) हुए बैठा है। शायद उसके पांव भी उल्टे होंगे। वह नाक से बोलता होगा और पास जाते ही मुझसे तंबाकू या बीड़ी मांगेगा। फिर वह भूत मुझे लग जायेगा, मेरे शरीर के अंदर घुस जाएगा और मुझे अपने वश में कर लेगा।

यह कल्पना करते ही मैं सिहर उठा और उल्टे पांव घर की तरफ दौड़ लगा दी। डर के मारे दो नंबर, एक नंबर, खेत, तालाब सब कुछ भूल गया। मुझे दौड़ते हुए वापस आते देख छोटे बाबा ने हैरत से पूछा कि- “का होइगा?
कौनो कुकुर दौड़ा लिहिस का??
कि कौनो सांप-वांप देखि लेहयो?? ”
मैंने कांपते और हांफते हुए कहा- “नहीं बाबा, कुत्ता या सांप नही है बल्कि तालाब के पास वाले नीम के पेड़ पर कोई भूत पैर लटकाए बैठा हुआ है।”

बाबा बोले – “अरे बंदार-वंदार होई कौनो और को एत्ती बरसात मां पेड़ पै जान देई।”
मैंने पूरे विश्वास से कहा- “नहीं बाबा। बंदर नहीं है। मैंने पास से देखा है। कोई बिल्कुल आदमी जैसा भूत है।”
बाबा बोले- “चलो हमहू देखी कि का आय। बांदर आय कि सही मां कौनो मनई एत्ती बरसात मां सती हून जा रहा है।”

बाबा ने लाठी उठाई और मेरे साथ तालाब की ओर चल पड़े। नीम के पास पहुंचने से पहले ही मैंने इशारा किया कि वह देखो कोई बैठा हुआ है। पूरब की तरफ वाले घर की ओर मुंह करके।
बाबा ने देखा तो सचमुच में कोई नीम के पेड़ पर बैठा हुआ था। मेरी तो पास जाने की हिम्मत नहीं हुई लेकिन बाबा और पास गए फिर बोले-
“अरे ई तो दीपू भैया अहीं। लेकिन ई बैताल काहे बने हैं??
खैर, तुम जाव निपटि के आव, तब तक हम इनके हालचाल लेइत है।”

मैं निपट के आया तो बाबा से पूछा : “दीपू भैया पेड़ पर क्यों बैठे हुए हैं? घर से नाराज हैं क्या??”
हालांकि बाबा को सच पता चल चुका था लेकिन शायद वह मुझे बताना नहीं चाहते थे। इसलिए बात को टाल गए। बोले:- “जल्दी घरै जाव नहीं तो भीजि जइहो। सर्दी-जोखाम होइ जाई। हाथ जरुर राख से धोइ लेह्यो।”

कहते हैं कि इश्क और मुश्क कभी छुपाए नहीं छुपते। कुछ दिन बाद किसी खबरी ने मुझे सूचना दी कि दीपू भैया आजकल गोविंदा बने घूम रहे हैं। उन्हें तालाब के सामने वाले घर में रहने वाली दिव्या भारती से बहुत जोर से प्यार हो गया है। उसी को इंप्रेस करने के लिए भरी बरसात में पेड़ पर बैठे हुए थे।

इससे पहले भी एक बार जेठ की भरी दुपहरी में ऊसर में खड़े होकर वह अपनी प्रेम परीक्षा दे चुके हैं। आजकल वह एक ही गाना गुनगुनाते रहते हैं- : “मैं पागल, प्रेमी दीवाना…..
दिल तेरी मोहब्बत का मारा।
तू रूठी तो रूठ के इतनी दूर चला जाऊंगा।
सारी उमर पुकारे फिर भी लौट के न आऊंगा।
लौट के न आऊंगा…..
ओ ओ,
ओ, ओ, ओ।”

उस समय मुझे लगता था कि सच्चा प्रेम करने वाले एक न एक दिन जरूर मिलते होंगे। घर, गांव, समाज के लोग कितना भी उपहास उड़ाएं, विरोध करें, गालियां दें, हीर-रांझा की तरह पत्थर मारें लेकिन दो जिस्मों को एक जान होने से हरगिज रोक नहीं पाते होंगे। सारी कायनात उन्हें मिलाने में लग जाती होगी। सच्चा प्यार कभी असफल नहीं होता होगा।

लेकिन अफसोस कि मेरी सारी कल्पनाएं और जज्बात फिल्मी और किताबी निकले। उनकी प्रेम कहानी का अंत ‘शोला और शबनम’ की तरह बिल्कुल भी नहीं हुआ। क्योंकि गोविंदा के प्यार की भनक होते-होते दिव्या भारती के घर वालों को लग चुकी थी और अगली बरसात से पहले ही उन्होंने दिव्या भारती के हाथ पीले कर दिए।

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