आशा विनय सिंह बैस, नई दिल्ली। सन 1999 की बात है! वायुसेना का प्रशिक्षण पूरा होने के बाद सूरज की पहली पोस्टिंग वायुसेना स्टेशन बीदर में हुई थी। वायुसेना में नियुक्ति के समय सूरज बीएससी द्वितीय वर्ष का छात्र था। प्रशिक्षण के दौरान बीएससी की पढ़ाई जारी रख पाना संभव नहीं था अतः वह प्रशिक्षण पूरा होने के पश्चात स्नातक कोर्स में पुनः एडमिशन लेने के बारे विचार करने लगा। सूरज के कई साथी उस्मानिया, इग्नू आदि विश्वविद्यालयों से कला स्नातक की पढ़ाई कर रहे थे क्योंकि इन विश्वविद्यालयों से पत्राचार से पाठ्यक्रम पूरा हो जाता है, बस परीक्षा देने जाना पड़ता है।
लेकिन सूरज ने कुछ नया करने की ठानी। उसने भविष्य में कंप्यूटर की उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए बीसीए में एडमिशन लिया। चूंकि बीदर एक छोटा सा टाउन था और उन दिनों कंप्यूटर एक दुर्लभ वस्तु हुआ करती थी। इसलिए सूरज को स्टडी सेंटर बीदर से लगभग 150 किलोमीटर दूर हैदराबाद में आबंटित किया गया था।
बीसीए की क्लासेस सिर्फ सटरडे/संडे को होती थी। इसलिए सूरज को लगा कि वह मैनेज कर लेगा। शुरुआत के दो-तीन महीने सिर्फ थ्योरी क्लासेस थी उसके बाद प्रैक्टिकल शुरू होना था। सूरज किसी तरह छुट्टी लेकर या जुगाड़ करके बीदर से हैदराबाद जाता, क्लास अटेंड करता और वापस बीदर आ जाता। पिछले कुछ सप्ताह से उसका यही रूटीन चल रहा था।
सूरज के क्लास में एक बिल्कुल शांत स्वभाव की लड़की थी। उसका नाम था सुगंधा- स्वस्थ शरीर, रंग कुछ सांवला, दो बड़ी-बड़ी आंखें, चौड़ा माथा, काले घने और कमर तक लटकते लंबे बाल। मेकअप के नाम पर वह एक फूलों की वेणी बालों में और माथे पर एक छोटा सा तिलक लगाया करती थी।
सुगंधा मितभाषी थी, वह कक्षा के दौरान बहुत कम बोलती थी लेकिन उसकी आंखें बोलती थी। वह तेलुगु भाषी थी। उसे हिंदी उतनी ही आती थी जितनी सूरज को अंग्रेजी। कभी-कभी क्लास में टीचर देर से आते या किसी कारण क्लास जल्दी खत्म हो जाती तो सूरज और सुगंधा आपस मे हेलो-हाय कर लिया करते थे। जैसे-जैसे कोर्स आगे बढ़ता गया सुगंधा और सूरज की बातचीत भी बढ़ने लगी। शुरुआत में बातचीत कोर्स और कंप्यूटर के भविष्य, इसमें रोजगार की संभावनाओं आदि पर होती थी। कुछ दिनों बाद बात व्यक्तिगत रुचि, भविष्य की योजनाओं, घर-परिवार की भी होने लगी।
सुंदरता के फिल्मी मानकों पर सुगंधा फिट नहीं बैठती थी। वह साधारण नैन-नक्श वाली नेक्स्ट डोर गर्ल थी। मतलब यह कि वह ऐसी लड़की तो बिल्कुल भी नहीं थी जिसे देखते ही कोई देखता रह जाये।
बड़े-बूढ़े, अनुभवी लोग कहते हैं कि नव-युवावस्था उम्र का वह दौर होता है, जब युवक को सब कुछ अच्छा लगता है। उसे दुनिया की कोई बात बुरी नहीं लगती। उसे अपने माँ-बाप, परिवार से प्यार होता है। रिश्तेदारों से भी बड़े अच्छे संबंध होते हैं। प्रकृति अच्छी लगती है, प्रकृति में पाई जाने वाली हर चीज अच्छी लगती है। लड़कियां अच्छी लगती हैं, उनके नखरे अच्छे लगते हैं। उनकी बातें अच्छी लगती हैं, उनका साथ अच्छा लगता है।
सूरज उम्र के उसी दौर से गुजर रहा था, जब सब कुछ अच्छा लगता है। शायद इसीलिए आहिस्ता-आहिस्ता सुगंधा, सूरज के मन-मष्तिष्क में व्हिस्की सी असर करने लगी थी। सूरज वाचाल था और सुगंधा मितभाषी। दुनिया कहती है कि अपोजिट नेचर और अपोजिट सेक्स अट्रैक्ट करता है। सूरज-सुगंधा के मामले में यह फार्मूला बिल्कुल फिट बैठता था।
सूरज जब कभी सुगंधा के पास बैठता तो उसकी बड़ी-बड़ी बोलती आंखों को देखता रहता। सुगंधा के बालों से निकलने वाली नारियल तेल और मोगरा के फूलों की मिश्रित खुशबू उसे रोमांचित करती। शायद उसे कुछ-कुछ होने लगा था। क्या होने लगा था, उसे आभास तो हो रहा था लेकिन वह अपने दिल की बात सुगंधा से कहकर अपने को हल्का, चीप साबित नहीं करना चाहता था। घर परिवार से कोसों दूर एक अच्छे दोस्त को वह अपने मन की बात कहकर खोना नहीं चाहता था। इसीलिए उसने दिल को समझा लिया और भावनाओं को दबा लिया। उसने चुप रहना ही बेहतर समझा।
एक रोज जब सूरज क्लास खत्म होने के बाद बेगमपेट रेलवे स्टेशन जाने के लिए सिटी बस का इंतजार कर रहा था, तभी सुगंधा अपनी मां के साथ आ गई। सुगंधा ने सूरज का परिचय अपनी शिक्षिका मां से कराया। वह बड़े दुलार से बोली- “तो तुम्हीं सूरज हो! सुगंधा तुम्हारे बारे में मुझे बहुत कुछ बताती रहती है। बेटा ऐसा करो, आज हमारे साथ ही चलो। मैं तुम्हें अपनी कार से बेगमपेट रेलवे स्टेशन छोड़ दूंगी।”
सूरज को इस ऑफर से पैसे और समय बचने तथा सुगंधा के साथ कुछ समय और मिलने की मन ही मन तो बेहद खुशी हो रही थी। फिर भी वह अपने जज्बातों को कंट्रोल कर बोला-
“आंटी जी, मैं चला जाऊंगा। मेरे पास इस छोटे से बैग के अलावा कोई सामान नहीं है। बस आती ही होगी। आप अपना समय क्यों बर्बाद करेंगी?? ”
इस पर सुगंधा की मां बोली-
“बेटा, मुझे बेगमपेट रेलवे स्टेशन के पास ही कुछ काम है इसलिए मुझे उसी तरफ जाना है। मेरा कोई समय बर्बाद न होगा।”
फिर उन्होंने जिद करके सूरज को अपनी मारुति- 800 में बैठा लिया।
कार के अंदर बैठते ही सुगंधा की मां के अंदर का शिक्षक जाग उठा। उन्होंने सूरज पर प्रश्नों की बौछार कर दी। पहले तो उन्होंने कुछ रूटीन से प्रश्न दागे- “बेटा, तुम क्या करते हो एयर फोर्स में? तुम्हारे पापा-मम्मी क्या करते हैं? तुम्हारा होम टाउन किधर है? और अंत मे एक कठिन प्रश्न कि-“बेटा तुम्हारा पूरा नाम क्या है?”
“मेरा पूरा नाम सूरज सिंह बैस है।” फिर प्रतिप्रश्न – “तो तुम लोग वैश्य (बनिया) हो?”
“नहीं, हम लोग ठाकुर हैं। देश के पहले गणतंत्र वैशाली (लिच्छवी) से हमारे पूर्वज आये थे, इसलिए हम बैस कहलाये। कन्नौज के सम्राट हर्षवर्धन और बैसवारा के राजा राव राम बख्स सिंह हमारे पूर्वज हैं। हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद भी बैस ठाकुर थे। आज भी हमारे क्षेत्र को बैसवारा ही कहा जाता है।”
सूरज के इस जवाब से सुगंधा की मां काफी प्रभावित दिखीं। उनकी अनुभवी आंखों ने शायद पहचान लिया था कि यह बातूनी लड़का, ढपोरशंख तो बिल्कुल नहीं है।
फिर पता नहीं क्या सोचकर वह अपने खानदान के बारे में बताने लगी कि हम रेड्डी हैं। हमे भी आंध्र प्रदेश का ठाकुर ही समझो। मेरे हसबैंड बीएसएनएल में इंजीनियर हैं। सुगंधा के अलावा एक और लड़का है। वह अभी 10वीं कक्षा में है। हमारा गांव यहां से 200 किलोमीटर दूर है लेकिन हम दोनों हैदराबाद में ही नौकरी करते हैं और अब यहीं के हो चुके हैं।
बातों-बातों में बेगमपेट रेलवे स्टेशन आ गया। सूरज ने सुगंधा की मम्मी के पैर छुए और “थैंक यू” कहा। वह बहुत देर तक सूरज को प्यार भरी नजरों से देखती रही फिर आशीर्वाद देकर चली गई।
अगले संडे जब सूरज क्लास अटेंड करने हैदराबाद आया तो सुगंधा उसे कुछ ज्यादा ही प्रसन्न नजर आ रही थी। अमूमन शांत रहने वाली सुगंधा ने उस दिन खुद ही अपनी तरफ से बातचीत शुरू कर दी। सूरज उसके व्यवहार में सुखद परिवर्तन देख कर आश्चर्यचकित था। वह दिन सूरज के लिए काफी खुशगवार गुजरा। क्लास खत्म होने के बाद दोनों ने साथ-साथ कॉलेज की कैंटीन में चाय पी और अगले क्लास में मिलने का वादा करके एक दूसरे से विदा लिया।
उन दिनों कैमरे वाले मोबाइल फोन हुआ करते तो शायद सूरज, सुगंधा के साथ कोई सेल्फी खींच लेता और अपने व्हाट्सएप या फेसबुक पर स्टेटस डाल देता कि – “उत्तर प्रदेश और आंध्र प्रदेश चाय पर चर्चा करते हुए”
या “Having tea with bestie”
या फिर कम से कम चलते समय सुगंधा का मोबाइल नंबर ही ले लेता औऱ उस पर रिंग टोन लगा लेता-
“दो दिल मिल रहे हैं, मगर धीरे-धीरे।
सबको हो रही है, खबर धीरे-धीरे।।”
खैर ऐसा कुछ भी न हो सका फिर भी सूरज खुशी-खुशी बीदर वापस लौट आया।
सूरज के बीदर आने के दो दिन बाद ही कारगिल में कुछ तनाव की खबरें टेलीविजन पर आई और अचानक सैनिकों की छुट्टियां बंद कर दी गई। कुछ दिनों बाद तो बिल्कुल युद्ध जैसी स्थिति बन गई और उन लोगों को भी छुट्टियां नहीं दी जा रही थी जिनकी खुद की शादी थी। जो छुट्टी पर थे उनको बुलाने के लिए उनके होमटाउन पर तार भेजा जा रहा था।
ऐसे माहौल में सूरज क्लास करने की छुट्टी अपने ऑफिस से भला किस मुंह से मांगता??
सूरज को अपनी बीसीए की प्रैक्टिकल क्लास मिस होने और फीस के पैसे बर्बाद होने का बेहद अफसोस था। बीच-बीच में उसे सुगंधा की भी याद आती थी, लेकिन वह कर भी क्या सकता था उसे बस एक ही उम्मीद थी कि सीमा पर तनाव कम होते ही वह क्लास अटेंड कर सकेगा और सुगंधा से भी मिल सकेगा।
लेकिन कारगिल में भारत-पाकिस्तान का तनाव बढ़ता ही गया। ज्यादातर सैनिकों को सीमा पर भेज दिया गया और जो यूनिट में बच गए उन्हें सांस लेने तक की फुर्सत नहीं थी। दिन और रात का फर्क मिट गया था। लगभग दो महीने तक इसी तरह का माहौल रहा। सूरज एक भी क्लास न कर सका। वार्षिक परीक्षा में भी वह नहीं बैठ पाया। हारकर उसने निर्णय कर लिया था कि वह अब किसी भी प्रैक्टिकल वाले कोर्स में अपना समय और पैसा बर्बाद नहीं करेगा। सुगंधा को भी वह एक खूबसूरत स्वप्न की तरह भूल जाएगा।
26 जुलाई 1999 को भारतीय सेना ने अपने पराक्रम के बदौलत कारगिल युद्ध में विजय हासिल कर ली। सूरज को इस बात की बेहद खुशी थी कि उसकी सेना जीत गई, उसका देश जीत गया था।
लेकिन इस बात का गम भी था कि वह बीसीए की डिग्री और अपनी सुगंधा को हमेशा के लिए हार गया था।
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