आशा विनय सिंह बैस की कलम से : कोई मंदिर शहर, कस्बे के कोलाहल से बहुत दूर

आशा विनय सिंह बैस। कल्पना करिए कि कोई मंदिर शहर, कस्बे के कोलाहल से बहुत दूर है। कल्पना करिए कि वहां पहुंचने के लिए न विमान सेवा है, न हाईवे है, यहां तक कि पक्की सड़क भी नहीं है। रास्ते में न गाड़ियों की पों-पों है, न भीड़ की चों-चों। कच्चा, पगडण्डी वाला रास्ता है इसलिए न सीट बेल्ट लगाने का झंझट है, न हेलमेट पहनने की मजबूरी।

मंदिर के प्रांगण में पार्किंग का कोई झंझट नहीं है। जिधर बाइक या कार पार्क कर दो, वही पार्किंग। मंदिर के बाहर दर्जनों दुकानदार आपको जबरन घेरकर पूजा की थाली खरीदने की जिद नहीं करते। मंदिर में प्रवेश करने के लिए आपको कोई लाइन नहीं लगानी पड़ती। कोई सुविधा शुल्क नहीं देना पड़ता, कोई विशेष पर्ची नहीं कटवानी पड़ती। समय बिल्कुल भी नहीं लगता। आपके और भगवान के विग्रह के मध्य बस चंद सेकंड्स का फासला है।

मंदिर के अंदर पहुंचने पर आपसे कोई दक्षिणा नहीं मांगता है और न ही कोई सेवादार विग्रह के सामने कुछ सेकंड से अधिक रुकने पर आपको धक्का दे देता है। विग्रह साफ सुथरे और पावन हैं। न मनों फूल माला से ढकी हुई, न अत्यधिक फल-मिष्ठान के चढ़ावे से चिपचिपी, लसलसी हुई मूर्तियां।

दान पात्र है लेकिन कोई विवशता नहीं है। आपका मन करे तो दान पात्र में एक रुपये डाल दीजिए, अगर श्रद्धा है तो हज़ार रुपये भगवान के नाम पर अर्पण कर दीजिए। एक रुपये डालने से आपका कोई तिरस्कार नहीं करेगा और हज़ार रुपये डालने से कोई आपका जबर्दस्ती टीका चंदन नहीं करने लगेगा, कलावा नहीं बांधने लगेगा।

समय कम है तो दो मिनट में दर्शन करके वापस चल दीजिए। पर्याप्त समय है तो घंटों मंदिर की फर्श पर बैठकर ईश्वर का ध्यान कीजिये या यूं ही बैठकर मंदिर प्रांगण की आध्यात्मिकता का अनुभव कीजिये। कुछ समय के लिए ही सही अपने जीवन की तमाम समस्याओं को भूल जाइए, सभी कष्ट प्रभु के चरणों में अर्पण कर दीजिए।

अब मंदिर के बाहर आइये। बाहर एक ठंडे पानी का कुंआ है। प्यास लगी हो तो लुप्तप्राय हो चुके कुंए का ठंडा जल पीजिए। मेरा विश्वास करिए, उस ठंडे जल से न केवल आपकी प्यास बुझेगी, तन को राहत मिलेगी बल्कि मन भी शीतल हो जाएगा। अब आप कुंए की जगत (चबूतरे) पर चप्पल/जूते उतारकर आलथी-पालथी मारकर बैठ जाइए। आंखें बंद कर लीजिए और हरे भरे खेतों की तरफ से आकर कुंए के जल से ठंडी होकर गुज़रती हवा को अपने चेहरे और पूरे शरीर पर महसूस कीजिये। ऐसा लगेगा कि आपकी वर्षों की थकान दूर होती जा रही है। कोई अलौकिक शक्ति आपके शरीर की सारी पीड़ा हर ले रही है। आपका शरीर शीतल, हल्का और निरोग होता जा रहा है।अपने शरीर के अंदर होते इस बदलाव को मन की आंखों से देखिए और महसूस कीजिये।

अब आप आंख खोलिए सामने बाईं तरफ खड़े ऊंचे तथा बड़े पीपल के पेड़ को यूं ही निहारिए। उसकी विशालता और ऊंचाई को देखिए। फिर स्वयं को, अपने शरीर को देखिए और अपनी लघुता का ध्यान करिए। पीपल के पत्तों की हलचल को महसूस करिए। उससे निकलती प्राणवायु को गहरी सांस लेकर अपने फेफड़ों में भरिए। इस बूढ़े पीपल ने अपने जीवनकाल में टनों ऑक्सीजन देकर कई पीढ़ियों का, सम्पूर्ण मानवता का कल्याण किया है। इसकी पत्तियां गणेश जी (हाथियों) का प्रिय भोजन हैं।

विडंबना देखिए कि जिस पेड़ को हम लगाते नहीं, उगाते नहीं ,वही हमारा सबसे अधिक कल्याण करता है। पीपल के इसी परोपकारी गुण के कारण बरम देव (ब्रह्म देव) ने इसमें निवास किया। पीपल के इसी कल्याणकारी स्वभाव के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने हेतु हमारे बुजुर्गों ने इसे कभी न काटने का संकल्प लिया। इसे सुबह, शाम पूजा। इस पर जल चढ़ाया। तमाम कर्मकांड इस वृक्ष को साक्षी मानकर किए।

अब वहां से उठिए और आसपास नजर दौड़ाइए। एक तरफ केले के बाग हैं, दूसरी तरफ आम के पेड़ हैं। उसके आगे यूकेलिप्टस के पेड़ों की कतारें हैं, फिर पशुओं का चारे वाले खेत हैं। सावन का मौसम है इसलिए चारों तरफ हरियाली, प्रसन्नता, शांति पसरी हुई है।

अब आप केले के बाग की तरफ जा रहे हैं। वहां जाकर केले के पौधे में लगे केले के घौद को देखिए। उसमें लगे छोटे हरे केलों को निहारिए। ये एक दिन पककर पीले होंगे। तब ये मीठे और स्वादिष्ट होंगे। अभी बेस्वाद लगेंगे। फिलहाल तो इनकी केवल सब्जी बनेगी। प्रकृति के इस खेल पर आश्चर्य करिए कि केले का पौधा अपने जीवनकाल में सिर्फ एक बार फल देता है, फिर काट दिया जाता है। लेकिन कभी कोई विक्टिम कार्ड नहीं खेलता, कोई शिकायत नहीं करता। शायद इसीलिए केला पूज्य है। इसके पत्ते पूज्य हैं, तना पूज्य है और फल भी पूज्य हैं।

अब आम के पेड़ो की तरफ बढ़िए। किसी बड़े और फलदार पेड़ के नीचे खड़े होकर पके आम के टपकने का इंतज़ार कीजिए। देशी आम के जमीन पर गिरते ही, उसे बिना धोए केवल हाथ से पोंछकर चूसकर खाइए। अपनी इम्युनिटी को चेक करिए। बचपन में आपने खूब चुए पड़े आम खाए हैं और आपको कुछ नहीं हुआ था। क्या अब भी ऐसा ही है? क्या आप अब भी आपकी रोग प्रतिरोधक क्षमता बरकरार है??

आम को धीरे-धीरे, प्यार से, स्वाद लेते हुए खाइए। कार्बाइड से पके हुए आम और पेड़ से पककर गिरे देसी आम के स्वाद में फर्क अपनी स्वाद ग्रंथियों को महसूस करने दीजिए। केमिकल युक्त फ्लेवर में ढेर सारी चीनी भरकर बनाए गए और अर्धनग्न युवतियों द्वारा प्रचारित तथाकथित मैंगो जूस और इस दैवीय स्वाद वाले आम रस में अंतर महसूस कीजिए।

इस प्रक्रिया के दौरान मुंह में जो आमरस लग गया है, उसे हाथ से पोंछ दीजिए। अब हाथ को आम के पत्ते से पोंछ लीजिए या यूं ही मिट्टी में रगड़कर चिपचिपाहट मिटा लीजिए। मिट्टी से सब कुछ गंदा ही नहीं होता, कुछ चीजें साफ भी हो जाती हैं। कुछ समय के लिए अपना बचपन फिर से जी लीजिए। टिश्यू पेपर, रुमाल, साबुन, लिक्विड हैंडवाश को आज भूल जाइए।

अब वापस मंदिर के पास आइए। मंदिर के बगल में स्थित तालाब के पास सीढ़ियों में बैठकर तालाब में मछलियों के उछलने कूदने से होने वाली हलचल को महसूस कीजिए। तालाब के चारों तरफ लगे पेड़ों की प्रतिकृति तालाब के साफ पानी में देखिए। बयार चलने पर पेड़ झूमेगा तो तालाब के पानी के अंदर वाला पेड़ भी हूबहू वैसे ही नाचेगा। पेड़ का शीशा शायद यही तालाब है, जिसे देखकर वह खुद का श्रृंगार करता होगा। अपने डांस के स्टेप ठीक करता होगा, अपनी मस्ती का थ्री डी अवलोकन करता होगा। खुद पर रीझता होगा, खुद से प्यार जताता होगा।

अगर आपके अंदर का बच्चा अब भी जिंदा है तो एक बित्ती (पत्थर या ईट का पतला टुकड़ा) उठाइए। अब पूरे जोर से एक विशेष कोण पर तालाब के पानी में फेंकिए और देखिए कि पानी में डूबने के पहले यह बित्ती डूबने से पहले कितनी बार उतराती है। अगर आनंद आये, बचपन लौट आए तो इस खेल को जारी रखिए…

(आशा विनय सिंह बैस)
कालिका मंदिर, कुम्हड़ौरा, लालगंज बैसवारा से लाइव

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