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यौन उत्पीड़न मामले में राज्यपाल सीवी आनंद बोस की बढ़ सकती है मुश्किलें

  • बंगाल के राज्यपाल पर यौन उत्पीड़न के आरोप वाली याचिका पर सुप्रीम कोर्ट का केंद्र-राज्य को नोटिस 

कोलकाता/नई दिल्ली। उच्चतम न्यायालय ने पश्चिम बंगाल के राज्यपाल सी वी आनंद बोस के खिलाफ कथित यौन उत्पीड़न का आरोप लगाने वाली वहां के राजभवन की एक महिला कर्मचारी की याचिका पर शुक्रवार को केंद्र और पश्चिम बंगाल सरकार सरकार को नोटिस जारी किया। मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ और न्यायामूर्ति जे बी पारदीवाला तथा न्यायामूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने याचिकाकर्ता के अधिवक्ता श्याम दीवान की दलीलें सुनने के बाद केंद्र और पश्चिम बंगाल सरकार को नोटिस जारी किया।

पीठ ने साथ ही अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणी से इस मामले का निपटारा करने में सहयोग करने का अनुरोध किया।  याचिकाकर्ता का पक्ष रखते हुए वरिष्ठ अधिवक्ता दीवान ने पीठ से गुहार लगाते हुए कहा कि कोई ऐसा मामला नहीं हो सकता, जिसमें (राज्यपाल के पद पर होने के कारण छूट दी जाए) कोई जांच ही नहीं की जाए।

उन्होंने कहा, “इसे अनिश्चित काल के लिए टाला नहीं जा सकता। बिना किसी देरी के साक्ष्य एकत्र किए जाने चाहि।” इस पर पीठ ने उनसे पूछा कि क्या केंद्र सरकार को इस मामले में पक्षकार बनाया गया,  दीवान ने जवाब दिया कि ऐसा किया जा सकता है। इसके बाद पीठ ने मामले में नोटिस जारी किया। 

पीठ ने नोटिस जारी करते हुए कहा, “यह याचिका अनुच्छेद 361 के तहत राज्यपाल को दिए गए संरक्षण की सीमा संबंधित सवाल उठाती है। इस अनुच्छेद के तहत राज्य के राज्यपाल के खिलाफ उनके कार्यकाल के दौरान कोई आपराधिक कार्यवाही शुरू नहीं की जा सकती या जारी नहीं रखी जा सकती। अधिवक्ता आस्था शर्मा ने पश्चिम बंगाल सरकार के लिए शीर्ष अदालत की ओर से जारी नोटिस स्वीकार की।

अपनी याचिका में कथित तौर पर पीड़ित महिला ने दावा किया कि राज्यपाल को दी गई संवैधानिक प्रतिरक्षा के कारण वह ‘उपचारविहीन’ हो गई हैं। (न्याय पाने से वंचित हो गई हैं) याचिकाकर्ता ने शीर्ष अदालत से गुहार लगाई है कि उसके द्वारा लगाए गए यौन उत्पीड़न के आरोपों की जांच करने के लिए वह पश्चिम बंगाल पुलिस को आवश्यक निर्देश दे।

याचिका में संविधान के अनुच्छेद 361 के तहत संवैधानिक व्यक्ति को प्राप्त प्रतिरक्षा की सीमा और योग्यता निर्धारित करने का भी अनुरोध किया गया है। संविधान के अनुच्छेद 361 (2) में कहा गया है कि राष्ट्रपति या किसी राज्य के राज्यपाल के खिलाफ उनके कार्यकाल के दौरान किसी भी अदालत में कोई आपराधिक कार्यवाही शुरू नहीं की जा सकती या जारी नहीं रखी जा सकती है।

याचिका में उक्त प्रावधान का हवाला देते हुए दलील दी गई है कि ऐसी शक्तियों को पूर्ण नहीं समझा जा सकत, जिससे राज्यपाल को ऐसे कार्य करने का अधिकार मिल जाए जो अवैध हों या जो संविधान के भाग तीन की बुनियाद पर हमला करते हों।

याचिका के अनुसार, महिला ने अपनी शिकायतों को उजागर करते हुए राजभवन को एक शिकायत पत्र भी भेजा था, लेकिन संबंधित अधिकारियों द्वारा कथित तौर पर अपने कर्तव्यों का निर्वहन नहीं किया। महिला का आरोप है कि इस मामले में उसे अपमानित किया गया और मीडिया में उसका मजाक उड़ाया गया। उसे राजनीतिक ‘हथियार’ बताया गया, जबकि उसके आत्मसम्मान की सुरक्षा के लिए कोई उपाय नहीं किया गया।

याचिकाकर्ता ने यह भी दलील दी कि कोई भी व्यक्ति कानून से ऊपर नहीं और संवैधानिक छूट की आड़ में राज्यपाल को किसी भी तरह से अनुचित तरीके से कार्य करने और लैंगिक हिंसा करने की अनुमति नहीं है। 

शिकायतकर्ता महिला ने याचिका में कहा है यह (विशेष अधिकार) सीधे तौर पर संविधान के तहत उसके साथ ही (याचिकाकर्ता) प्रत्येक व्यक्ति को दिए गए मौलिक अधिकारों पर हमला करता है।

याचिका में कहा गया, “इस मामले में पीड़िता (याचिकाकर्ता) को झूठा बनाना, जबकि यह सुनिश्चित करना कि आरोपी/माननीय राज्यपाल खुद को क्लीन चिट दे दें, सत्ता का ऐसा अनियंत्रित प्रयोग एक गलत मिसाल कायम करेगा। ऐसे में यौन पीड़ितों को कोई राहत नहीं मिलेगी। यह संवैधानिक लक्ष्य का पूर्ण उल्लंघन होगा।”

याचिकाकर्ता का दावा है कि उसने दो मई 2024 को संबंधित प्रभारी अधिकारी को एक लिखित शिकायत दी थी, जिसमें राज्यपाल पर बेहतर नौकरी देने के बहाने उसका यौन उत्पीड़न करने का आरोप लगाया गया है।

महिला की याचिका में 15 मई 2024 की प्रेस रिपोर्ट का भी हवाला दिया गया, जिसमें कहा गया है कि बंगाल की एक ओडिसी नर्तकी ने भी अक्टूबर 2023 में शिकायत दर्ज कराई थी, जिसमें राज्यपाल पर जनवरी 2023 में नई दिल्ली के एक होटल में उसका यौन शोषण करने का आरोप लगाया गया था। इस बारे में मई 2024 में कोलकाता पुलिस द्वारा राज्य सरकार को सौंपी गई जांच रिपोर्ट में यह दावा किया गया है।

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