“जीने की वजह”
सुबह उठा तो धूप खिल चुकी थी। चाय की चुस्की के बाद ऊपर के कमरे में गया तो देखा पिताजी कुर्सी पर बैठे किताब पढ़ रहे थे। मुझे देख चश्मे के पीछे से नजरें उठाकर हल्की सी मुस्कान बिखेरी, मानों ‘सुप्रभात’ कह रहे हों, और वापस पढऩे में मशगूल हो गए।
उनके चेहरे पर मुस्कान देख काफी सुकून मिला। सच कहूं तो यही देखने आया था। पिछले एक महीने से पिताजी की यही दिनचर्या है-अहले सुबह उठकर नित्य-क्रिया व नाश्ते के बाद किताबों की दुनिया में खो जाते हैं।
कभी-कभी तो स्नान व मध्याह्न भोजन का भी ध्यान नहीं रहता। दोपहर को आराम करते हैं। शाम को चाय का आनंद लेते हुए फिर किताबें पढ़ते हैं।
उसके बाद परिवार के सदस्यों के साथ थोड़ा समय बिताने के पश्चात 9 बजे रात्रिभोज करके 10 बजे तक सो जाते हैं। उन्हें देख सभी यही कहेंगे कि सुकून भरी रिटायरमेंट लाइफ का लुत्फ उठा रहे हैं, लेकिन कुछ समय पहले तक ऐसा नहीं था।
पिताजी की पूरी जिंदगी पत्रकारिता में बीती। कालेज के दिनों से ही इसे जीवन का मिशन बना लिया था। वक्त कब पंख लगाकर उड़ गया, उन्हें पता ही नहीं चला। हमने कर्म जीवन में उन्हें हमेशा व्यस्त देखा। रोजाना कितने ही आम-ओ-खास से मिलते थे।
वार्तालाप-साक्षात्कार करते थे। खबरें लिखते थे। घुमक्कड़ जीवन भी था उनका। खबरों की खोज में कहीं भी चले जाते थे। किसी दिन कोई महत्वपूर्ण घटना होने पर ऑफिस से जल्दी बुलावा आ जाता था।
रिटायरमेंट के बाद जीवन में अचानक से ठहराव आ गया था।
परिवार में धर्मपत्नी यानी मेरी मां और चार बेटे हैं, फिर भी न जाने उन्हें किस चीज की कमी खल रही थी। व्यस्त रहने के लिए घर की छोटी-मोटी जिम्मेदारी संभाल ली, मसलन बाजार से सामान लाना। जिंदगी दोबारा सचल हो गई लेकिन कुछ साल बाद फिर से विराम।
बाजार करते वक्त फिसलने से कूल्हे की हड्डी टूट गई। ऑपरेशन से हड्डी जुड़ गई, लेकिन पहले जैसी सचलता नहीं लौटी। एहतियातन घर से निकलना बंद हो गया। वाकिंग स्टिक के सहारे अपने कमरे में कुछ कदम चलते थे।
हड्डी टूटने से मानसिक बल भी टूटने लगा था।
जीवन के अंतिम पड़ाव में ऐसे गतिरोध का सामना करना पड़ेगा, सोचा नहीं था। घर में बैठे-बैठे नकारात्मकता घर करने लगी थी। मन बहलाने के लिए टीवी देखना शुरू किया। कुछ दिन अच्छा लगा, फिर मन उबने लगा क्योंकि यह उनकी दिलचस्पी नहीं, मजबूरी थी।
हताशा तेजी से घेरने लगी। शायद जिंदा रहने की कोई वजह नहीं मिल पा रही थी। खुद को बेकार, परजीवी महसूस करने लगे थे। हमेशा मुस्कुराकर बातें करने वाले जिंदादिल इंसान में चिड़चिड़ापन आ गया था। खाना-पीना भी कम कर दिया था।
हम उनमें आए दिन चिंताजनक परिवर्तन देख रहे थे। हर कोई उन्हें कनेक्टेड रखने की कोशिश कर रहा था, लेकिन उनमें विरक्ति बढ़ती जा रही थी। जीने की इच्छा ही नहीं बची थी। पिताजी की उम्र 68 के आसपास है।
शरीरसे तंदरुस्त हैं। चलने-फिरने की परेशानी छोड़ दें तो कोई गंभीर बीमारी भी नहीं। अचानक एक दिन कहने लगे-‘मेरे जाने का समय आ गया है। एक-दो दिन से ज्यादा नहीं बचूंगा।‘
तभी उपाय सूझा। हमें पता था, पिताजी की साहित्य में गहरी दिलचस्पी है। कर्म जीवन में हमेशा कहते थे-पत्रकारिकता भी एक तरह का साहित्य है। ‘जर्नलिजम इज लिटरेचर इन हेस्ट’ यानी झटपट वाला साहित्य।
उन्हें छात्र जीवन से ही उपन्यास पढऩे का बेहद शौक है। मणिशंकर मुखर्जी, शीर्षेंदु मुखोपाध्याय समेत बंगाल के कई उपन्यासकार उनके पसंदीदा हैं, लेकिन कर्म जीवन की आपाधापी में कभी उनकी रचनाएं पढऩे का समय नहीं मिला।
बंगाल में दुर्गापूजा के समय उपन्यास-आलेखों से भरीं पत्रिकाएं, जिन्हें पूजा विशेषांक कहा जाता है, प्रकाशित होती हैं। मैं बाजार जाकर रद्दी की दुकान से एक दर्जन पूजा विशेषांक खरीद लाया और उन्हें चुपके से पिताजी के तकिये के पास रख दिया। वे उस वक्त बरामदे में कुर्सी पर गंभीर मुद्रा में बैठे थे।
जाने क्या सोच रहे थे। कुछ देर बाद बिस्तर पर लौटे। मैं इंतजार कर रहा था कि कब किताबों की ओर ताकेंगे। आखिरकार उनका ध्यान गया। चश्मे को ऊपर उठाया तो आंखें चमक उठीं।
चेहरे पर बड़ी सी मुस्कान आ गई। मुंह से अनायास निकला-‘ये किताबें कौन लाया है?’
मैंने कैजुएल एप्रोच से कहा-‘दोस्त के घर पड़ी थीं, ले आया। आप पढ़ेंगे क्या?’
उन्होंने बड़े उत्साह से कहा-‘मैं नहीं पढूंगा तो कौन पढ़ेगा! मेरे छह महीने का इंतजाम हो गया। ये पढ़ लूं तो और ले आना।‘
जो शख्स कुछ घंटे पहले तक मरने की बातें कर रहा था, वह अचानक मरना भूल गया। कहीं पढ़ा था, ‘जो लोग अपने शौक को संकुचित कर लेते हैं, उनकी जिंदगी भी सीमित हो जाती है।‘
आज आंखों के सामने इस उक्ति को चरितार्थ होते देख लिया। दरअसल पिताजी अपना शौक भूलबैठे थे इसलिए जीना भूल गए थे। रद्दी में पड़ी किताबों में उन्हें जीने की वजह मिल गई।
-विशाल श्रेष्ठ
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