‘एकहि जोति सकल कपात, व्यापक दूजा तत्व न होई’
अर्थात, ‘मान, महत्व, प्रेम गुण और स्नेह, ये सभी बाढ़ के पानी की तरह बहुत जल्दी ही बह जाते हैं, जब किसी व्यक्ति से कोई लाचार व्यक्ति कुछ देने के लिए विनती करता है।’- कबीरदास
श्रीराम पुकार शर्मा, हावड़ा। माता वसुंधरा की शस्य-श्यामल हमारी भारत-भूमि युगों-युगों से देवों की अति प्रिय और महापुरुषों की ‘तप’ व ‘कर्म’ की पावन धरा रही है। देवों ने इस भूमि पर अवतरित होकर अपने कर्म, कौशल और तेज से इसे सिंचित व विकसित किया है, जिन्हें हम भारतवासी आदर और कृतज्ञतावश देव, महात्मा, संत आदि के रूप में विशिष्ठ स्थान प्रदान करते आए हैं। इन्हीं में से एक प्रमुख संत महात्मा कबीरदास जी भी हुए हैं, जो मध्यकालीन भारत के सामाजिक सुधार के अग्रदूत और स्वाधीन चेतना के प्रणेता महापुरुष रहे हैं। कबीरपंथियों ने उन्हें एक अलौकिक ब्रह्म अवतारी पुरुष के रूप ही माना है।
महात्मा कबीरदास का अवतरण उस समय हुआ, जब हमारा भारतीय समाज और आध्यात्म मुगल आक्रान्ताओं के कारण विभिन्न रूढ़ियों, आडंबरों, अंध-विश्वासों, पाखंडों, जातिवाद अनेकताओं से परिपूर्ण था। फलतः लोग एक दूसरे से दूर होते जा रहे थे। स्थिति यह बन गई थी कि कोई घायल पथिक भी पानी के लिए तरसने लगा था। उसका परिचय जाति, वर्ण, धर्म, गोत्र आदि के आधार पर लिया जाता था। ऐसी विषम स्थिति में कबीरदास ने अपने गुरु स्वामी रामानंद के सिद्धांत ‘हरि को भजे सो हरि का होय’ को अपनाकर समस्त लोगों के लिए भक्ति का अत्यंत ही सरल मार्ग प्रस्तुत किया। उन्होंने लोगों में परस्पर भाईचारा, प्रेम और सद्भावना के दिव्य संदेश को प्रसारित कर उन्हें इंद्रधनुषी ‘पंचमेली’ में बाँधने जैसे प्रशंसनीय कार्य किया।
वास्तव में कबीरदास की सरल, पर बिना लाग-लपेट वाली कठोर वाणी उनकी आध्यात्मिक खोज, उनकी सामाजिक पीड़ा और उनके हृदय के विराट परमानन्द से उद्भूत हुई थी। फलतः कबीरदास शब्द के नहीं, बल्कि तत्व-ज्ञान के एक असाधारण व्यवहारिक निर्गुणवादी भक्त और जनकवि रहे हैं। उनका उद्देश्य कोई संप्रदाय या पंथ का निर्माण करना न था। अतः उन्होंने किसी धर्म विशेष एवं दर्शन की पताका को ऊँची नहीं की, बल्कि उन्होंने सदैव अपने को मानवीय तत्त्वों से ही सम्बद्ध रखा। धर्म व सुधार के नाम पर उन्होंने जनता को आडंबरों, रूढ़ियों, माया, मानवीय-विभेदताओं आदि के भ्रम के भंवर जाल में नहीं उलझाया, बल्कि उनका उन्होंने खण्डन कर लोगों को जीवन का एक सरल मार्ग प्रशस्त किया। इसीलिए कबीरदास एक युगांतकारी मानवतावादी सुधारक माने जाते हैं।
‘माटी कहे कुमार से, तू क्या रोंदे मोहे।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रोंदूँगी तोहे।’
कबीरदास मुख्य रूप से एक भक्त और साधक रहे थे। उन्होंने निर्गुण ब्रह्म की उपासना के अंतर्गत भारतीय परंपरा में ईश्वर या परमात्मा से संबंधित हर दृष्टिकोण को जाँचा-परखा और उन्हें जो कुछ सहज लगा, उसे आत्मसात किया तथा दूसरों को भी उसे अपनाने के लिए प्रेरित किया। लेकिन इसके विपरीत जो कुछ उन्हें प्रतिकूल प्रतीत हुआ, उसका उन्होंने त्याग किया। वे एक ऐसे परमात्मा के स्वरूप को स्थापित करना चाहते थे, जो सबके के लिए ग्राह्य हो। जाति, धर्म, शिक्षा तथा सामाजिक विभेदताओं से पूर्णतः मुक्त हो।
कबीरदास ने जन्म के आधार पर ऊँच-नीच के सामाजिक पद कर्म को स्वीकार नहीं किया। उनका मानना था कि मनुष्य जैसा जीवन को प्राप्त किया है, उसी के अनुरूप रहकर और अपने सत्कर्मों के सम्पादन कर परमतत्व से साक्षात्कार कर सकता है। ईश्वर प्राप्ति के लिए गृह-त्याग की नहीं, बल्कि हृदय में प्रेम, भक्ति और समन्वय की भावना को प्रमुख माना है। उनका संघर्ष मुख्य रूप से जीवन साधन के अधिकार के लिए संघर्ष था। उस समय ज्ञान का मूल आधार वेद, पुराण और कुरान जैसी ही रचनाएँ थी, जिन पर समाज के कुलीनों और उच्ची जातियों के रूप में हिन्दुओं में ब्राह्मण और मुसलमानों में मुल्ला-काजी का ही एकछत्र अधिकारी था और वे ही उसके व्याख्याता बने हुए थे। उन्होंने ने इस वर्चस्व को तोड़ते हुए अपने समान ही सामाजिक निम्न जातियों के लोगों को भी ज्ञान-अर्जन का अधिकारी बताया।
तू ब्राह्मण मैं कासी का जुलाहा, चिन्हीं न मोर गियान।
तैं सब माँग भूपति राजा, मोर राम धियाना।।
मानवतावादी कबीरदास ने तथाकथित धर्म और समाज के क्रूर ठेकेदारों के उलझित जटिल तंत्रों से मुक्ति दिलाने के लिए ही अवतार, मूर्ति, मंदिर, रोजा, नमाज, ईद, मस्जिद आदि से ऊपर उठकर एक परम ईश्वरीय सत्ता को स्थापित किया, जिसे चाहे तो ‘राम’ कहें, या फिर ‘रहमान’ कह लेवें, या फिर किसी भी अन्य नाम से पुकारें। लोग ‘राम’ और ‘रहमान’ के तत्व-ज्ञान को समझें। अन्यथा ‘राम’ और ‘रहमान’ की विभेदता तो मानव-रक्त-पिपासु बन गई थी।
‘हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना,
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना।’
यह सत्य है कि कबीरदास ‘रामनाम’ की महिमा गाया करते थे। लेकिन उनका वह ‘राम’ विष्णु अवतार दशरथ-नंदन नहीं, बल्कि वह तो किसी भी व्यक्ति रूप या विशेषताओं से परे ही रहा है। उनका ‘राम’ सर्वव्यापी है, निराकार है, जो मंदिर-मस्जिद, कीर्तन-अजान, धर्म-जाति, आकार-प्रकार से परे केवल शुद्ध ज्ञान हैं, शुद्ध परमानन्द हैं, जो समय और स्थान से परे हैं, जो विश्व के कण-कण में रमे हुए हैं, जिसका न मुँह-माथा है, न ही रूप-स्वरूप ही है, वह तो घट-घट के वासी, मृग के कस्तूरी के समान और फूलों के वास से भी महीन तथा अगोचर हैं। पर सबको आस्था और विश्वास के मजबूत सूत्र में बाँधे रहता हैं।
‘जाके मुँह माथा नाहिं, नहिं रूपक रूप।
फूल वास ते पतला, ऐसा तात अनूप॥’
कबीरदास ने ईश्वर की सर्वव्यापकता की बातें करते हुए उसके एकत्व पर भी जोर दिया है। विभिन्न मतों में जो पृथकतावादी या निज-विशिष्टतावादी दृष्टिकोण है, उसे उन्होंने कतई स्वीकार नहीं किया है। हिन्दू अपने राम की, तो मुसलमान अपने रहमान की श्रेष्ठता को स्थापित करने के लिए एक-दूसरे को मिटाने पर आतुर रहते हैं, ऐसे लोगों को कबीर ने आध्यात्मिक मृत माना है। इसके विपरीत जो लोग ऐसी विभेदताजन्य धार्मिकता और सिद्धांतवादी संकीर्णता में नहीं पड़ते हैं, उन्हें कबीर ने आध्यात्मिक जीवित माना है। इसके लिए कबीर उन मंद बुद्धि साधु-मुल्लाओं को फटकारते हैं, जो खुद राम या फिर रहमान की आराधना से कट गए हैं। पर लोगों से आस लगाए रहते हैं कि वे ‘राम’ और ‘रहमान’ के नाम को बुलंद करने के प्रयास में विजाति-विधर्मी को ही मिटा देवें। मस्जिद पर चढ़कर दूसरों को रहमान के लिए प्रेरित करता है और निज जिह्वा स्वाद के लिए जीव हत्या करता है।
‘कबीर काजी स्वादि बसि, ब्रह्म हतैं तब दोई।
चढि मसीति एकै कहै, दरि क्यूँ साचा होई।।’
कबीरदास ने इस मनुष्य जीवन को अनमोल और दुर्लभ माना है। इसे वे पौधे पर लगे फल के समान मानते हैं, जो एक बार उससे च्युत हो गया तो, फिर वह उससे न जुड़ पाता है। अतः मनुष्य को अपने जीवन को व्यर्थ-कार्यों में न गँवाना चाहिए। बल्कि मनुष्य अर्थात साधक को अपने जीवन को सार्थक बनाने के लिए परमात्मा से एकनिष्ठ प्रेम करने का परामर्श देते हैं। मनुष्य को साधना के मार्ग पर बहुत ही धीरे-धीरे धैर्य धारण कर क्रमगत बहुत ही सावधानी के साथ निष्काम भाव से आगे बढ़ना चाहिए। साधना मार्ग में थोड़ी-सी भी लापरवाही या कामनामय विचार उसे उसके परम लक्ष्य से विमुख कर देंगे। भक्ति की इस सरल पद्धति का अनुसरण करते हुए मनुष्य एक दिन अपने परम लक्ष्य अर्थात ईश्वर की प्राप्ति कर लेने में सक्षम हो जाता है।
करता की गति आगम है, तूँ चलि अपणं उनमान।
धीरे धीरे पाव दे, पहुँचैगे परवान।।
कबीरदास की सरल ‘पंचमेली’ वाणी में जहाँ एक ओर दर्शन, अध्यात्म, ज्ञान, वैराग्य संबंधित गूढ़ता मिलती है, तो वहीं दूसरी ओर उसमें समाज-सुधार का विशद शंखनाद की अनुगूँज भी है। उनकी वाणियों में समाज सुधार और जनजीवन के उत्थान संबंधित महान विचार समाहित हैं। इसीलिए उनमें सर्वत्र ही रूढ़ि-आडम्बरों पर गंभीर चोट की ध्वनि सुनाई देती है। उद्देश्य स्पष्ट है, कि वे भय-मुक्त समाज के पक्षधर रहे हैं, जिसमें एक साधारण व्यक्ति भी उन्मुक्त श्वास ले सके। इस प्रकार से कबीरदास वस्तुतः उच्चतम मानवीय व्यक्तित्व के आग्रही रहे हैं। उनकी सामाजिकता वास्तव में उनकी दार्शनिकता से परिपूर्ण रही है।
‘मौको कहाँ ढूंढे बंदे, मैं तो तेरे पास में।।
ना मैं गिरजा, ना मैं मंदिर, ना काबे, कैलास में।’
महात्मा कबीरदास सामाजिक एकरसता के लिए धार्मिक अलगाववाद के सख्त खिलाफ रहे हैं। उनकी दर्शनिकता और शिक्षाओं ने परवर्तित काल में कई व्यक्ति और व्यक्ति-समूहों को आध्यात्मिक रूप से प्रेरित किया है। गुरु नानक जी, दादू जी, सतनामी जीवनदास जी आदि ने उनके ही द्वारा प्रशस्त आध्यात्मिक मार्ग के बहुत कुछ अंशों का अनुसरण किया है। इनके अनुयायियों के द्वारा संचालित ‘कबीरपंथ’ कोई अलग धार्मिक पंथ न होकर एक आध्यात्मिक दर्शन मात्र ही तो है।
ऐसे विकट समय में उन्होंने जनसाधारण की सरल और सुबोध भाषा में अपने मतों को बहुत ही सुनियोजित ढंग से प्रचार किया और पीड़ित जनों को संबल प्रदान किया। उनकी सरल लोक-भाषा, आध्यात्मिक विचार-भावना और अनुभव की गहराइयाँ उन्हें आज भी प्रासंगिक और लोकप्रिय बना रखी हैं। चुकी कवित्व करना उनका ध्येय नहीं रही है। उनका हृदय ती एक सरल भक्त और समाज सुधार का था। अतः उनकी वाणी में कवित्व को ढूँढना मूर्खता ही होगी। फिर भी उनके दोहों और लंबे गीतिय पदों में संगीत के सरगम तत्वों का सुन्दर समन्वय को देखकर वर्तमान संगीत विशेषज्ञों को भी आश्चर्य हो जाता है और उन्हें कवियों में विशिष्ठ स्थान प्रदान किया जाता है।
‘चलना है दूर मुसाफिर, काहे सोवे रे,
चेत-अचेत नर सोच बावरे, बहुत नींद मत सोवे रे,
काम-क्रोध-मद-लोभ में फंसकर, उमरिया काहे खोवे रे।’
महात्मा कबीरदास की वाणी-ज्योति मानव जीवन के विविध क्षेत्रों को जितना उदभासित कर सकी है, वह कोई मामूली बात या फिर शक्तिमत्ता की परिचायिका मात्र नहीं है, बल्कि वह महान प्रकाशपूँज है। वह बौद्धिक आलोचना से परे ही है। उनके मस्ती, फ़क्कड़ाना स्वभाव, लांछना-प्रशंसा सबकुछ को झाड़-फटकार कर आगे चल देने वाला तेज ने कबीर को न केवल एक सशक्त भक्त बना दिया, बल्कि उन्हें हिन्दी-साहित्य का अद्वितीय व्यक्तित्व बना दिया है। कबीरदास के पदों में जो महान् प्रकाशपुंज है, वह बौद्धिक आलोचना का विषय नहीं है। उनकी प्रासंगिकता आज साढ़े छः शताब्दियों के बाद भी ज्यों की त्यों बनी हुई है, जो उनकी महत्ता को प्रदर्शित करता है।
(कबीर 647 वीं जयंती, ज्येष्ठ पूर्णिमा, 22 जून, 2024)
श्रीराम पुकार शर्मा
अध्यापक व स्वतंत्र लेखक
हावड़ा – 711101 (पश्चिम बंगाल)
ई-मेल सूत्र – rampukar17@gmail.com
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