श्री राम पुकार शर्मा, हावड़ा। मैं सर्वपाप नाशिनी समस्त चराचर की ममतामई प्रवाहमय गंगा हूँ। मैं ही सनातनी भारतीय स्मिता की पहचान हूँ। मैं केवल एक नदी मात्र ही नहीं, अपितु इस धरती पर अनंत काल से प्रवाहमय चेतना का पर्याय हूँ। युग-युग से देवप्रिय ‘भारत-भूमि’ को अपने पवित्र जल से अविरल सींचती हुई मैं जीवन-तत्व हूँ, जीवन-प्रदायिनी हूँ और जीवन-मोक्ष प्रदायिनी भी हूँ। फलतः मुझे समस्त चराचरों की ‘माता’ कहलाने का विशेष गौरव प्राप्त है। आकाश, पाताल और पृथ्वी तीनों लोकों में मेरी समान गतिशीलता के कारण मुझे ‘त्रिपथगामी’ माना गया है। पवित्र ऋग्वेद, रामायण, महाभारत सहित अनेकानेक पौराणिक शास्त्रों में मुझे मंदाकिनी, भोगावती तथा भागीरथी की ‘त्रिसंज्ञा’ के साथ ही पुण्य-सलिला, पाप-नाशिनी, मोक्ष-प्रदायिनी, सुर-सरि, सरित-श्रेष्ठ एवं देव-नदी भी कहा गया है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने मेरी स्तुति करते हुए लिखा है –
जय जय भगीरथ नंदिनी, मुनि-चय-चकोर चंदिनी,
नर नाग विविध-वंदिनी जय जहनु बालिका।
विष्णु पद सरोजजासि, इस-सीस पर बिभासि,
त्रिपथगासि, पुन्यरासि पाप-छालिका।’
मैंने अयोध्या के प्रसिद्ध सूर्यवंशी राजा त्रिशंकु के सत्यवादी पुत्र हरिश्चंद्र को सत्य की रक्षा हेतु एक श्मशान घाट पर चंडाल बन कर शव को जलाते हुए देखा है। अपने मृत पुत्र रोहिताश्व के शव के अंतिम संस्कार हेतु अपनी प्राणप्रिया तारामती के अंग-वसन के अर्धांश को फाड़ने के लिए उद्धत उनके निष्ठुर, पर कर्मरत लाचार हाथों को भी मैंने देखा है। श्रवण कुमार जैसे मातृ-पितृ भक्त पुत्र को और राम-लक्ष्मण जैसे पुत्रों के आदर्श और त्याग को देखा है, जिन्होंने अपने माता-पिता की इच्छा को शिरोधार्य कर राजकीय सुखों का परित्याग कर वन-वन डोलते फिरे। ज्ञात-अज्ञात ऋषि-मुनियों के रक्षार्थ असुरों को संहार कर सबको अभय प्रदान करते रहें। फिर अपनी बाँसुरी की मधुर धुन पर सबको मोहित करने वाले श्रीकृष्ण के सुखदायक क्रिया-कलापों को भी मैंने देखा है। छल-प्रपंचों के ताने-बाने से बुना हुआ ‘महाभारत’ के कथ्य और उसके कठोर परिणाम को ‘कुरुक्षेत्र के मैदान’ में देखा, जिसमें मैंने अपने प्रिय पुत्र देवव्रत (भीष्म) को शर-शैय्या पर अपनी मुक्ति की कामना में मरणासन्न देखा है। आज फिर मैं स्पष्ट रूप से देख पा रही हूँ कि मेरी भारतवंशी संतान मुझे और मुझ जैसी ही अनगिनत प्रवाहिनियों को प्रदूषित कर स्वयं विभिन्न रोगों से आबद्ध होकर मेरे पुत्र भीष्म की भाँति ही मरणासन्न मृत्यु की ओर अग्रसर हो रही हैं।
सर्वोत्तम और अविनाशी ‘सतलोक’ से संबंधित होने के कारण मेरी जलराशि अति पवित्र है। मेरे जल में कीड़े उत्पन्न होने की संभावना न के बराबर है। मेरी जलराशि के एक बूँद में भी जीव को मोक्ष प्रदान करने की दिव्य शक्ति समाहित है अतः मैं पौराणिक काल से ही देव, दनुज, मनुज, प्राणी आदि सबके प्रिय और पूज्यनीय रही हूँ। मेरे मातृत्व स्वभाव और पाप-हरण प्रवृति के प्रति कृतज्ञता प्रकट हेतु प्राचीन काल से ही मेरे तट पर अनगिनत देवालय स्थित हैं, जिनकी सुबह-शाम की मंगल आरती और कर्णप्रिय घंटा ध्वनियाँ मेरे लहरों को उद्वेलित और मुझे प्रवाहवान बनाए रखती हैं। एक से बढ़कर एक कई धार्मिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक जनसमावेश जनित वृहद अनुष्ठानों का आयोजन मेरे तटों पर होते आए हैं। हरिद्वार और प्रयागराज में आयोजित वृहद ‘कुम्भ-मेला’ तथा सागरद्वीप पर आयोजित ‘गंगासागर मेला’ विश्व भर में सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं, जहाँ पर ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का प्रत्यक्ष दर्शन होता है। इसके अतिरिक्त मैं जीव के जन्म और उसके उपरांत की सभी कर्मकांडों में, यहाँ तक कि उसकी मृत्यु के उपरांत के अंतिम कर्मकांडों का प्रमुख हिस्सा बनकर उसे परलोकगामी बनाती हूँ।
पुराणों में मुझे ‘देवी गंगा’ के रूप में बताया गया हैं। इसके अतिरिक्त मुझे देवनदी, सुरसरि, त्रिपथगा, भागीरथी, जाह्यनवी, शिवाय, मंदाकिनी, पापहंता, पतितोद्धारिणी, विष्णुपदाब्जसंभूता, महामोक्षप्रदायिनी, पार्वतैया, ब्राहमकमंडलुकृतलया, गिरिराजसुता आदि जैसे कोई 108 नामों से मुझे पुकारा जाता है। मेरी हर संज्ञा मेरी विशेषता को ही अभिव्यक्त करती है। मेरे जन्म संबंधित अनगिनत पौराणिक कथाएँ कही-सुनी जाती हैं।
मैं अपने जन्म संबंधित एक पौराणिक कथा से आज आपको को अवगत करवाती हूँ, जिसे मैंने ऋषि-मुनियों और पुराणों से जाना है। सर्वोत्तम और अविनाशी सतलोक के मानसरोवर से ही मैं ब्रह्मलोक में आई हूँ। वामन पुराण के अनुसार जब भगवान विष्णु ने वामन का रूप धारण कर अपना एक पैर आकाश की ओर उठाया था, तब परमपिता ब्रह्मदेव जी ने उनके चरण को पखार कर उस ‘चरणामृत’ को अपने कमंडल में भर लिया था । इस जल के तेज से ही उस ब्रह्म-कमंडल में मेरा जन्म हुआ। फलतः मैं ‘विष्णुपदाब्जसंभूता’ कहलाई। फिर तो मैं ब्रह्म-पुत्री के रूप में स्वर्ग में ही पालित-पोषित होती हुई ‘ब्राहमकमंडलुकृतलया’ नाम को प्राप्त की और बाद में ब्रह्मा जी ने मुझको पर्वतराज हिमालय को सौंप दिया। फिर मैं ‘गिरिराजसुता’ बनकर तीन धाराओं के रूप में अविरल बह चली। एक धारा स्वर्गलोक में, दूसरी पृथ्वीलोक पर और तीसरी पाताललोक में बह चली। इसीलिए मैं ‘त्रिपथगा’ भी कहलाती हूँ।
शिवपुराण के अनुसार मैं भी देवी पार्वती की भाँति ही भगवान शिव को अपने पति रूप में प्राप्त करना चाहती थी। इसके लिए मैंने भगवान शिव जी की कठोर तपस्या की और उन्हें प्रसन्न कर उनके साथ रहने का वरदान भी प्राप्त कर लिया, पर देवी पार्वती जी को यह रुचिकर न लगा। अतः भगवान शिव जी ने पार्वती जी के कोप से मेरी रक्षा करते हुए मुझे अपनी जटाओं में लपेट कर छुपा लिया। इस तरह मैं उनकी जटाओं में रहकर निरंतर उनकी सानिध्यता और उनकी भक्ति को प्राप्त कर ‘शिवाय’ नाम को प्राप्त की हूँ। वहाँ से मैं पृथ्वी पर पर्वतराज हिमालय के हिमाच्छादित प्रदेश में प्रकट हुई, जहाँ अति शीतलता के कारण मैं हिम-शीला बन गई। पर इस धरती के जीवों को उनके पापों से मुक्ति प्रदान करने के लिए संकल्पित मैं द्रवित होकर पतली धार के रूप में आगे बढ़ी और आज तक बह रही हूँ।
महाभारतकार महर्षि वेदव्यास ने मुझे बताया कि मैं अपने पिता ब्रह्मदेव के साथ एक बार देवराज इंद्र की सभा में पहुँची थी। उस सभा में पृथ्वी के महा प्रतापी राजा महाभिष भी मौजूद थे। सभा में विभिन्न अप्सराओं का मधुर संगीतमय नृत्य चल रहा था। राजा महाभिष के बलिष्ठ तन और भव्य-तेज ललाट को देखकर मैं उन पर मोहित हो गई। महाराज महाभिष भी मेरे लावण्य को देख कर अपना सुध-बुध खो बैठे थे तभी हवा के उदण्ड झोंके ने मेरे आँचल को मेरे कंधे से गिरा दिया। पर मैं तो राजा महाभिष के सौन्दर्य-रस पान करने में मग्न थी। मेरी इस मानवोचित दशा को देख कर सभा में मौजूद सभी देवी-देवताओं ने शिष्टाचारवश अपनी आँखें तो झुका ली, परंतु महाराज महाभिष अकाग्रचित किसी प्रेमी भौंरे के समान ही मेरे सौन्दर्य-पुष्प के नयन-सुख में ही तल्लीन थे। उस समय हम दोनों भले ही दो शरीर, पर एक प्राण वाले हो गए थे। हम दोनों के हृदय में उद्वेलित-भाव एक ही थे।
हम दोनों की प्रेमासक्ति की मानवीय दशा को देख कर मेरे पिता ब्रह्मदेव जी क्रोधित हो गए और उन्होंने हम दोनों को ही कठोर शाप दे दिया, – ‘गंगा और महाभिष! तुम दोनों ने ही सुरलोक की लोक-लाज, सभ्यता और मर्यादा को कलंकित किया है। गंगा ! इसका दंड स्वरूप तुम्हें धरती पर मनुष्य योनि में जन्म ग्रहण करना होगा।’ परमपिता की कठोर बातों को सुनकर हम दोनों सचेत हुए। मैं पिता ब्रह्मदेव से दया की भीख माँगने लगी। कुछ समय के पश्चात उन्होंने कहा, – ‘चुकी मेरा श्राप व्यर्थ न जाएगा। पर तुम दोनों ही एक दूसरे को पसंद करने लगे हो, मेरा आशीर्वाद है कि धरती पर ही तुम दोनों का कुछ काल की लिए मिलन होगा।’
पिता की वत्सल मधुर छाया से दूर होने और स्वर्ग-सुख से वंचित होने का दु:ख तो मेरे मन में था ही, पर अपने प्रियतम महाभिष से मिलन की आशा और माता वसुंधरा से मिलने के उत्साह के सम्मुख वह दु:ख मुझे नगण्य प्रतीत हुआ। फलतः पिता ब्रह्मदेव के श्राप के कारण ही मैं नदी रूप में धरती पर आईं और दूसरी ओर महाभिष का भी हस्तिनापुर के राजकुल में ‘शांतनु’ के रूप में पुनर्जन्म हुआ। एक दिन शिकार खेलते हुए राजा शांतनु मेरे तट पर पहुँचे। मैं अपने पूर्वजन्म के प्रेमी को पहचान गई। उनसे मिलने की आतुरता में लावण्य रूप धारण कर उनके पास पहुँची। फिर तो हम दोनों के लिए प्रेमाभिव्यक्ति नित्य का सिलसिला ही बन गया और फिर एक दिन उन्होंने मुझे अपनी अर्धांगिनी बनाने की इच्छा व्यक्त की। मैं तो यही चाहती थी। पर एक विशेष कारणवश मैंने उनसे एक वचन ले लिया, – ‘आप मेरे किसी भी क्रिया-कलाप में बाधक न बनेंगे और न ही कोई प्रश्न करेंगे। अन्यथा मैं आपको छोड़कर चली जाऊँगी।’ फिर मैं उनकी अर्धांगिनी बनकर हस्तिनापुर की महारानी बन गई।
कालांतर में हमारे आठ पुत्र हुए, जिनमें से सात पुत्रों को जन्म देते ही मैंने विशेष कारणवश निष्ठुर बनकर अपने ही हाथों से उन्हें अपनी प्रबल प्रवाह में प्रवाहित कर दिया। तात्कालिक कलंक तो मुझ पर लगा कि मैं निर्मोही और पुत्रहंता हूँ। पर मैं भी एक माता हूँ। मुझमें भी मातृत्व हृदय है। मुझे भी संतान प्रिय हैं। उनके कष्टों को देख कर मेरा भी हृदय घन चीत्कार करने लगता है। पर मैं क्या करती? मैं लाचार थी। मातृत्व भाव के कारण ही तो मैंने श्रापग्रस्त वसु-पुत्रों को जन्म-मरण के भाव-बंधन से मुक्ति दिलाने के लिए ही उनकी जन्मदायिनी माँ बनी थी। फिर हृदय भेदन उनके घोर करुंदन को अनसुना कर अपनी ममता के श्रोत पर निष्ठुरता का पत्थर रखकर उन्हें बारी-बारी से अपने प्रबल प्रवाह में प्रवाहित कर उन्हें मुक्ति प्रदान की थी।
परंतु आठवें पुत्र को अपने जल में प्रवाहित न कर पाई। उसे शाप से मुक्त कराने में मैं असफल ही रही। व्यथित पिता महाराज शांतनु उसे जल में प्रवाहित करने से मुझे रोक दिए। मैं कर भी क्या सकती थी? ऋषि श्राप के अनुसार वसु-पुत्र द्यौस के भाग्य में अभी भी सांसारिक भीषण दु:ख-कष्ट को भोगना अपेक्षित ही था। इस प्रकार मेरे आठवें पुत्र के रूप में जन्मा द्यौस मानवीय शरीर में ही फंसकर रह गया। पर बाद में ‘महाभारत’ के सर्वाधिक सम्मानित पात्रों में मेरा पुत्र देवव्रत, ‘भीष्म’ के नाम से अमर हो गया।
अब तो पृथ्वी पर मेरे आने का उद्देश्य पूर्ण हो चुका था। पृथ्वी पर आने के पूर्व ही मैं विचार कर रखी थी कि वसु-पुत्रों मुक्ति प्रदान कर मैं पुनः स्वर्ग में लौट जाऊँगी। पर शायद पुत्र देवव्रत (भीष्म) की भाँति ही मेरा कुछ कार्य अभी भी पृथ्वी पर कुछ शेष रह ही गया था। यहाँ पर रहते हुए अभी तो मेरे कुछ ही दिन हुए थे, पर इस अल्प काल में ही यहाँ के जीवों के प्रति मेरे मन में अगाध मातृत्व-भाव उत्पन्न हो गए। मैंने उन्हें पापों और कष्टों से तड़पते देखा। अब भला अपनी संतान को कष्ट में छोड़ कर कौन माता स्वयं हेतु स्वर्ग की कामना करेगी? संतान सुख के सम्मुख स्वर्ग सुख का क्या औचित्य है? अतः मैंने भी अपने पुत्र देवव्रत के समान ही भीषण संकल्प लिया, – ‘मैं सबकी माता बन, उनके पापों और कष्टों को अंगीकार कर उन्हें मुक्ति प्रदान करने के लिए इसी पृथ्वी पर अविरल बहते रहूँगी।’
और तब से मैं इस पृथ्वी पर अविरल बह रही हूँ और शायद भविष्य में भी इसी पृथ्वी पर बहती ही रहूँगी। यही मेरी नियति है। मैं सहस्त्रों वर्षों से अविरल प्रवाहित होती हुई भारतीय सभ्यता-संस्कृति को गढ़ती, उसे सनातनी स्वरूप देती हुई, उनके दुःखों एवं सुखों की सदैव साक्षी रही हूँ। मैं श्रद्धा, विश्वास तथा आस्था युक्त अपने दीर्घ तट पर लोगों को अध्यात्म एवं योग के अन्वेषियों को आत्म एवं जगत के रहस्यों की अनुभूति कराती रही हूँ। बड़े से बड़े दूषित, कलुषित, अपराधी, विक्षोभित मेरी सानिध्यता को प्राप्त कर पावन, निर्मल और देवतुल्य हुए हैं। इसीलिए तत्वज्ञानी महर्षियों द्वारा मुझे ‘मोक्षदायिनी’ तथा ‘पतित पावनी’ जैसी विशेष ईश्वरीय पदवी प्राप्त हुई है। अब तो मेरे बिना भारतीय सभ्यता, संस्कृति, धर्म, समाज, राजनीति, अर्थ आदि की कल्पना भी नहीं की जा सकती है।
सनातनी संस्कृति के सृजनकर्ता आद्य शंकराचार्य ने मेरी आराधना में बहुत ही मधुर भावभरी स्त्रोत गाए हैं। भक्ति भावपूर्वक मुझे समरण कर इसका पाठ करने से सभी तरह के व्याधि, शाप, दु:ख, पीड़ा, ताप आदि नष्ट हो जाते हैं, बुद्धि विमल हो जाती है और जीव जन्म-मरण के भव-बंधन से मुक्त हो जाता है।
‘देवि सुरेश्वरि भगवति गङ्गे त्रिभुवनतारिणि तरलतरङ्गे।
शङ्करमौलिविहारिणि विमले मम मतिरास्तां तव पदकमले॥
भागीरथि सुखदायिनि मातस्तव जलमहिमा निगमे ख्यातः।
नाहं जाने तव महिमानं पाहि कृपामयि मामज्ञानम्॥’
चूंकि मैं सर्व धार्मिक भाव तथा सर्व आस्थाओं से जुड़ी हुई हूँ। मेरा जल सबके लिए विशेष आदरणीय और पूज्यनीय है। इस पृथ्वी के समस्त चराचर मेरी संतान हैं। वे सभी मेरे जल में आकर अपने पाप को धोने का प्रयास करते हैं। पर मुझमें अधजले या पूर्ण शवों को बहाना, अस्थियों का बड़ी संख्या में डालना, मिट्टी तथा रासायनिक पदार्थों से निर्मित मूर्तियों का विसर्जन करना, कल-कारखानों तथा नगरों के गंदे जल और वर्ज्य पदार्थों को मिलना, विशेष अवसरों पर मेरे किनारे बड़े-बड़े मेले व जन समावेश का आयोजन करना, बड़ी संख्या में लोगों के मल-मूत्र अवसाद मुझमें डाल देना आदि जैसी क्रिया-कलापों ने मुझे अन्य नदियों की अपेक्षा दोगुनी गति से प्रदूषित कर दिया है। अब तो मैं विश्व की पांचवी सबसे प्रदूषित नदियों में शामिल हो गई हूँ। कभी मेरे जल से लोग आचमन किया करते थे, देवों का अभिषेक किया करते थे, मेरे जल के बिना कोई भी धार्मिक अनुष्ठान सफल नहीं हो पता था, पर आज मेरे प्रदूषित जल को पशु-पक्षी व जीव-जन्तु तक पीना नहीं चाहते हैं।
मैं तो समझ ही नहीं पा रही हूँ कि सनातनी भारतवासी जो समस्त चराचरों को, यहाँ तक कि पत्थरों को भी ईश्वरीय रूप में पूजते रहे हैं, सम्मान देते रहे हैं। मुझे भी ‘माता’ कहकर पुकारते और पूजते हैं, वे कैसे मेरे जल और मेरे आँचल को प्रदूषित कर रहे हैं? क्या यही उनकी मेरे प्रति आस्था और भक्ति है? पावन भूमि भारत की देव-संतानों से मुझे ऐसी उम्मीद कदापि न थी। इसी पावन भूमि के पुत्र श्रवण कुमार, राम, भरत, लक्ष्मण, देवव्रत आदि हुए थे, जिन्होंने अपने आदर्श से त्याग, सेवा, परोपकारिता और आज्ञाकारिता का इस जगत में अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत कर गए हैं। मैं तो तुम सभी में उन्हीं भारत-पुत्रों के आदर्श गुणों की अपेक्षा रखती हूँ। पर आज की भारत संतानों को अपनी माताओं के प्रति उपेक्षा भाव को देख कर मैं हतप्रभ हूँ। चाहे जन्मदात्री माता हो, चाहे गो-माता और चाहे मैं, गंगा माता ही क्यों न हो, सबके प्रति तुम्हारी उपेक्षा की ही भावना है। तुम सभी महा स्वार्थी बन गए हो। एक माता की सेवा और उसके बोझ को उठाने में आज तुम असमर्थ हो गए हो। फिर तुम अपने आप को सनातनी संतान कैसे कह सकते हो?
हे भारतवंशी! तुम सभी अपने अतीत को जानों और प्रकृति के सभी रूपों के प्रति आदर-सम्मान प्रदान करो। इन्हें पूर्णतः स्वच्छ रखो। ये तुम्हें कभी अस्वस्थ न रहने देंगे। इसी से तुम सभी का जीवन सफल होगा। इसी में तुम्हारा कल्याण निहित है। तभी तुम सनातनी पुत्र कहलाने का गौरव प्राप्त करोगे। ईश्वर तुम्हें सद्बुद्धि देवें। तुम सभी स्वस्थ रहो। तुम्हारी सर्वत्र जय हो।
(गंगा दशहरा विशेष)
श्रीराम पुकार शर्मा
ई-मेल सूत्र – rampukar17@gmail.com
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