साहित्यिक लघु पत्रिकाएं: आंधी-तूफान में बजती डुगडुगी

अगर आप साहित्यिक पत्रिका हंस के दरियागंज स्थित दफ्तर में राजेंद्र यादव के कमरे में जाएं, तो आपको उनकी कुर्सी खाली पड़ी नजर आएगी. उनके निधन को करीब डेढ़ साल हो चुका है. दफ्तर में कोई शक्चस अब भी उनकी कुर्सी पर नहीं बैठता. इसके ठीक ऊपर दीवार पर उनकी तस्वीर टंगी हुई है. लेकिन उनका पर्याय बन चुके हंस की निर्बाध यात्रा पर कोई विराम नहीं लगा है. इसी दफ्तर में पत्रिका के मई, 2015 के अंक के लिए एक शुभचिंतक का पत्र आया, “राजेंद्र जी के जाने के बाद मन ही मर गया था. सोचा, जैसे सारिका और धर्मयुग जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाएं बंद हो गईं, वैसे ही हंस भी बंद हो जाएगा. पर जब हंस के हालिया अंक पढ़े तो संतोष हुआ वह वैसे ही निकल रही है. राजेंद्र जी जो सैकड़ों नए लेखक बना गए थे, वे उसको कैसे मरने देंगे.”

जाहिरा तौर पर राजेंद्र यादव के देहांत के बाद उनकी बेटी रचना यादव ने पत्रिका का प्रबंधन संभाल लिया और संपादन का काम संजय सहाय देख रहे हैं. सहाय बताते हैं, “डर था कि राजेंद्र जी के बाद हंस के सामने अचानक आर्थिक संकट न आ जाए. लेकिन रचना सब कुछ पेशेवर तरीके से मैनेज कर रही हैं.” असल में हंस में राजेंद्र यादव जैसा तेज और प्रतिष्ठा अब भले ही नहीं नजर आ रही हो पर उसकी यात्रा बदस्तूर जारी है.

दूसरी ओर, हिंदी के साहित्यिक गलियारे में प्रतिष्ठित पत्रिका पहल के संपादक ज्ञानरंजन जून के 100वें अंक को उसकी प्रतिष्ठा के अनुरूप प्रभावी रूप दे चुके हैं. तो अगस्त, 2015 में नया ज्ञानोदय का 150वां अंक आने वाला है, जिसे खास बनाने में उसके संपादक लीलाधर मंडलोई जी-जान से जुटे हुए हैं.

अपने समय के साथ मुठभेड़
दरअसल, हंस में किसी भी रचनाकार का छपना बड़े ही फख्र की बात हुआ करती थी और यह आसान भी नहीं था. अब पत्रिका ने एक नया प्रयोग किया है. इसने घुसपैठिए शीर्षक से एक नया कॉलम शुरू किया है, जिसमें झुग्गी-झोंपडिय़ों में रहने वाले युवाओं की कहानियों को तरजीह दी जा रही है. इसमें एक रिक्शाचालक की कहानी को जगह मिली है. जाहिर है, हिंदी के साहित्यिक हलके में पहले ऐसा कोई सोच भी नहीं सकता था.

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