मनुस्मृति का दहन क्यों?

अशोक वर्मा, कोलकाता। हाल हीं के दिनों में मनुस्मृति को लेकर चर्चा का विषय बना हुआ है। नेता से लेकर एक विशेष वर्ग के लोग मनु स्मृति की प्रतियां भी जला कर अपना रोस प्रकट कर रहे हैं। जिसका मूल कारण लोगो के समझ में नहीं आ रही है। मेरा मानना है की जिस प्रकार मुस्लिमों को बहुसंख्यक हिंदुओं का भय दिखा कर इनका शोषण किया गया और भारत विघटन के कगार पर पहुंचा ठीक उसी प्रकार मनुवाद का भय दिखाकर दलितों का शोषण किया गया और ये शोषण इसलिए होता रहा की ये दलित विकास करनें के बाद भी अपने आप को दलित की श्रेणी में रखे रहे और मनुवाद का भय इनके वंशावली में गहरा जगह बना लिया।

अब पता करते है की ये मनु कौन थे और मनुस्मृति क्या है। तो मनु स्मृति का मूल है “जन्मना जायते शुद्र: कर्मणा द्विज उच्चयेत”अर्थात जन्म से सभी शुद्र होते है और कर्म से ही वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बनते हैं। वर्तमान में ऐसे ही 90 प्रतिशत लोग मिलेंगे जो कभी मनुस्मृति पढ़े ही नहीं केवल मनु-मनु का रट लगाकर उनके संबंध में अनर्गल बातें करते रहते हैं। ये वो है जिसे संस्कृत का व्याख्यान करना आता हीं नही और संस्कृत के श्लोक का अर्थ का अनर्थ बनाते है क्योंकि ये अपने निहित स्वार्थ के लिए मनुवाद का राग अलापते है। जिस जाति व्यवस्था के लिए मनुस्मृति को दोषी ठहराया जाता है उसमे जातिवाद का उल्लेख तक नहीं है।

अब सवाल रहा की क्या है मनुवाद जब हम बार बार मनुवाद शब्द सुनते है। धर्म चर्चा में जब कुछ लोग अपने आप को थका हारा समझते है तब वो मनुवाद जैसे विकृत किए शब्दों को ढाल बना कर समूह से भाग निकलते है और अपनें कमी को अपने पिछड़े समाज पर थोपते है। महर्षि मनु मानव संविधान के प्रथम प्रवक्ता और आदिशासक माने जाते है। मनु की संतान होने के कारण मनुष्य शब्द की उत्पत्ति हुई। श्रृष्टि के सभी प्राणियों में एक मात्र मनुष्य ही है जिसमें विचार शक्ति प्राप्त है। मनु ने मनुस्मृति में समाज संचालन की जो व्यवस्थाएं दी है उसे ही सकारात्मक अर्थों में मनुवाद कहा जाता है जो वेदों के अनुकूल है।

वेद की कानून व्यवस्था न्याय व्यवस्था का शास्त्र है इन्हीं वेदों के रचनात्मक कार्य को संग्रहित कर के मनुस्मृति का निर्माण किया गया।वैदिक दर्शन में संविधान या कानून का नाम ही धर्म शास्त्र है महर्षि मनु कहते है -धर्मों रक्षति रक्षितः। अर्थात जो धर्म की रक्षा करता है धर्म भी उसी की रक्षा करता है यदि वर्तमान संदर्भ में कहे तो जो कानून की रक्षा करता है कानून उसकी रक्षा करता है। कानून सबके लिए अनिवार्य और समान होता है जिन्हें वर्तमान के साथ जोड़कर देख सकते है। मनुष्य का धारक तत्व है मनुष्यता, मानवता जिसे मनुस्मृति ने सिखाया है। हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई ये धर्म नही मतवाद है, सम्प्रदाय है।

संस्कृत के धर्म शब्द का पर्यायवाची संसार की अन्य किसी भाषा में नही है किंतु धर्म का अपभ्रंश शब्द अंग्रेजों ने रिलीजन को ही मान लिया। मनु ने हमेशा कर्तव्य पालन पर सर्वाधिक बल दिया उसी कर्तव्य शास्त्र या फिर कहे तो मानव धर्म शास्त्र का नाम मनुस्मृति है। आज कल बहुत सारे अल्पज्ञानी जो समाज में मुखिया बने घूम रहे है या फिर मुखिया बनने का सपना तो देखते है, सामयिक कर्तव्य का पालन की बात नहीं करते यही कारण है की समाज में विसंगतियां देखने को मिल रही है ध्यान देने योग्य बातें है। मनुस्मृति के आधार पर ही आगे चलकर ज्ञानवल्क्य ने भी धर्म शास्त्र का निर्माण किया।

अंग्रेजी काल में भी मनुस्मृति को ही भारत की कानून व्यवस्था का आधार माना और संवैधानिक नियमों में इसका सहारा लिया। ये तमाम बातें कानून के विद्यार्थी भली भांति जानते है। मनुस्मृति के विकृत रूप को दलितों के सिपहसालार समाज में रखे जो न तो कभी इसे पढ़े न हीं समझे। इनका मानना है की मनु दलित विरोधी थे और ये ब्राह्मणवाद को बढ़ावा दिये। किंतु सच ये है की मनु किसी को दलित नही मानते थे। दलित संबंधी व्यवस्थाएं अंग्रजों और स्वार्थी तत्वों की देन है। दलित शब्द प्राचीन संस्कृति में है ही नही। चार वर्ण जाति न होकर मनुष्य की चार श्रेणियां है जो पूरी तरह योग्यता पर आधारित है।

प्रथम ब्राह्मण द्वितीय क्षत्रिय तृतीय वैश्य चतुर्थ शुद्र जो उस समय शासन प्रशासन के संचालन के लिए बना था। ठीक उसी प्रकार ब्राह्मणवाद मनु की देन नही है। इसके लिए कुछ निहित स्वार्थी तत्व ही जिम्मेवार है। प्राचीन काल में कुछ ऐसे लोग होंगे जो अपनें अयोग्य संतान को अपने जैसा महिमा मंडित करने के लिए अपने अधिकार का गलत इस्तेमाल किया होगा। वर्तमान संदर्भ में व्यापम घोटाला इसका सटीक उदाहरण है। क्योंकि लोगों ने भ्रष्ट्राचार के माध्यम से अपनें अयोग्य संतान को डाक्टर भी बना दिया जिसका भोग समाज को भोगना पड़ा या पड़ेगा। मनुस्मृति या भारतीय ग्रंथों को मौलिक रूप में और उसके सही भाव को समझ कर पढ़ना चाहिए विद्वानों को भी सही और मौलिक बातों को सामने लाना चाहिए तभी लोगों की धारणा बदलेगी।

दारा शिकोह उपनिषद पढ़ कर भारतीय ग्रंथों का भक्त बन गया। इतिहास में उसका नाम उदार बादशाह के रूप में दर्ज है। फ्रेंच विद्वान जैकपलीयट ने अपनी पुस्तक बाइबिल इन इंडिया में भारतीय ज्ञान विज्ञान की खुल कर प्रसंशा की है। उसने भी माना है की पुजारी बनने के लिए ब्राह्मण होना जरूरी नहीं, ब्राह्मण मतलब श्रेष्ठ व्यक्ति होता है। एक समय था जब शिक्षकों को विद्यालय में पंडितजी कहा जाता था चाहे वो किसी जाति से हों। आज भी सेना में धर्म गुरु पद की नियुक्ति में ब्राह्मण होना आवश्यक नही है बल्कि योग्य होना आवश्यक है। आज भी आर्य समाज गायत्री मिशन में हजारों विद्वान कर्मकांडी है जो जातिगत ब्राह्मण नही है।

मनु के अनुसार ब्राह्मण भी शुद्रता को अपने कर्मों से प्राप्त होता है और शुद्र भी ब्राह्मणत्व को प्राप्त होता है। इसी प्रकार क्षत्रिय परिवार का हर संतान क्षत्रिय नही है। अगर वो समरभूमि को प्राप्त नहीं है। आज भी सेना में रहने वाले तमाम लोग मनु के अनुसार क्षत्रिय है चाहें वो किसी जाति के हो। ऐसे में कोई जातिगत आधार पर तर्क करता है उन्हें आत्म चिंतन करना चाहिए तभी ये लेख सार्थक होगी देशहित में न की मनु की दोषी ठहराए।

मुझसे एक व्यक्ति ने कहा हम श्रेष्ठ कुल से है हमनें विनम्रता से उनसे पूछा आपका गोत्र क्या है? उसने कहा कश्यप, मैने उनसे कहा मैं भी कश्यप गोत्र से हूं और हमारे पड़ोस में एक धोबी है उनका गोत्र भी कश्यप है। अब आप बताओ की जब तीनों की उत्पत्ति कश्यप ऋषि से ही है तो आप श्रेष्ठ और सब नीच कैसे हुए उत्तर नहीं था। ज़हर को ज़हर से काटिए और अपने जाति के इतिहास को हर व्यक्ति को पढ़ना चाहिए, किसी के बहकावे में न आकर। जिस दिन हमारे समाज के लोग अपने आप को और अपने इतिहास को जान जाएंगे वो अपने आप को गौरवान्वित महसूस करेंगे और लोगों को कोसना बंद कर देंगे।

(स्पष्टीकरण : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी व व्यक्तिगत है। इस आलेख में दी गई सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई है।)

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