नई दिल्ली। राष्ट्र व मानवता सर्वोपरि के विचार से देश को चौरस करने के लिए दिन रात मेहनत करने वाले, फिर से विश्व गुरु बनेगा राष्ट्र का सपना देखने वाले कर्मठ योग्य, पढ़ा-लिखा, ईमानदार नागरिक अपने आदर्श और सोच के साथ “झाल बजाने” या “धूल फाँकने” को विवश आखिर क्यों है?
जनप्रतिनिधित्व बाजारू प्रदर्शन, पैसे और प्रसिद्धि के बोझ तले दबती जा रही है, वर्षों से जनता के बीच काम करने वाले, दुःख सुख में खड़े रहने वाले लोगों को दरकिनार करके ऐसे चेहरे को खड़ा कर दिया जा रहा है जो उस क्षेत्र में कभी गया भी ना हो।
आज लोकतंत्र का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है कि जहां राजनीति का मापदंड कभी आदर्श, विचार और जनसेवा हुआ करता था, वहीं आज स्वार्थ, सत्ता और संसाधन उसकी पहचान बन गई हैं।

लोकतंत्र वही हैं जहाँ गरीब का बेटा भी प्रधानमंत्री बनने का सपना देख सके, न कि केवल वही परिवार जिनके पास पहले से सत्ता और साधन हैं। अगर राजनीति को सेवा का माध्यम बनाना है, तो देश को परिवारतंत्र नहीं, विचारतंत्र की ओर लौटना ही होगा।
भारत को विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने पर भी आज इसकी आत्मा पर सवाल खड़े हो रहे हैं। चुनावी टिकट अब सेवा भावना या जनसंघर्ष के आधार पर नहीं, बल्कि अधिकांशत पैसे, पहचान और परिवारिक प्रभाव के आधार पर बांटे जा रहे हैं।
नेतृत्व की कुर्सियाँ अब कार्यकर्ताओं की निष्ठा से नहीं, वंश और धनबल से तय होती हैं। राजनीति में प्रवेश का सपना देखने वाला मध्यमवर्गीय या किसान परिवार का पढ़ा-लिखा युवा इस व्यवस्था में उपेक्षित है। देखें तो न पूंजी है, न पहुंच।
राजनीतिक दलों में वर्षों से समर्पण से काम करने वाले कार्यकर्ता भी तब निराश हो जाते हैं, जब टिकट किसी सेलिब्रिटी, कारोबारी या राजवंश के वारिस को दे दिया जाता है। यह प्रवृत्ति लोकतंत्र की जड़ें कमजोर कर रही है।
परिवारवाद भारतीय राजनीति की सबसे बड़ी विडंबना बन चुका है। इससे न केवल योग्य लोगों का हाशियाकरण होता है, बल्कि जनता का विश्वास भी घटता है। जब राजनीति का उद्देश्य समाजसेवा के बजाय सत्ता और लाभ बन जाए, तो विकास की बात केवल भाषणों तक सीमित रह जाती है।
समय आ गया है कि सभी दल टिकट वितरण में पारदर्शिता और योग्यता को प्राथमिकता दें। चुनाव खर्च की सीमा का कड़ाई से पालन हो और युवाओं को राजनीति में आने के लिए समान अवसर मिले।
आज भारतीय राजनीति और चुनावों की तस्वीर बेहद विचित्र और चिंताजनक है। जनप्रतिनिधित्व की पवित्रता पर अब पैसे, प्रचार और प्रसिद्धि का ऐसा जाल बुना जा चुका है कि सच्चे कर्मशील और विकासवादी लोग किनारे कर दिए गए हैं।
यह हमारे लोकतंत्र का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है कि जहां राजनीति का मापदंड कभी आदर्श, विचार और जनसेवा हुआ करता था, वहीं आज स्वार्थ, सत्ता और संसाधन उसकी पहचान बन गए हैं।
क्या हम राजनीति को “लोकसेवा” से “लोकप्रदर्शन” की ओर ढकेल चुके हैं?क्या हम ऐसे ही लोकतंत्र की कल्पना करते थे जहां योग्य लोग मंच के नीचे और विज्ञापन चेहरे मंच के ऊपर हों?
देश तभी सही मायने में प्रगति करेगा जब राजनीति में पैसे की जगह नीति और प्रसिद्धि की जगह प्रतिभा को सम्मान मिलेगा। लोकतंत्र तब ही सार्थक होगा जब प्रत्येक योग्य नागरिक को बिना आर्थिक बाधा के राजनीति में भागीदारी का अवसर मिलेगा।

दिल्ली विश्वविद्यालय
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