ब्राह्मण भोज कब से शुरू हुआ…?

वाराणसी। विष्णु पुराण में एक कथा मिलता है, एक समय सभी ऋषियों की एक पंचायत हुई जिसमें यह निर्णय करना था की यज्ञ का भाग तीनों देवों में से किसको दिया जाए। प्रथम परीक्षा लेने के लिए भृगु मुनि को चुना गया। भृगु मुनि ने भगवान शंकर को जाकर प्रणाम किया तो शंकर जी उन्हें गले मिलने के लिए खड़े हुए। मुनि ने मना कर दिया कि आप अघोरी हो मुर्दे की भस्म लगाते हो हम आपसे गले नहीं मिल सकते। भगवान शंकर क्रोधित हो गए फिर भृगू मुनि अपने पिता के यहां गए तो अपने पिता ब्रह्मा जी को प्रणाम नहीं किया ब्रह्मा जी भी कुपित हो गए। कितना उद्दंड बालक है पिता को प्रणाम नहीं करता।

भृगु मुनि बैकुंठ धाम गए तो भगवान विष्णु सो रहे थे तो सोते हुए विष्णु की छाती में लात जाकर मारी, भगवान विष्णु ने ब्राह्मण का चरण पकड़ा और कहा ब्राह्मण देव आपका चरण बड़ा कोमल है मेरी छाती बड़ी कठोर है आपको कहीं लगी तो नहीं प्रभु। मुनि ने तुरंत भगवान विष्णु के चरण छुए और क्षमा याचना करते हुए कहा प्रभु यह एक परीक्षा का भाग था। जिसमें हमें यह चुनना था कि किसी यज्ञ का प्रथम भाग किसे दिया जाए, तो सर्वसम्मति से आपको चुना जाता है। तब भगवान विष्णु ने कहा कि जितना मैं यज्ञ तपस्या से प्रसन्न नहीं होता उतना मैं ब्राह्मण को भोजन कराए जाने से होता हूं।

भृगु जी ने पूछा महाराज ब्राह्मण के भोजन करने से आप तृप्त कैसे होते हैं, तो विष्णु भगवान ने कहा ब्राह्मण को जो आप दान देते हैं या जो भोजन कराते हैं एक तो वह सात्विक प्रवृत्ति के होते हैं। वेद अध्ययन, वेद पठन करने वाले होते हैं। ब्राह्मण ही मुझे ब्रह्मा और महेश तीनों का ज्ञान समाज को कराते हैं। हर अंग का कोई ना कोई देवता है जैसे आंखों के देवता सूरज, कान के देवता बसु, त्वचा के देवता वायु देव, मन के देवता इंद्र, वैसे ही आत्मा के रूप में मैं ही वास करता हूं।

ब्राह्मण भोजन करके तृप्ति की अनुभूति करें तो वह तृप्ति ब्राह्मण के साथ मुझे और उन देवताओं को भी प्रत्यक्ष भोग लगाने के समान है जो आहुति हम यज्ञ कुंड में देते हैं स्वाहा कहकर, ठीक उसी प्रकार की आहुति ब्राह्मण के मुख में लगती है इसलिए यह परंपरा ऋषियों ने प्रारंभ की कि कोई भी धार्मिक कार्य हो तो ब्राह्मण को भोजन कराया जाए जिससे प्रत्यक्ष लाभ मिले।

कहते हैं ना, आत्मा सो परमात्मा। हमारे पूजा पाठ हवन इत्यादि का फल तभी हमें मिलता है जब परमात्मा प्रसन्न होता है। आस्तिक मन से किया हुआ पुण्य, दान अवश्य फलता है और सात्विक व्रती वाले को ही दान पुण्य भोजन कराना चाहिए। हर पूजा-पाठ के उपरांत दक्षिणा और भोज अवश्य कराना चाहिए यह आपकी यथाशक्ति पर निर्भर है। अगर ब्राह्मण सात्विक वृत्ति का है आप जो भी उसे दोगे जो भी खिलाओगे उसी से प्रसन्न हो जाएगा। चाणक्य का एक श्लोक याद आता है।

विप्राणा्म भोजनौ तुष्यंति मयूरं घन गर्जिते।
साधवा पर संपत्तौ खल: पर विपत्ति सू।।

आप चाहे गरीबों को भोजन कराएं चाहे गौ माता को भोजन कराएं या ब्राह्मण को भोजन कराएं, मतलब आत्मा की तृप्ति से है। सामने वाले की आत्मा तृप्त तो परमात्मा प्रसन्न है। आशा करता हूं आप लोगों को मेरी बात समझ में आई होगी। जिसको नहीं आनी है तो नहीं आनी है। तर्क वितर्क करने के कोई लाभ नहीं आप विष्णु पुराण पढ़िए।

ज्योतिर्विद रत्न वास्तु दैवज्ञ
पंडित मनोज कृष्ण शास्त्री
मो. 99938 74848

पंडित मनोज कृष्ण शास्त्री

ताज़ा समाचार और रोचक जानकारियों के लिए आप हमारे कोलकाता हिन्दी न्यूज चैनल पेज को सब्स्क्राइब कर सकते हैं। एक्स (ट्विटर) पर @hindi_kolkata नाम से सर्च करफॉलो करें

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

eighteen − 7 =