बंगाल में हिंदूओं की त्रासदी : क्या राष्ट्रपति शासन ही है अंतिम विकल्प?

अशोक वर्मा हमदर्द, कोलकाता। पश्चिम बंगाल जिसे कभी सांस्कृतिक चेतना और सामाजिक समरसता का प्रतीक माना जाता था, आज विभाजनकारी राजनीति और सांप्रदायिक असंतुलन का शिकार बनता जा रहा है।

राज्य के कुछ इलाकों में जिस प्रकार हिंदू परिवारों की स्थिति कमजोर हुई है, वह केवल एक सामाजिक चिंता का विषय नहीं बल्कि लोकतांत्रिक विफलता का जीता-जागता उदाहरण बन गया है।

पिछले कुछ वर्षों में, खासकर सीमावर्ती और ग्रामीण क्षेत्रों में हिंदू समुदाय धीरे-धीरे अल्पसंख्यक बनता गया। बांग्लादेश से अवैध घुसपैठ, प्रशासनिक ढिलाई और राजनीतिक लाभ के लिए तुष्टीकरण की नीति ने राज्य के सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर दिया है।

दुर्भाग्यवश, इस पूरी प्रक्रिया में सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस की भूमिका एक मूकदर्शक की रही है, जो सत्ता के लिए वोट बैंक की राजनीति से ऊपर उठकर राज्य के नागरिकों की सुरक्षा सुनिश्चित करने में विफल रही है। हिंदू अल्पसंख्यकों पर बढ़ते हमले अब बंगाल में आम हो गए है।

राज्य के जिन जिलों- जैसे मालदा, मुर्शिदाबाद, उत्तर 24 परगना, दक्षिण 24 परगना, बीरभूम में हिंदू समुदाय जनसंख्या के हिसाब से अल्पसंख्यक हो चुका है, वहां से लगातार हिंसा, जबरन धर्मांतरण, महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार और आर्थिक बहिष्कार जैसी घटनाओं की खबरें सामने आ रही हैं।

कई मामलों में तो खबरें यह भी कहती हैं कि महिलाओं की अस्मिता को कुचला गया और विरोध करने पर पुरुष सदस्यों की हत्या कर दी गई। इन पीड़ितों की न तो एफआईआर लिखी जाती है और न ही प्रशासन कोई ठोस कार्रवाई करता है।

राज्य की मौजूदा सरकार की निष्क्रियता इस बात से भी ज़ाहिर होती है कि न तो मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने ऐसे किसी घटना की सार्वजनिक रूप से निंदा की है, न ही किसी प्रभावी जांच समिति का गठन किया गया है।

भारत में जब भी किसी धार्मिक अल्पसंख्यक पर हमला होता है, तो तमाम राजनैतिक पार्टियां चाहे वह कांग्रेस हो, वाम दल हों या क्षेत्रीय दल उसका पुरजोर विरोध करती हैं। लेकिन बंगाल के हिंदू समाज की दुर्दशा पर ये सभी दल मौन क्यों हैं?

सिर्फ भारतीय जनता पार्टी ही एकमात्र ऐसा दल नजर आती है जो इस मुद्दे को लगातार उठा रही है, जबकि बाकी दलों की चुप्पी यह सिद्ध करती है कि उनके लिए इंसाफ से ज़्यादा महत्वपूर्ण उनका वोट बैंक है।

यह मौन एक प्रकार का अपराध में साझेदारी का संकेत देता है। बांग्लादेश में भी एक समय हिंदू समाज बहुत मजबूत हुआ करता था, लेकिन धीरे-धीरे वहाँ के राजनीतिक, प्रशासनिक और सामाजिक ढांचे ने उन्हें अल्पसंख्यक बनाकर हाशिए पर धकेल दिया। आज वहां हिंदू समुदाय के लोग पलायन कर रहे हैं, अपनी संपत्ति छोड़ कर।

बंगाल में जिस तरह की घटनाएं घट रही हैं, वे एक भयावह संकेत हैं कि यदि समय रहते कार्रवाई नहीं हुई, तो बंगाल भी बांग्लादेश के मार्ग पर अग्रसर हो सकता है।

देश के संविधान में यह प्रावधान है कि जब किसी राज्य में संवैधानिक तंत्र पूरी तरह से ध्वस्त हो जाए, तो केंद्र सरकार वहाँ राष्ट्रपति शासन लागू कर सकती है। यदि बंगाल के हालात पर नजर डालें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि न तो कानून का राज रह गया है, न ही आम नागरिकों को सुरक्षा का भरोसा।

पुलिस प्रशासन पर राजनीतिक दबाव इस कदर हावी है कि पीड़ित को ही आरोपी बना दिया जाता है और असली अपराधी खुलेआम घूमते हैं। इस परिस्थिति में केवल राष्ट्रपति शासन ही वह माध्यम है, जो राज्य की व्यवस्था को पटरी पर ला सकता है।

जब तक प्रशासनिक नियंत्रण सीधे केंद्र के हाथ में नहीं आएगा, तब तक ना पीड़ित को न्याय मिलेगा और ना ही अपराधियों को सजा। बंगाल की जनता को यह समझना होगा कि केवल विकास के खोखले वादों और कुछ योजनाओं में मिलने वाले अल्प लाभ से ज्यादा महत्वपूर्ण है उनकी सुरक्षा, उनकी अस्मिता और उनके बच्चों का भविष्य।

यदि एक राज्य में नागरिक अपने घरों में सुरक्षित नहीं हैं, महिलाएं सड़कों पर चलने से डरती हैं, और धार्मिक पहचान के कारण उन्हें अपमानित होना पड़ता है तो वहाँ की राजनीति को पूरी तरह बदलना ही पड़ेगा।

आज आवश्यकता है कि जनता “लोभ” और “डर” दोनों से ऊपर उठकर सत्ता परिवर्तन का संकल्प ले। यदि हम आज नहीं जागे, तो आने वाली पीढ़ियां हमें कभी माफ नहीं करेंगी। अल्पसंख्यक समाज को भी आत्ममंथन करनी होगी, क्योंकि इन्हें सबसे ज्यादा गुमराह कर के राजनैतिक पार्टियां अपना वोट बैंक तैयार करती है।

यह बात भी उतनी ही महत्वपूर्ण है कि मुस्लिम समुदाय के उन वर्गों को भी सामने आना चाहिए, जो शांति और सद्भाव में विश्वास रखते हैं। उन्हें भी यह समझना चाहिए कि समाज में जहर घोलने वाले कट्टरपंथी तत्व केवल हिंदू समाज के लिए नहीं, बल्कि पूरे देश के लिए खतरा हैं।

ऐसे लोगों को समर्थन देना या चुप रहना, एक प्रकार की मौन स्वीकृति है। यदि हम भारत को सुरक्षित, समावेशी और समृद्ध बनाना चाहते हैं, तो हर नागरिक को जाति-धर्म से ऊपर उठकर अन्याय के खिलाफ खड़ा होना होगा।

देश की मुख्यधारा मीडिया का एक वर्ग भी इस विषय में निष्क्रिय दिखाई देता है या तो उन्हें इस मुद्दे पर बोलने की अनुमति नहीं है या वे स्वयं भी तटस्थता खो चुके हैं। लेकिन अभी भी सोशल मीडिया और स्वतंत्र पत्रकारों के माध्यम से सच्चाई सामने आ रही है, जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।

साथ ही, देश की न्यायपालिका को भी इस स्थिति का संज्ञान लेना चाहिए और स्वत: संज्ञान (suo moto) लेते हुए राज्य सरकार से जवाबदेही मांगनी चाहिए।

पश्चिम बंगाल का आज जो सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य है, वह केवल एक राज्य विशेष का मामला नहीं, बल्कि राष्ट्रीय चिंता का विषय है। जब किसी राज्य में बहुसंख्यक समाज भी भयभीत होकर जीने लगे, तो यह संकेत है कि वहाँ लोकतंत्र खतरे में है।

राष्ट्रपति शासन लागू करना, राजनीतिक समीकरणों से ऊपर उठकर लिया गया निर्णय होना चाहिए। साथ ही जनता को भी चाहिए कि वह अपनी सुरक्षा, अस्मिता और सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा के लिए सही निर्णय ले और सत्ता परिवर्तन की ओर अग्रसर हो।

अब समय आ गया है कि हम एकजुट होकर यह संदेश दें कि भारत में किसी भी नागरिक के साथ धर्म, जाति या भाषा के आधार पर भेदभाव नहीं सहा जाएगा, चाहे वह बंगाल हो या देश का कोई भी कोना।

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