जीना इसी का नाम है (कहानी) :– श्रीराम पुकार शर्मा

अद्भुत जीवट पौधा है यह, जहाँ कोई पल भर भी टिकने के नाम से ही काँप उठता है, वहाँ यह ‘पगला’ कैसे स्वाभिमान पूर्वक खड़ा है। सिर्फ खड़ा ही नहीं, बल्कि बाल-स्वाभाविक मुस्कराहट के साथ कठोर भूमि, जलशून्यता और गर्म हवा के झोकों का यह निरंतर उपहास करता प्रतीत हो रहा है।

‘ऐसी विषम परिस्थिति में भी तू मुस्कुरा रहा है ! कहाँ से पाया वह अंदरूनी शक्ति ! जरूर इसके पीछे कोई गहरी बात है !’ – अब समझा, इसने अपने जीवन की आवश्यकताओं को सीमित कर लिया है। सत्य भी है, कोई अभाव में भी रमे रहते हैं, तो कोई स्वर्ण थाली में भी असंतुष्ट प्रतीत होते हैं। अभाव और समृद्धि के बीच जो सामंजस्य स्थापित कर लिया, वही परम सुखी और सर्वग्राह्य हो सकता है। फूलों की सुगन्ध केवल मात्र वायु अवागमन की दिशा को ही सुवासित करती है, पर व्यक्ति की अच्छइयाँ तो हर दिशा में ही फैलती हैं, जो उसे देवत्व के विशिष्ठ स्थान पर स्थापित कर देती हैं।

‘कहीं तुम कोई मस्तमौला, घर त्यागी, अवघड़ तो नहीं हो, जो श्मशान-से सूने एकांत में भी भवभूत लपेटे भूतनाथ-सा अपनी धूनी रमाये हो।‘ – सुख में तो सभी मुस्कुराते हैं, पर जीवन-रणक्षेत्र में वास्तविक विजयेता और जीवट तो वही होता है, जो विपत्तियों में भी जी भर कर अट्टहास करे, और दूसरों को भी हँसाने का पर्याय बन जाय। जैसे कि दुःख-सुख युक्त सांसारिकता से अनजान बना यह नाजुक पौधा ! क्या यह सचमुच नाजुक पौधा है ? कदापि नहीं !

किसी ने बताया है कि जीवन में एक दुरंत जीवन-शक्ति निहित रहती है, उसे जो पहचान लेता है, वह फिर विश्व विजयी बन जाता है। स्वामी विवेकनद जीवनगत उस दुरंत जीवन-शक्ति को पहचान गए थे । अन्यथा, अनगिनत पहलवान तो अक्सर अपनी छाती ही पिटते रह जाते हैं।

कहीं ऐसा तो नहीं, कि कोरोनाकाल जनित ‘लॉकडाउन’ के क्रम में ‘स्पेशल ट्रेन’ से भूखे-प्यासे अनजान भविष्य की खोज में कहीं जा रहे अनगिनत प्रवासी मजदूर परिवार का ही यह जन्मा एक अबोध नवजात शिशु सदृश इस अनजान रेलपथ पर गिर पड़ा हो, और लाचारी वश अपने जनक-जननी परिजन से यात्रा के दौरान इस राह में यहीं पर छूट गया हो। हो भी सकता है ! और पालनहार प्रकृति की पवित्र गोद में पल-पोष कर अब यह कुछ बोधवश उन्हीं का बेसब्री से इंतजार कर रहा है। वहीं पर, जहाँ पर यह उनसे छूट गया था। यह अपने उक्त स्थान से इंच भर भी न टला, अगर टल ही गया, तो फिर यह अपने परिजन से कैसे मिल पायेगा ? फिर स्थावर कैसे बन पायेगा ?

अगर यही बात है, तो तुम्हें किस नाम से पुकारूँ – ‘कोरोना-विजयी’ या तुम्हारे जनक-जननी की विवशता का पर्याय ‘भटकन कुमार’। छोड़ों ‘नाम’ से क्या होता है ? लखपतिया तो खेतों में गोबर चुनती नजर आती है, जबकि भिखारीमल किसी ऊँची गद्दी के मालिक। पर उसे तो पूर्णविश्वास है, कभी न कभी, उसके परिजन इसी राह पर उसे ढूंढते हुए अवश्य आएंगे। अतः वह अपने चरण और विचार से ‘अटल’ बना हुआ है। पैरों का उखड़ना ही उसे न जाने किस दिशा का अनंत राही बना देगा। अतः यह वहीं पर मजबूती से रम गया है और अपनी गिद्धदृष्टि से दूर-दूर तक निहार रहा है। पता नहीं, किस दिशा से वे आ जाएँ।

भूख-प्यास की चिंता भला उसे क्यों होने लगी ? उसे तो ‘भूमिजा सीता’ की भांति पूर्ण विश्वास है कि दुनिया की अनैतिकता से व्यथित हो जाने पर यही माता वसुंधरा उसे प्रश्रय प्रदान करेगी I वह अन्नपूर्णा देवी बन उसे कभी भूखा न रखेगी। आस्था और विश्वास की बड़ी महिमा है। तभी तो लाखों-करोड़ों का जीवन यापन हो रहा है। कहा भी गया है, – ‘जिसका कोई नहीं होता है, उसके भगवान होते हैं। ऐसे अनाथों के लिए स्वयं वसुंधरा जननी के दायित्वों का निर्वाहन करती है। मातृ-पितृहीन बालक ‘रामबोला’ को स्वयं जगदम्बा आकर भोजन करा जाती थी, कि नहीं ? फिर अब तो यह स्वयं भी अपने पाद-मूल से भोज्य-पदार्थ ग्रहण करने की क्षमता को अभिग्रहण (adopt) कर लिया है । इसी सिद्धांत पर तो सभी सजीव अपने प्राणों तक की रक्षा करते आये हैं।

शायद पास में ही कुछ नीचे की ओर जलश्रोत या जलयुक्त कोई कुंड या गढ्ढे भी हैं। थोड़ी से ही नीचे उतर कर पानी पीया जा सकता है। पर, यह कोई मौकापरस्त इन्सान थोड़े ही है, जो अक्सर अपने क्षणिक स्वार्थ पूर्ती हेतु अपने स्वाभिमान के साथ समझौता करता फिरे, किसी के समक्ष हाथ फैलाते रहे। पर यह अपना शीश कभी किसी के सामने नहीं झुकायेगा, कदापि नहीं। यह पूर्ण स्वाभिमानी है। अपने जीवन को साधने के लिए स्वयं उपक्रम करेगा और किया भी है, तभी तो आज यह विपरीत परिस्थिति महात्मा कबीर के समान शानदार स्वरूप में जी रहा है और परावलम्बियों का जम कर उपहास भी कर रहा है।

या, फिर ऐसा नहीं लगता है कि इस कठोर, वीरान और जनशून्य क्षेत्र में अपनी एकांत उपस्थिति दर्ज करवाते हुए अपनी हरीतिमा से, अपने सुवास से और अपने तैलाक्त स्वभाव से दूर तक अपने समान ही अन्य लघु प्राणों को आमंत्रित कर इसके वीरानेपन को सदा के लिए मिटा कर ही दम लेना चाहता है। इसी के पूर्वजों ने राजस्थान और गुजरात की करोड़ों हेक्टर बंजर भूमि को आज सदाबहार हरीतिमा के रूप में परिणत कर दिए हैं। फिर, यह क्यों नहीं कर सकता है ? जरुर ही करेगा। इसमें भी वह अदम्य साहस और शक्ति निहित है। यह साहस और शक्ति भी अजीब चीज होती हैं, जिसे ये प्राप्त हो गए, फिर तो वह महाबली बन कर पर्वत को उठा लेवे, राम बन कर सागर पर राह बना देवे।

‘कौन है ऐसा सहृदय, जो इससे प्रभावित न होगा ?‘ – सचमुच जीने की कला सीखना हो, तो इससे सीखो। जीना हो, तो जिंदगी में आश-अरमानों की रंगीन चादर बिछा दो, उस पर उम्मीद और विश्वास के कदम रखो, फिर सफलता तो शिशु बन चरणों पर आ-आ कर लोटने लगेंगी। ये आस और विश्वास ही जीवन को निरंतर गतिमान और क्रियाशील बनाये रखती हैं। ऐसे कालजयी के सम्मुख आने के लिए ‘काल’ को भी पलभर के लिए सोचने पर विवश हो जाना पड़ता है।

किसी ने कहा था कि सपने मत देखो। पर यह तो कहता है, – ‘खूब सपने देखो। जी भर कर सपने देखो। केवल देखो ही नहीं, बल्कि उन्हें हकीकत का रंगीन जामा भी पहनाओ।‘

ऐसे ही सपने देखने और उन्हें हकीकत में बदलने वाले विश्व के लिए नवीन इतिहास गढ़ गए हैं। फिर आज उन्ही के पीछे-पीछे पंक्ति-सी लग जाती है। क्यों ‘कलाम साहब’ का स्मरण है, न।

जीवन की अजेयता का परम संदेश देने वाले, – ‘हे लघु पादप ! सचमुच तुम धन्य हो। तुम्हें कोई पराजित नहीं कर सकता है। तुम्हारा मनोबल हिमगिरि-सा उन्नत है। तुम जीवन पर विजयी घोषित हुए हो। विश्व धरातल पर विजयी ध्वज फहराने में पूर्ण सफल हुए हो। तुम्हारा जीवन धन्य है।’

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *