अशोक वर्मा “हमदर्द” की मार्मिक सामाजिक कहानी “शादी एक सौदा” की तीसरी और अंतिम किश्त

जिसमें सीमा अब एक अफसर नहीं, समाज परिवर्तन की प्रतीक बन जाती है- और अंत में एक ऐसा कदम उठाती है जो भारत के इतिहास में एक मिसाल बन जाता है। पढ़िए कहानी “शादी एक सौदा” की तीसरी और अंतिम किश्त

अशोक वर्मा “हमदर्द”, कोलकाता। “अब कोई रामस्वरूप अपमानित नहीं होगा…” IAS से जननेता तक का सफर बहुत ही कामयाब रहा और सीमा की नीतियाँ सफल हो रही थी। जिले में दहेज के कारण आत्महत्याओं के मामले लगभग शून्य हो गए थे। स्कूल-कॉलेजों में जागरूकता आई, पंचायतों ने नो डाउरी संकल्प पारित किए।
लेकिन सीमा जानती थी- “सिर्फ एक जिले से बदलाव नहीं आएगा, जब तक पूरे प्रदेश की नीति नहीं बदली जाती।”
“और नीति वहीं बनती है- जहां सत्ता बैठी हो।”

इसी सोच के साथ, सीमा ने शासकीय सेवा से इस्तीफा दिया और राजनीति में कदम रखा।
राजनीति में प्रवेश – बेटी की पार्टी
चुनाव आया, सारे बड़े दलों ने टिकट देने का वादा किया, पर शर्त रखी –
“हमें समर्थन दीजिए, दहेज मुद्दा उठाइए, लेकिन पार्टी लाइन पार मत कीजिए…”

सीमा ने मुस्कराकर कहा है- “मैं किसी लाइन की गुलाम नहीं, मैं बेटी की आवाज हूँ।”
सीमा ने अपनी पार्टी बनाई –
“बेटी समानता पार्टी (BSP)” – और नारा दिया – “ना दहेज, ना दिखावा
बेटी का हक, अब खुद बनाएगा कानून।”

लोग हँसे, मीडिया ने मजाक उड़ाया, लेकिन कुछ ही हफ्तों में रामस्वरूप मास्टर की बेटी एक आंदोलन बन गई।
चुनाव की रात – एक इतिहास रच गया
चुनाव परिणाम की सुबह जब टीवी चैनलों पर गिनती शुरू हुई, तो बिहार के पटना, गया, बक्सर, सीतामढ़ी और पूर्णिया जिलों तक से खबर आने लगी – “सीमा जी 5 लाख वोटों से आगे हैं…” “BSP ने 36 सीटें जीत ली हैं…”
आख़िरकार सीमा विधायक ही नहीं, राज्य की महिला एवं बाल कल्याण मंत्री बन गईं। अब उनके हाथ में थी नीति बदलने की शक्ति।

सीमा विधेयक – ‘अभय विवाह अधिनियम’ : सीमा ने विधानसभा में एक ऐतिहासिक बिल पेश किया –
“अभय विवाह अधिनियम, 2019”
(अपने दिवंगत पति अभय चौहान के नाम पर, जिनकी कोरोना के समय मृत्यु हो गई थी)

अगर शादी में दहेज दिया या लिया गया, तो दोनों पक्षों पर जुर्माना और सज़ा।
दहेज के खिलाफ शिकायत करने पर लड़की को तत्काल सुरक्षा और केस की 30 दिन में सुनवाई।
बिना दहेज शादी करने वाले जोड़े को सरकार की ओर से 1 लाख रुपये का पुरस्कार और ‘सम्मान प्रमाणपत्र’।
हर जिले में ‘बेटी सहायता केंद्र’ की स्थापना।

विपक्ष ने कहा – “ये तो परंपरा है, इसे कानून से नहीं रोका जा सकता…”
सीमा ने जवाब दिया – “सती प्रथा भी परंपरा थी। लेकिन जब बेटी जलाई जाती है, तो परंपरा नहीं, अपराध बन जाती है।”
बिल पास हुआ। पूरे देश में खबर छा गई – “एक बेटी ने पिता के अपमान से जन्मा कानून बना दिया…”
अब सीमा के पिता रामस्वरूप जी बूढ़े हो चुके थे। उन्हें गर्व था कि उनकी बेटी ने जो सहा, उसे समाज में दोहराने नहीं दिया।
एक रात, सीमा उन्हें अस्पताल में देखने पहुँची। रामस्वरूप जी ने हाथ थामकर कहा –
“बिटिया, जब तू पैदा हुई थी, तो मैंने एक बेटी पाई थी।
आज मैं जा रहा हूँ, लेकिन भारत माँ को एक क्रांति की नेता दे रहा हूँ…”
वो अंतिम शब्द कहकर मुस्कराए और हमेशा के लिए आँखें मूँद लीं।

सीमा ने उनका अंतिम संस्कार पूरे सरकारी सम्मान से कराया। और चिता के सामने बैठकर कसम खाई – “अब इस देश में कोई बेटी सौदा नहीं बनेगी। कोई बाप सिर झुकाकर बेटी की विदाई नहीं करेगा और कोई गीता, जान देकर इज्जत नहीं बचाएगी।”

कुछ वर्षों बाद, भारत सरकार ने सीमा को “भारत रत्न” से सम्मानित किया। मंच पर जब प्रधानमंत्री ने सम्मान सौंपा, तो उन्होंने कहा – “देश को अफसर तो हज़ार मिले, लेकिन सीमा जैसी बेटी, शायद एक युग में एक बार जन्म लेती है…”

अंतिम पंक्तियाँ – लेखक की ओर से शादी कभी सौदा नहीं थी… हमने बना दिया। बेटी कभी बोझ नहीं थी… हमने बना दिया।
लेकिन जब एक बेटी ने सब कुछ सहकर, अपने आँसुओं को क्रांति में बदल दिया…
तब ये देश भी झुककर कहने लगा –
“शादी अब सौदा नहीं, सम्मान है… और बेटी हमारा अभिमान है।”
आप सबसे निवेदन है कि झूठे अहंकार का त्याग करें और दहेज का बहिष्कार करें।

अशोक वर्मा “हमदर्द”, लेखक

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