श्यामा प्रसाद मुखर्जी पर एक नजर डालते हुए – युवा नेतृत्व की दृष्टि से पश्चिम बंगाल भाजपा युवा मोर्चा के प्रवक्ता हरि मिश्रा का दृष्टिकोण

कोलकाता : भारत के स्वतंत्रता संग्राम और उसके उपरांत राष्ट्रनिर्माण की प्रक्रिया में कई ऐसे व्यक्तित्व हुए जिन्होंने न केवल अपने चिंतन और कर्म से देश को दिशा दी, बल्कि एक वैचारिक आंदोलन का बीजारोपण किया, जो दशकों बाद भी प्रासंगिक बना हुआ है। डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ऐसे ही एक युगद्रष्टा राष्ट्रनायक थे जिनका योगदान भारतीय राजनीति, शिक्षा, संस्कृति और राष्ट्रवाद की चेतना को जाग्रत करने में अविस्मरणीय है।

भाजपा युवा मोर्चा के पश्चिम बंगाल प्रवक्ता हरि मिश्रा का कहना है कि “आज जब हम युवा भारत की बात करते हैं, तब हमें डॉ. मुखर्जी के विचारों में ही वह ऊर्जा, स्पष्टता और राष्ट्र सर्वोपरि की भावना दिखती है जो युवा पीढ़ी के लिए मार्गदर्शक बन सकती है।” उनका मानना है कि श्यामा प्रसाद मुखर्जी को केवल इतिहास की पुस्तकों में सीमित करना एक अन्याय होगा; वे आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने स्वतंत्रता के तुरंत बाद थे।

एक बालक से राष्ट्रनायक बनने की यात्रा पर नजर डाला जाए तो
डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का जन्म 6 जुलाई 1901 को कोलकाता के एक शिक्षित और प्रतिष्ठित परिवार में हुआ। उनके पिता सर आशुतोष मुखर्जी भारत के ख्यात शिक्षाविद् और कलकत्ता विश्वविद्यालय के उपकुलपति थे। एक संस्कारित, अनुशासित और राष्ट्रभक्त परिवार में पले-बढ़े श्यामा प्रसाद ने कम उम्र में ही विद्वता का परिचय देना प्रारंभ कर दिया था।

महज 23 वर्ष की आयु में वे कलकत्ता विश्वविद्यालय के सबसे युवा सीनेट सदस्य बने। और 33 की उम्र में वह उसी विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर बन गए जहाँ उनके पिता भी रहे थे। उनका जीवन शिक्षा के क्षेत्र में एक आदर्श रहा, परंतु उनका व्यक्तित्व मात्र शिक्षाविद् तक सीमित नहीं था।

डॉ. मुखर्जी ने राजनीति में प्रवेश भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्य के रूप में नहीं, बल्कि हिंदू महासभा से जुड़कर किया। वे धार्मिक विभाजन के आधार पर राजनीति के विरुद्ध थे, किंतु यह भी मानते थे कि हिंदू समाज की आत्मरक्षा के लिए संगठित होना आवश्यक है।
वर्ष 1946 में जब बंगाल में मुस्लिम लीग की सरकार थी, तब वहाँ के हिंदुओं पर भीषण अत्याचार हुए – “डायरेक्ट एक्शन डे” की विभीषिका को देश आज भी नहीं भूला है। उस समय श्यामा प्रसाद ने निर्णायक हस्तक्षेप किया और हिन्दू समाज को सांप्रदायिक हिंसा से बचाने के लिए कटिबद्ध हो गए।

भारत की स्वतंत्रता के पश्चात डॉ. मुखर्जी भारत के पहले केंद्रीय मंत्रिमंडल में उद्योग और आपूर्ति मंत्री बने। परंतु उनका वैचारिक विरोध पंडित नेहरू की नीतियों से था – विशेषकर कश्मीर को लेकर।
नेहरू की ‘धारा 370’ को लेकर रुख से वे अत्यंत असहमत थे। उनका मानना था कि “एक देश में दो विधान, दो प्रधान और दो निशान नहीं हो सकते।” यही विरोध इस बात का कारण बना कि उन्होंने मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया। यह त्याग किसी पद के मोह का नहीं, बल्कि राष्ट्र के हित में लिया गया एक साहसी कदम था।

भारतीय जनसंघ की स्थापना और विचारों से सत्ता तक कि बात करें तो
नेहरू की विचारधारा से मतभेद के बाद डॉ. मुखर्जी ने 21 अक्टूबर 1951 को भारतीय जनसंघ की स्थापना की। यह वह क्षण था जब राष्ट्रवाद की वैकल्पिक राजनीतिक धारा ने जन्म लिया – एक ऐसी धारा जिसमें भारत की सांस्कृतिक चेतना, अखंडता और सनातन विचार मूल में थे।

भारतीय जनसंघ ही बाद में भारतीय जनता पार्टी के रूप में विकसित हुआ। भाजपा आज जिस वैचारिक पृष्ठभूमि पर खड़ी है, वह मूल रूप से श्यामा प्रसाद मुखर्जी की ही विरासत है। भाजपा युवा मोर्चा के नेता हरि मिश्रा इस बात को बड़े स्पष्ट शब्दों में कहते हैं –
“डॉ. मुखर्जी ने जब जनसंघ की नींव रखी थी, तब उन्होंने ये नहीं देखा कि कितनी सीटें आएंगी, उन्होंने ये देखा कि राष्ट्रवादी विचारों की आवाज हर गांव, हर युवा तक पहुंचे। आज भाजपा का शक्तिशाली संगठन उसी बोए हुए बीज का वटवृक्ष बन चुका है।”

कश्मीर यात्रा और बलिदान हमेशा एक प्रश्न छोड़ता है।वर्ष 1953 में श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कश्मीर में प्रवेश के लिए परमिट प्रणाली का विरोध करते हुए सत्याग्रह का आह्वान किया। वे बिना परमिट जम्मू-कश्मीर गए और वहीं उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया। जेल में रहस्यमयी परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गई।

यह घटना आज भी अनेक प्रश्न छोड़ती है। हरि मिश्रा इस पर भावुक होते हुए कहते हैं –
“एक व्यक्ति जो केवल यह कह रहा था कि भारत एक है, उसके लिए सीमाएं और परमिट नहीं होने चाहिएं – उसे जेल में मरने दिया गया। क्या यह लोकतंत्र है? क्या यह विचारों की हत्या नहीं थी?”

श्यामा प्रसाद मुखर्जी का यह बलिदान इस बात का प्रतीक बन गया कि राष्ट्र की एकता, संप्रभुता और अखंडता के लिए कोई भी कीमत छोटी नहीं होती। वर्तमान संदर्भ में श्यामा प्रसाद मुखर्जी की प्रासंगिकता पर नजर डालें तो भाजपा युवा मोर्चा के प्रवक्ता हरि मिश्रा का मानना है कि भारत का युवा जिस दिशा में आज अग्रसर है – उसमें यदि कोई वैचारिक दीपक है, तो वह डॉ. मुखर्जी के विचार हैं। वे कहते हैं –
“आज जब भारत अपने इतिहास को पुनः लिख रहा है, जब 370 को समाप्त किया जा चुका है, जब कश्मीर में तिरंगा शान से लहरा रहा है – तब यह बताना ज़रूरी है कि इसकी नींव किसने रखी थी। वह कोई और नहीं, डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी थे।”

हरि मिश्रा आगे यह भी जोड़ते हैं कि युवाओं को केवल चुनावी राजनीति नहीं, बल्कि वैचारिक राजनीति की समझ होनी चाहिए। “राजनीति सेवा का माध्यम है, सत्ता नहीं। डॉ. मुखर्जी सत्ता से अलग होकर भी विचारों की ताकत से आज भी जिंदा हैं। यही सच्चा नेतृत्व है।”

पश्चिम बंगाल, जहां उनका जन्म हुआ और संघर्ष भी, आज उनकी विचारधारा को पुनः जीवित करने का संघर्ष कर रहा है। भाजपा युवा मोर्चा के प्रवक्ता हरि मिश्रा इस बात को बार-बार दोहराते हैं कि “बंगाल ने एक समय भारत को राष्ट्रवाद दिया था, आज वही बंगाल तुष्टिकरण, हिंसा और विघटन की राजनीति का अड्डा बनता जा रहा है। डॉ. मुखर्जी की धरती को पुनः राष्ट्रवादी चेतना की धरती बनाना ही हमारा उद्देश्य है।”

अगर श्री मुखर्जी की बात करें तो वो एक ऐसे दीपक का रूप है जो कभी बुझा नहीं और सदैव जलता रहेगा और उसके रौशनी पुंज से भारत आलोकित होता रहेगा क्योंकि डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का जीवन एक ऐसी ज्योति की तरह है जो आज भी भारतीय राजनीति के पथिकों को दिशा दिखा रही है। उन्होंने दिखाया कि विचार की शक्ति सत्ता से बड़ी होती है, और सिद्धांतों की कीमत कभी भी चुकाई जा सकती है।

हरि मिश्रा जैसे युवा नेताओं में यदि यह चेतना बनी रही, तो भारत केवल एक सशक्त राष्ट्र ही नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और वैचारिक रूप से जाग्रत राष्ट्र भी बनेगा – ऐसा राष्ट्र जिसकी आत्मा ‘भारत माता की जय’ और मूल ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ में रची-बसी होगी।

हरि मिश्रा, प्रवक्ता,
भाजपा युवा मोर्चा पश्चिम बंगाल

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