श्रीराम पुकार शर्मा की कहानी : सेवानिवृति

सेवानिवृति

श्रीराम पुकार शर्मा

श्री पशुपतिनाथ जी गत कल ही अपनी सरकारी सेवा से निवृत हुए हैं। सेवानिवृति समारोह में उनके विभाग के ‘सुपरिटेंडेंट’ सहित लगभग उनके सभी मित्रगण उपस्थित थेI डिपार्टमेंट की ओर से एक चाय पार्टी का भी आयोजन किया गया था। सभी साथ में ही चाय पिए, तत्पश्चात सभी उनके स्वस्थमय भविष्य की कामना करते हुए एक-एक कर प्रस्थान कर गए। सुपरिटेंडेंट साहब स्वयं भी उनसे हाथ मिलाये और उनके मंगलमय भविष्य की कामना करते हुए प्रस्थान कियेI पशुपतिनाथ जी का पुत्र शिवनंदन भी वहाँ पहुँचा हुआ था, पर वह उस समारोह से दूरी बनाये हुए अपनी ‘मारुती डी-जायर’ गाड़ी के पास ही खड़े, अपने पिता का इन्ताजार कर रहा था।

पशुपतिनाथ जी कुछ समय के उपरांत उस सभाकक्ष से बाहर निकलेI उनकी आँखें भावुकतावश लालिमायुक्त थी। वे बाहर निकले तो शिवनंदन आगे बढ़कर उनके सारे उपहारों को अपने हाथों में स्वयं थाम लिया और उन्हें वह गाड़ी की पिछली सिट पर रख दिया। उपहार थे ही क्या? एक छोटा-सा ‘अरिस्टोक्रेट ब्रीफ़केस’, एक कश्मीरी चादर, लकड़ी का ‘हैंडल’ वाला एक छाता, मिठाई का एक पैकेट और फूलों का एक गुच्छाI फिर कुछ आवश्यक कागजात थे, उसे भी उन्होंने उसी को थमा दिया था।

गाड़ी में बैठने के पूर्व वे एक बार पीछे मुड़कर अपने उस डिपार्टमेंट को प्रेम भरी नजर से देखा, जिसमें वे अपनी तरुणाई में प्रवेश किये थे और आज अपनी आँखों पर मोटे शीशे के चश्में और सफ़ेद बालों के साथ 36 वर्षों की अपनी लम्बी सेवा प्रदान कर उससे विलग हो रहे थेI आज तक इसे वे अपना डिपार्टमेंट कहने का गर्व किया अनुभव करते थे, जो अब सम्भव न होगा।

पिता के गाड़ी में बैठते ही शिवनंदन ने गाड़ी को स्टार्ट कर आगे बढ़ाया। पर पशुपतिनाथ जी की नजरें अभी भी अपने पूर्व डिपार्टमेंट की ओर ही थीI जैसे-जैसे गाड़ी आगे बढ़ती गई, वैसे-वैसे उनकी बेचैन आँखें उनकी गर्दन सहित बायीं ओर मुड़ती ही जा रही थीI नम आँखें तब तक उस डिपार्टमेंट के साथ चिपकी रहीं, जब तक वह पूर्णतः ओझिल न हो गया थाI

इसी डिपार्टमेंट के सहारे ही उन्होने अपने बच्चों की परवरिश की, उन्हें उच्च शिक्षा प्रदान की और एक छोटा-सा मकान भी बनाये, उसे सपत्नी बखूबी से सजाया-संवारा भी। आज शिवनंदन एक बैंक में सेवारत है और उनकी बेटी सुकामना को भी योग्य वर सहित योग्य घर में विदा किये। कोई बात का अभाव न रहा हैI उनकी नम आँखों से कुछ बूंदें भी गिरीं, जो गाड़ी के बड़े दरवाजे पर से ढुलकते हुए हवा के झोंकों से पीछे की ओर उड़कर पहियों पर जा गिरकर उसी के साथ घूम रही थींI

इतने वर्षों का रिश्ता पल भर में कैसे टूट सकता है? शारीरिक सभी अवस्थाएँ वही तो हैं, पर आज तक जिसके लिए सक्षम रहे थे, आगामी कल से ही वे उसके लिए असक्षम हो जायेंगेI कुछ घंटों में ही इतना बड़ा परिवर्तन! हाँ! यही तो सार्वभौम सत्य हैI नौकरी इसी को कहते हैंI

शिवनंदन अपने कई पुराने सहकर्मियों को सेवानिवृत होते और उसके पश्चात् उन्हें अपने आप से टूटते अक्सर देख चुका थाI अतः अपने पिता के मन से सेवा निवृति की चिंताजनक भावना को दूर करने के उद्देश्य से ही और अपने घर के वातावरण को खुशनुमा बनाने के लिए उसने आज उनके 60 वाँ जन्मदिन को हर्षोल्लास से मनाने के लिए पर अपने घर में ही एक पारिवारिक ‘पार्टी’ भी रखा था, जिसमें उसके परिवार के लगभग सभी सदस्य शामिल हुए हुए थेI

घर पर पहुँचते ही उनके पारिवारिक सदस्यों ने उन्हें हँसी-ठहाकों से गुंजित वातावरण के मध्य में पूरी तरह से उलझा दिए थेI यह पारिवारिक छोटा-सा समारोह उन्हें अपने बारे में कुछ सोचने का मौका ही न दिया था। अगले दिन सुबह अपने स्वभावानुरूप पशुपतिनाथ जी स्नानादि कर कपड़े आदि को चढ़ाकर तैयार होकर बैठ गएI बहु नाश्ता-पानी ला कर उनके सामने रख दीI नाश्ता करते हुए वह बहु से बोले, – ‘बेटी! टिफ़िन भी तैयार कर देनाI’

‘टिफ़िन’? – बहु कुछ चकित होकर पूछीI
‘हाँ बेटी, टिफिन!’ – और बहुत ही शांत भाव से नाश्ते पर जुट गएI
जब तक पशुपतिनाथ जी नाश्ता खत्म किये, तब तक बहु कुछ सोचकर ही उनके टिफिन बॉक्स को पहले की भांति ही सजा कर टेबल पर
रख दी। नाश्ता कर वह अपने नियमित बैग में चश्मा, अखबार, तौली और टिफिन को रखेI ताक पर से कुछ पैसे उठाये और उसे गिनते हुए अपने जेब में रख दरवाजे से बाहर निकले, तो उन्हें पूर्व सहकर्मी कर्मकार जी अपने काम पर जाते दिखाई दिएI

‘कर्मकार जी! जरा ठहरिये, मैं साथ चलता हूँI’ – पशुपतिनाथ जी उन्हें रोकते हुए कहेI
‘पर पशुपतिनाथ जी! – कर्मकार जी आश्चर्य से कहेI
‘हाँ जी, जरा देर हो गईI’ – पास आकर वे बोले, – ‘चलिए चलते हैंI’ – फिर दोनों आगे बढ़ गएI लेकिन कर्मकार जी अभी भी विस्मय में ही थे। पर आगे कुछ न पूछेI बस साथ चलते रहेI

रास्ते में उनके और कई पूर्व सहकर्मी मिले, सभी कर्मकार जी की भांति ही चकित थेI पर पशुपतिनाथ जी के दिल को कोई दुखाना नहीं चाहते थे, इसलिए सभी मौन ही रहेंI लेकिन आज उन्हें अपने पूर्व मित्रों के व्यवहार और आँखों से व्यक्त प्रेम भाव में कुछ अंतर अवश्य ही दिखाई दियाI एक अनचाही अनावश्यक सहानुभूति के भावI इस अल्प बदलाव के भाव ने पशुपतिनाथ जी को अचानक ही सब कुछ बता दियाI उनके हृदय में कहीं बेदना के टिस उत्पन्न हुएI

अचानक उन्हें कुछ एहसास हुआ कि वे निद्रित स्वप्न से जाग गए होI आखिर यहाँ तक वे आये कैसे? शायद उनके पैर ही मन के विरूद्ध हो गए हैंI साथियों का उन्हें घुरना अब स्वाभाविक लगने लगाI उन्हें अपनी सोच पर कुछ संदेह उत्पन्न हुआ और उनके पैर कुछ भारी-भारी महसूस होने लगेI पर वे दोनों अपने नियमित और स्वाभाविक गति से उन्हें पास के ही चौरसिया जी के पान की दुकान पर ला खड़ा कर दिएI अन्तः की व्यग्रता पर बुद्धि ने अपना नियंत्रण पा लियाI अब वह पूर्णतः शांत हो गया था।

‘भैया जी! आपके लिए पान अभी लगाये देता हूँI’ – फिर उसका हाथ किसी मशीन की भांति चलने लगाI हरी पान-पत्ती पर कथा रगड़ाया, सुपाड़ी के कुछ टुकड़े सहित कुछ अन्य मसाले गिरें और बात ही बात में लपेट कर पान का बीड़ा उन्हें थमाया दियाI – ‘भैया जी! बाकी लोग तो कह रहे थे कि आज से आप यहाँ आयेंगे ही नहींI आप जो अपनी सेवा से निवृत हो गए हैंI पर मुझे पूरा विश्वास था, कि आप भैया जी, मेरे हाथ का बना पान चखने तो जरुर आयेंगे हीI’ – अपने चहरे पर हँसी-मुस्कराहट के भाव लाते हुए चौरसिया जी ने कहाI

उसका यही स्वभाव तो उसके व्यापार का एक प्रमुख हिस्सा रहा हैI इसी प्रेम रस से हर ग्राहक को जबरन अपना बनाये हुए है। पशुपतिनाथ जी भी उसकी हँसी-मुस्कराहट के उस प्रेम-बंधन से स्वयं को बचा न पाए थेI ‘चौरसिया जी! कुछ समय पहले तक तो वही लग रहा था, पर अब नहींI अब तो अपने घर के भोजन के बिना भले ही रह जाऊँ, पर आपके पान के बिना तो मुँह ही नीरस बना रहेगाI

लाइए, पहले पान को मुँह में तो डाल लेवें और मेरे इन सभी साथियों को भी पान खिलाइए, वरना ये लोग ताने मारेंगे कि मैं सेवा से निवृत हो गया हूँI’ – चौरसिया जी की ही भांति अपने चहरे पर मुस्कराहट को लाते हुए पशुपतिनाथ जी बोले – ‘पैसे मेरे नाम के उधारी-खाते में लिख लीजिएगाI पैसे मिल जायेंगेI यह न सोचियेगा कि पशुपतिनाथ सेवा निवृत हो गए है और वह पैसे न देंगेI हाँ … हाँ … हाँI’ – और गतकाल से ही खमोशी के बंधन को तोड़ते हुए ठहाका मार कर हँसे पड़े।

उनके मित्रगण भी हँस पड़ेI उन्हें आश्चर्य हो रहा था, कि यह हास्य-भाव अब तक कहाँ जा छुपा थाI कुछ घंटों का वह नैराश्य उन्हें युग के सामान बिता थाI अब इस हास्य-भाव को वह कहीं भागने न देंगेI

घर के लिए जहाँ से गली में मुड़ा करते थे। वहीं गली के कोने पर बैठने वाला दुर्बल भिखारी उनकी और बड़ी आश से देखाI पशुपतिनाथ जी से नियमित उसे कुछ न कुछ प्राप्त हो ही जाया करता थाI उसे देखते ही पशुपतिनाथ बोले, – ‘क्यों जी? अब तक खाली ही बैठे हो, कुछ न मिला?’

‘न बाबूजीI’
‘कोई बात नहींI यह लो टिफिन बॉक्स। आज से यह मेरे काम का नहीं हैI तुम्हारे लिए आज के लिए यह काफी होगा और सुनो, प्रतिदिन दुपहरिया में मेरे मकान पर आ जाया करना, तुम्हें बना बनाया भोजन मिल जाया करेगाI यह मत समझना कि मैं सेवा से निवृत हो गया हूँI चले आया करनाI’ – और उस स्टील के चमचमाते टिफिन बॉक्स को उस भिखारी के हवाले कर दिएI वह भिखारी उस चमचमाते टिफिन बॉक्स को खोला और उसमें रुचिकर भोज्य-पदार्थ को देख कर उन्हें मुस्कुराकर धन्यवाद ज्ञापन कियाI

फिर अपनी फटी चटाई पर टिफिन के कटोरों को फैला कर बड़े ही चाव से खाने लगाI इस समय उसके रोम-रोम से पशुपतिनाथ जी के लिए सदिच्छाएँ निकल रही थीं और पशुपतिनाथ जी संतुष्टि के एक वृहद भाव को अनुभव कर रहे थेI बड़ी प्रसन्नचित से घर की ओर बढ़ गएI

कुछ देर आराम करने के उपरांत वे फिर बाहर चले गएI आज उन्हें सब कुछ नया-नया लग रहा थाI पूरे वातावरण में ही उन्हें नयापन का एहसास हो रहा था, जिसे उन्होंने कभी पहले महसूस नहीं किया थाI फिर देर शाम को ही घर लौटेI मन बड़ा ही शांत और प्रसन्नचित थाI

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