श्रीराम पुकार शर्मा की कहानी : घर वापसी

श्रीराम पुकार शर्मा

“कुछ पैसे रखी हो, तो दो। दो-चार दिनों के लिए कुछ राशन-पानी का इंतजाम कर लेवें। सभी कह रहे हैं कि कल से देश भर में लॉकडाउन शुरू होने जा रहा है। शहर का पूरा बाज़ार बिलकुल बंद हो जायेगा, फिर कुछ भी न मिलेगा।” – बड़ी लाचारी से अपने चहरे पर चिंता-फ़िक्र के अवसाद लिये फागु मिस्त्री ने अपनी पत्नी इतवारिया से कहा।

“कुछ छुप-छुपा के पैसे रखा भी करती थी, सामली खातिर। वह सब कुछ तो तुम पिछले सप्ताह ही ले लिये। जिसकी तिजोरी भरते हो, उससे काहे नहीं माँग लेते हो?” – पत्नी इतवारिया कुछ नाराजगी में कही और उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना ही वह दो-तीन टूटे-फूटे ईंटों से बने चूल्हे के मुँह पर कुछ जलती और कुछ धुँआती लकड़ी को चूल्हे में जोर से घुसेड़ दी और फिर एक प्लास्टिक के पाइप के जरिये चूल्हे में जोर से फूँक मारी, जिससे चूल्हे के अतिरिक्त कोठरी में भी लाल रक्तिम रौशनी फ़ैल गयी। इतवरिया का श्यामल चेहरा भी लाल वर्ण में दमक उठा।

पहले तो चूल्हे से गम्भीर धुँए उत्पन्न हुए जो कोठरी में फ़ैल गए। साथ में कुछ राख भी उड़े, जो कुछ ऊपर तक उड़ें, फिर धीरे-धीरे आस-पास में ही बिखर कर गिर पड़े। तब जाकर कुछ मंद जलती हुई लकडियाँ लाल शोलों में बदल गईं। अचानक चूल्हे की आँच भी तेज हो गई और उस पर रखी काली कड़ाही में पड़े आलू सहित कुछ सब्जियों के पकने की विचित्र आवाज भी बढ़ गईI

फागु पिछले कोई चार साल से सूरत के पास ‘कनसाद’ में ईमारत बनाने वाले एक बड़े ठीकेदार के पास ही राजमिस्त्री का कार्य करते आया है। उसकी पत्नी इतवारिया भी उसी के साथ रेजा का कार्य करती है। वैसे तो वह मूल रूप से बिहार के औरंगाबाद जिले के किसी गाँव से सम्बद्ध है। रहने के लिए निर्माणधीन ईमारत के पास की ही खाली जमीन में पुरानी ईंटों तथा कुछ टूटी-फूटी टीनों से बने झोपड़ीनुमा इसकी अस्थायी कोठरी है।

ऐसी कोठरियाँ कोई एक या दो नहीं हैं, बल्कि कई हैं, जिनमें फागु मिस्त्री जैसे ही बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश से सम्बन्धित कोई दर्जनों मजदूर परिवार अपने बाल-बच्चों सहित रहते हैं। जब उस ईमारत का काम पूरा हो जायेगा, तो फिर ये सभी अगले निर्माणाधीन इमारत स्थल पर इसी तरह की अस्थायी झोपड़ियाँ बना लेंगे। इनमें जाति, धर्म तथा प्रांतगत संस्कृति सम्बन्धित कोई भेद-भाव नहीं है। सभी केवल कार्य संस्कृति से ताल्लुक रखते हैं।

इनके लिए हर स्थान केवल कर्म-स्थल मात्र है। फिर इनके द्वारा निर्मित ईमारतों में विशेष ‘सभ्य’ कहलाने वाले धनाढ्य परिवारों के पधारते ही इन सभी मजदूरों की अछूत, असभ्य और गंदी झोपड़ियों को उजाड़ दिया जाता है। कार्य के अनुकूल ही इनकी झोपड़ियाँ कहीं बसती हैं और फिर वहाँ से उजड़ जाती हैं।

उन अस्थायी झोपड़ियों में रहने वाले सभी मजदूरों की आर्थिक दशा लगभग एक जैसी है। सप्ताह के आखरी दिन उनके हाथ में पैसे प्राप्त होते हैं, जो बाढ़ के उतरते पानी की तरह चार-पाँच दिनों में ही सुख जाते हैं। फिर भी इन्हें कोई शिकवा-शिकायत नहीं हैं। भविष्य की डोर विधाता के हाथों में सौंप कर ये सभी सदैव वर्तमान में ही जीने की आदि हैं। भविष्य की चिंता तो धनाढ्य ही किया करते हैं।

चूल्हे से उत्पन्न धुँए लग जाने से अपनी आँखें मलती हुई इतवारिया कुछ भुनभुनाती हुई उठी और पुरानी लकड़ी के एक पट्टे को रस्सियों के सहारे टांग कर बनाये गए ताक पर से टीन के एक छोटे से डिब्बे को उठा लाई और उसे पुरानी ईंटों को बिछा कर बनाई गई फर्श (सतह) पर उल्ट दी, उसमें से सौ रूपये, पचास रूपये, दस रूपये के एक-एक नोटों के साथ तीन पाँच रूपये और दो-चार एक-दो रूपये के सिक्कें आस-पास गिर पड़े। अर्थात कुल एक सौ अस्सी रूपये के आस-पास ही थे, उससे अधिक न थे।

किसी पराजित की तरह अपने चहरे को झुकाए फागु बड़ी कातरता से उनमें से सौ तथा पचास रूपये के नोटों को उठाया और घर से चुपचाप बाहर निकल गया। यह कोई पहली बार नहीं, बल्कि उसके साथ अक्सर ऐसा ही होता आया हैI

“साहेब जी, सलाम! कब से फिर काम शुरू होगा, साहेब?” – अपने कम्पनी बाबू अर्थात कार्य सुपरवाइजर को निर्माणाधीन इमारत के आफिस रूम में लगभग एक सप्ताह के बाद आया देख कर फागु उससे आग्रहपूर्वक पूछाI
“अभी कुछ कहा नहीं जा सकता है I” – कम्पनी बाबू ने कहा और अपनी आँखों पर चश्मा को ठीक करते हुए आफिस के टेबल पर फैले निर्माणाधीन इमारत सम्बन्धित कुछ कागजात को देखने लगाI

“काम के बिना हमारा गुजर कैसे होगा, साहेब? न हो तो साहेब, अगर हमारे बाकी के पैसे मिल जाते, तो हम अपने गाँव चले जाते। फिर जब काम शुरू होता तो हम आ जातेI”
“गाँव कैसे चले जाओगे? सभी गाड़ियाँ अभी बंद हैं। अभी कहीं मत जाओ। आखिर यह कोरोना कितने दिन रहेगा ही? उम्मीद है कि जल्दी ही काम शुरू हो जाएगा I” – कम्पनी बाबू ने भरोसा देते हुए कहा। “ये लो कुछ पैसे राशन खर्च के लिए। कहीं जाने की जरुरत नहीं है I” – अपने टेबल के दराज से तक़रीबन पाँच सौ रूपये निकल कर देते हुए कहा।
“लेकिन साहब! पुराना हिसाब ही चुकता कर देते। पैसों की सख्त जरुरत है I” – फागु ने फिर नम्रतापूर्वक कहा।
“अभी इतने से काम चलाओ। बाकी लोगों को भी तो देखना है। अब जाओI” – कम्पनी बाबू ने कुछ दृढ़ता से कहा।

फागु बेचारा करता तो क्या करता? अपनी कोठरी में लौट आया। बैठकी के आज कई दिन हो गए। कम्पनी बाबु सप्ताह भर बाद आता और हर बार वही घिसी-पिटी बातें कहता, – “काम जल्दी ही शुरू होगा। कहीं जाना मतI”
अब तो देखते-देखते एक माह बीत गए। शुरू के कुछ दिन राशन के नाम पर कुछ चावल, दाल और आटा आदि पास की ही दूकान से मिल जाया करते थे, पर अब तो कोई दुकानदार भी उधारी पर कुछ न देना चाहता है। आखिर वह भी किस भरोसे उधार देगा? बाद में कम्पनी बाबू से लेकर कम्पनी के अन्य लोग भी अब कार्य-स्थल पर आना छोड़ दिए।

कुछ दिन कुछ सामाजिक संस्थाएँ भोजन सामाग्रियों से सहायता कीं, पर वे भी धीरे-धीरे मुँह मोड़ लिये। फागु के जैसे ही सभी मजदूर समझ गए कि उनके साथ धोखा हुआ है। अब यहाँ पर रुके रहना, भूखे मरने के बराबर है। अगर पहले ही इस स्थिति की गम्भीरता को वे समझ जाते, तो शायद वे अपना कोई दूसरा उपाय भी कर लेते, पर अब तो बहुत देर हो चुकी है।

वहीं का एक मजदूर बाउली महतो कहीं से खबर लाया कि सूरत से बिहार के मजदूरों की एक टोली कल सुबह ही अपने गाँव के लिए पैदल ही चल पड़ेगी। वे सभी सूरत से इंदौर, भोपाल, सागर, कटनी, मैहर, रीवा, मिर्जापुर, चंदौली, सासाराम, डेहरी होते हुए औरंगाबाद और फिर वहाँ से अपने-अपने गाँव जायेंगे। यह बात पूरी पक्की है।

“हजार मील पैदल चलना कोई खेल है क्या? वो भी बाल-बच्चों के साथ। सबके अकल पर पत्थर पड़ गया है। भयानक गर्मी, भूखे-प्यासे गरीब कैसे जायेगा? कोई भी जिन्दा न पहुँचेगाI” – इतवारी ने फागु का विरोध करते हुए बोली।
“पर यहाँ भी रह कर कोई जिन्दा कैसे बचेगा? अब तो कहीं से भी एक पैसा नहीं मिल रहा है। हम मजदूरों के भाग्य में अगर मरना ही लिखा है तो, हाथ पर हाथ धर कर क्यों मरें। कुछ कोशिश ही क्यों न करें। जिन्दा रहें, तो अपने गाँव-घर पर पहुँच ही जायेंगेI” – फागु ने तर्क देते हुए कहा। जिजीविषा में अद्भुत शक्ति होती है। फिर मरता क्या न करता?

और फिर वहाँ के सभी मजदूरों में विचार हुआ कि कम्पनी को कुछ न बताया जाय, बता देने से कम्पनी किसी को भी न जाने देगी। रात में ही निकल जाया जायेगा। जो बहुत जरुरी सामान हो, वही लिया जाय, बाकी यही छोड़ दिया जाय। कम सामान लेकर चलना कुछ आसान होगा और उसी रात में मजदूरों की टोली अपने-अपने सामान व परिजन के साथ निकल पड़े अपने अदृष्ट भविष्य की ओर। फागु भी अपने सिर पर एक बड़ी-सी गठरी, कंधें पर सामली और कमर में कुछ आवश्यक वर्तनों को लटकाए उस दल के साथ आ मिला।उसकी पत्नी इतवारिया की भी बहुत कुछ यही दशा थी।

इतवारिया का मन पहले तो विचलित अवश्य हुआ था, पर सड़क पर सैकड़ों मजदूर को अपने परिजन के साथ देख उसे भी यही उचित लगा। एक ही सामान्य परिस्थिति और उद्देश्य ने फागु सहित सभी मजदूरों को एक ही राह के मुसाफिर बना दिए। पर सूरत शहर से अभी पूरी तरह से निकल भी नहीं पाए थे कि पुलिस की गाड़ी आ धमकी और उन्हें आगे जाने से रोक दी। लेकिन मजदूर आगे बढ़ने की अपनी जिद पर अड़े रहें। कुछ मजदूरों पर पुलिसिया डंडे भी बरसें, पर लक्ष्य और आन के पक्के राही को भला कौन रोक पाया है?

पुलिस के उच्च पदाधिकारी भी वहाँ पहुँचें। उनमें आपसी कुछ बातें हुईं।उनके समक्ष समस्या उत्पन्न हुई कि इतने लोगों को किस थाने में ले जाया जाए, फिर इतने लोगों को खिलने-पिलाने की भी गम्भीर समस्या है। अतः पुलिस दल उनके राह से हट गई। दुर्भाग्य के मारे लोग आगे बढ़े।यान-वाहन से सूनी सडकों पर अब मजदूरों की ही टोली चल पड़ी।

प्रारम्भ के दो-तीन दिन तो अपने साथ रखे कुछ राशन और सामान ही काम आयें। फिर तो राह में विभिन्न सामाजिक संस्थाओं के कैम्पों के भरोसे ही रहें। कई बार स्थानीय पुलिस प्रशासनों से बचने के लिए सड़क को छोड़कर बीहड़ जंगलों से होकर गुजरे।बीहड़ अंचल की राहें बड़ी कठिन रहीं। इन अंचलों में चलना और खाना-पीना सब कुछ बहुत ही दुरूह थे। जंगली फल-फूल और कुछ पेड़ों के पत्ते आदि उनके आहार बनें। रात्रि के समय जंगली जीव-जन्तुओं का भी आतंक उन्हें झेलना और सहना पड़ा। लेकिन भूख आदमी को कितना मजबूर कर देता है? कई एक बार फाँके में भी दिन गुजारने पड़े, पर कोई रुका नहीं। रुक गया तो वह दल से बिछुड़ कर अकेला हो जायेगा या फिर अनजान राहों में भटक सकता हैI

दोपहर का समय हो चला। नीचे धरती तप्त तावा बनी, तो ऊपर से सूर्य का प्रचंड स्वरुप। अब तो हिम्मत नहीं हो पा रहा था, आगे कदम बढ़ाने के लिए। इतवारिया का हवाई चप्पल तो उसके पैरों में ही सट कर उसके पैरों के ही अभिन्न हिस्से बन गए थे। सामली भी भूख से व्यग्र होकर रोने लगी। उसकी पीड़ा देख कर फागु और इतवारिया दोनों का ही कलेजा फटा जा रहा था।कुछ भी तो उनके वश में नहीं था। करे तो क्या करे? अपने आप को बेच कर भी यदि इस समय कुछ मिल पाता, तो वे इसके लिए भी तैयार थे। पर वहाँ क्रेता ही कौन था? सब तो याचक ही थे। इतवरिया सामली को बहलाने-फुसलाने की भरसक कोशिश करती रही, परन्तु सब बेअसर ही रहा।

एक हमसफ़र वृद्ध मजदूर यात्री से न रहा गया। उसने अपनी पोटली खोल और उसमें पड़ी आखरी सुखी रोटी को निकाल भूख से व्याकुल बच्ची सामली के हाथ में पकड़ा दिया। सामली अपने एक हाथ से अपनी माँ इतवारिया का हाथ और दूसरे हाथ में उस रोटी को थाम साथ-साथ चलने लगी। अभी वह उस रोटी को अपने मुँह तक भी न ले जा पाई थी कि अचानक एक आवारा कुत्ता आया और उसके हाथ से उस रोटी को झपट कर भाग चला। अपनी भूखी बेटी के जीवन-नैया के इस ‘तिनके के सहारे’ को छीनता देख इतवारिया उसे पीछे दौड़ी। फागु ने उसे लक्ष्य कर एक पत्थर मारा, पत्थर सही निशाने पर जाकर लगा। रोटी कुत्ते के मुँह से गिर गया और वह ‘कांय’- कांय’ करता हुआ भाग गया। इतवारिया न चाहते हुए भी कुत्ते के उस झूठन रोटी को उठा लाई और अपनी आंचल से झाड़-पोंछ कर भारी मन से सामली के हाथों में पकड़ा दी। आज उसकी फूल-सी बेटी कुत्ते की जूठी रोटी खा रही थी।

दुरूह यायावरी जीवन का आज सातवाँ दिन है। इतने दिनों में इस दल के चार वृद्धजन हमेशा के लिए साथ छोड़ दिए। लाचारी में उनकी अंत्येष्टि भी सम्भव न हो सकी। रुक कर उनके लिए आँसू बहाने तक की फुर्सत भी किसके पास थी? उनके शव को वहीं किसी जंगल-झाड़ में छोड़ यह मजबूर मजदूर दल आगे बढ़ा। इस समय इनके माथे पर गठरी की बोझों के साथ विचारों और जिजीविषा की भारी गठरियाँ थीं। भाग्य की कठोर शुष्क आघातों ने इनके अश्रूजल तक को भी सुखा दी थी। इनकी आत्मा निरंतर क्रंदन कर रही थीं, जिसे देख पाना सबके वश की बात न थी।

फागु के पैरों में बड़े-बड़े फफोड़े हो गए, बुखार भी चढ़ गया, शरीर गर्म तावे की तरह तप्त हो गया, पर वह उनकी चिंता किये बिना निरंतर दल के साथ ही रहा। उसे पता है कि रुक जाना ही जीवन से पराजित हो जाना है। दिन-प्रतिदिन उनकी मंजिल क्रमशः उनके करीब ही आ रही थी, जो इन मजदूरों में नित नई शक्ति का संचार भी करती ही रही थी।

और आज सबेरे फागु मजदूर दल के साथ अपने जिले के सरहद विस्तृत सोन नदी के किनारे पहुँच गया। सोन ने अपनी संतानों को वापस आया देख हर्षित मन से अपने विस्तृत चमकते रेतीले बाँहों को फैलाये उनका स्वागत किया। प्रातःकालीन शीतल रेत के स्पर्श मात्र से ही उन सभी की सारी थकान और ताप छू-मंतर हो गये। माँ के कई रूप भी तो होते ही हैं। सभी को नवजीवन-सा प्राप्त हुआ।कई दिनों से उनके मुरझाये चेहरों पर एक विजयी मुस्कान बिखर गईं। उस स्वर्णिम प्रभात में विजयी की सम्मिलित चीख गूँज उठी।

फिर सभी ने अंजुली भर पानी लेकर सोन नदी में प्रातः कालीन कोमल स्वर्ण-पुरुष को अर्ध्य अर्पण करते हुए प्रण किया, – “अब अपनी जन्मभूमि को छोड़कर परदेश कमाने न जायेंगे।अपनी भूमि से रुखी-सुखी जो भी मिलेगा, उसी में संतुष्ट रहेंगे, पर परदेश न जायेंगेI” और फिर मातृ स्वरूपा सोन की वन्दना कर सभी लोग उसके घुटने भर पानी में प्रवेश कर आगे बढ़े।सोन को पार करते ही वे सभी अपने अंचल में पहुँच गए। सबने भूमि पर पहले घुटनों के बल बैठ कर उसके रजकण को अपने माथे पर लगाया।फिर पेट के बल लेट कर अपनी मातृभूमि को साष्टांग नमन किया।

विगत पन्द्रह-सोलह दिनों के हमसफर बंधुओं से पुनः मिलने का वादा कर फागु सपरिवार अपने गाँव की ओर बढ़ा। गाँव सामने दिखने लगा है। वही खेत, वही खलिहान, वही टूटे-फूटे घर-द्वार, वही पशु-पक्षी, वही सब अपने लोग, सब कुछ तो वही है।अपनी इस अतुलित सम्पदा को छोड़कर दूर चले जाने की वास्तविक पीड़ा का एहसास उसे आज हो रहा है।लेकिन जो सुख आज उसे अपने गाँव को देख कर हो रहा है, इससे वह अब तक अपरिचित ही था। विपति काल में मातृ-आँचल और मातृभूमि के समान कोई दूसरा संतप्त हरण नहीं कर सकता है।

लेकिन फागु और उसके परिजन की सहन शक्ति की परीक्षा की पूर्णता में अभी कुछ कसर बाकी रह गया था।गाँव के प्रवेश पथ पर ही दो खूंटों के सहारे एक बाँस टिका हुआ था, जिस पर एक सूचना-पट टंगा हुआ था, “बाहर से आने वालों का प्रवेश निषेद्ध है। कृपया पहले ‘कोविड 19’ शिविर में जाएँI” उसके पास ही गाँव के कुछ लोग अपने मुँह-नाक को ‘मास्क’ तथा अपने गमछे से ढके प्रवेश पथ पर ही चटाई बिछा कर बैठे हुए थे। वे सभी आगे बढ़ कर आयें, कुशल क्षेम भी पूछे। परन्तु गाँव के लोगों के रक्षार्थ उन्हें गाँव में प्रवेश करने से साफ़ मना कर दिए। फागु की आँखों से झर-झर आँसू बहने लगे। गाँव से दूर जाने का इतना बड़ा दंड! इतवारिया सामली को लिए सूचना-पट के पास के पीपल पेड़ की छाँव में ही बैठ गई।

फागु, इतवारिया और उसकी बेटी सामली के गाँव पहुँचने की खबर पाकर फागु के अपाहिज पिता अपनी बैशाखियों पर उचकते वहाँ आ पहुँचे।नम आँखों सहित अपनी दोनों बाँहें फैलाये आगे बढ़े, दोनों बैशाखियाँ दो विपरीत दिशाओं में गिर पड़ीं। पास खड़ा उनका पड़ोसी मलूकवा उन्हें न पकड़ लिया होता, तो शायद वे गिर ही पड़ते। इतने में फागु की बूढी माँ ‘बेटा-बेटा’ की पुकार करते आ पहुँची।वह तो सूचना पट को लाँघ ही जाती, पर फागु ने उसे अपने पास आने से मना कर दिया, – “माई! तुम वही रुको।गाँव वालों ने यह बहुत ही अच्छा और जरुरी काम किया है, पता नहीं हमारे साथ ‘कोरोना’ भी आया हो। हम अपने सुख के लिए गाँव के लोगों को विपत्ति में नहीं डाल सकते हैं। चौदह-पन्द्रह दिन की ही तो बात है। वह भी तुरंत ही बीत जायेगा माईI”

“माई-बाबूजी! आपके आशीर्वाद से ही आज हम सब आपके सामने जिन्दा लौट आये हैं, नहीं तो हमारे कई साथी तो राह में ही हम सब से हमेशा के लिए बिछुड़ गए। उनकी अंत्येष्टि भी नहीं हो पाई I” – रोती हुई इतवरिया वापसी की कारुणिक कथा को व्यक्त कर रही थी। पास में बैठा सामली “दादा-दादी” कह कर उनके पास बढ़ना चाहि, पर फागु ने उसे रोक लिया। क्या दारुण कष्टप्रद समय है? इतने करीब, पर अभी कई दिनों की दूरी! दोनों तरफ ही आँसू की प्रबल धारा बह रही थी। पर सब विवश थे।

पड़ोस की मन्दपुर वाली चाची एक थाली में कुछ रोटी, गुड़ की एक बड़ी ढेली और एक बड़े लोटे में पानी लेकर आई, – “लो बाबु फागु और बहुरिया, लो कुछ खा लो, थके मांदे आये हो।सामली बेटी! लो, तुम भी कुछ खा लोI” – बहुत ही दुलार और आग्रहपूर्वक बोली और थाली को आगे बढ़ कर सूचना पट के नीचे से फागु की ओर खिसका कर पीछे अपनी परिसीमा में खड़ी हो गई। यह है तथाकथित असभ्य और देहाती कहलाने वालों की संस्कृति! आँसू भरे आँखों से फागु आगे बढ़ कर उस थाली को अपनी ओर सरका ली और फिर उसे इतवारी और सामली के पास ले जाकर रख दिया।

इतवारी वहीं से बैठे-बैठे ही अपने हाथों को जोड़े मन्दपुर वाली चाची को प्रणाम की और नम आँखों से धन्यवाद ज्ञापन की। आज कितने दिनों के बाद उन्हें अपने गाँव-घर के प्रेमरस प्राप्त हुए हैं। अपने गाँव लोटे तीनों प्रवासी उन रोटियों तथा गुड़ के ढेले पर टूट पड़े। गाँव वाले दया भाव से उनकी निरीहता और दयनीयता को देख रहे थे।

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