Vishal's best story: "Jeene Ki Wajah"

अशोक वर्मा “हमदर्द” की कहानी : भावनाओं की गर्मी

अशोक वर्मा “हमदर्द”, कोलकाता। गांव के एक कोने में नीम की छांव तले एक पुराना मिट्टी का घर था। उसकी दीवारों पर वक्त की दरारें थीं और आंगन में पसरी हुई खामोशी, जैसे कोई बहुत कुछ कहना चाहती हो लेकिन शब्दों की प्रतीक्षा कर रही हो। वहीं रहता था रामदीन – उम्र सत्तर के पार, सफेद झक बाल, आंखों में तन्हाई की झील और चाल में थकान का इतिहास।

वो अक्सर चौखट पर बैठा रहता, आंखें कभी गली के उस मोड़ पर टिक जाती, जहां से तीनों बेटों की आवाजें कभी गूंजा करती थीं। विजय, अमित और सूरज तीनों ही शहर में बसे, तीनों ने ऊंची पढ़ाई की, नौकरी पाई और जीवन को एक नई ऊंचाई दी – लेकिन उस ऊंचाई पर चढ़ते वक्त वे नीचे छूटते पिता के झुर्रियों भरे चेहरे को भूल गए।

रामदीन के लिए वो घर एक मंदिर था – जहां दीवारें उसकी यादों की घंटियों से गूंजती थीं। अब जब त्योहार आता, वो सुबह से खिड़की के पास कुर्सी खींचकर बैठ जाता, जैसे कोई बच्चा अपने खिलौने के लौटने की बाट जोह रहा हो। गांव में सभी जानते थे – रामदीन के बेटों का आना अब सिर्फ एक वादा बनकर रह गया था।

उसे याद था, जब विजय ने पहली तनख्वाह पाकर फोन किया था – “बाबूजी, बस कुछ महीनों में आपको भी शहर ले चलूंगा, अब आपको आराम करने का समय है।” लेकिन वो ‘कुछ महीने’ सालों में बदल गए और ‘आराम’ नाम की चीज ने कभी दरवाजे पर दस्तक नहीं दी।

एक दिन, जब अकेलेपन का बोझ उसकी भावनाओं से भारी हो गया, उसने तीनों बेटों को अलग-अलग चिट्ठियां लिखीं। शब्दों में शिकायत नहीं थी, पर हर लकीर दर्द से लिपटी हुई थी। “बेटा, मैंने तुम्हारे बचपन में कभी थकान को महसूस नहीं किया। भूखा रहा, लेकिन तुम्हारे लिए दूध लाया। आज तुम्हारे पास सब कुछ है, और मेरे पास बस इंतज़ार। क्या भावनाएं अब सिर्फ जरूरत के समय याद आती हैं?”

चिट्ठियों का जवाब आया – फोन की घंटी के रूप में। विजय ने हड़बड़ाकर पूछा – “बाबूजी, ये सब क्यों लिखा आपने?” और रामदीन ने बस इतना कहा, “तुमने कभी पढ़ा नहीं, इसलिए मैं बोल नहीं पाया।”

गांव की हवा अब उसे काटने लगी थी। नीम का पेड़ जिसकी छांव कभी बच्चों की हंसी से महकती थी, अब सिर्फ पत्तों की सरसराहट से संवाद करता था। हर शाम वह खाली थाली में चार रोटियां परोसता, तीन बेटों के नाम की और एक अपनी। फिर थककर सो जाता।

रामनवमी का मेला आया। यह वही दिन था जब रामदीन पूरे गांव में शान से अपने बेटों को घुमाता था। इस बार भी उसने फोन किया – “इस बार आ जाओ बेटा, गांव के लोग पूछते हैं, कहां हैं तुम्हारे बेटे?” पर जवाब वही पुराना था – “इस बार काम बहुत है बाबूजी, अगली बार जरूर।”

और उस दिन पहली बार रामदीन की आंखों में पानी नहीं, खालीपन था। जैसे मन का आखिरी दीपक भी बुझ गया हो।
चार महीने बीते। एक सुबह दरवाज़े पर गाड़ी रुकी। दरवाजा खुला – और सामने खड़ा था सूरज। वही सबसे छोटा बेटा, जिसकी आंखों में अब ग्लानि का सैलाब था।
“बाबूजी… माफ कर दो। बहुत देर हो गई।”

रामदीन ने देखा, जैसे किसी सूखी धरती को पहली फुहार छू गई हो। लेकिन उसने कुछ नहीं कहा, न आशीर्वाद, न नाराजगी।

“बाबूजी, मैं आपको साथ ले जाने आया हूं। अब आप मेरे साथ चलेंगे।”
“अब साथ क्या ले जाएगा बेटा?” रामदीन की आवाज में न शिकायत थी, न अपेक्षा। “जो दिल यहां छूट चुका हो, वो साथ नहीं जाता, सिर्फ शरीर चलता है।”

शहर का माहौल रामदीन के लिए बिल्कुल नया था – दीवारें सीमेंट की, खिड़कियां कांच की, और चेहरे… अनजान। लेकिन सूरज की आंखों में अब एक अटूट वादा था – अब और देर नहीं होगी, बाबूजी।

सूरज रोज दफ्तर से लौटते ही बाबूजी के पास बैठता, उनकी आंखों की थकान पढ़ता और उनकी हथेलियों पर अपना हाथ रख देता। उनके लिए खिचड़ी बनाता, उन्हें बालकनी में धूप दिखाता और रात में उनके पास बैठकर रामायण सुनाता।

धीरे-धीरे रामदीन की आंखों में फिर से चमक आई। भावनाएं मरती नहीं, ये तो बस जवाब की तलाश में मौन हो जाती हैं।
और एक दिन वही चिट्ठी, जो विजय और अमित को भी भेजी गई थी, उनकी आत्मा तक पहुंच गई। वे भी आए – थके हुए, शर्मिंदा।
“बाबूजी, हमें माफ कर दो। आपकी चिट्ठी ने झकझोर दिया।”

रामदीन मुस्कराया नहीं। पर उसके चेहरे पर वो संतोष था जो किसी तपस्वी को आत्मज्ञान के बाद मिलता है।
“माफ तो तब करता जब तुमसे नाराज होता बेटा। मैं तो सिर्फ चुप रहा… और चुप रहना भी कभी-कभी सबसे गहरी सजा होती है।”

अब रामदीन एक नए घर में था – तीनों बेटों के साथ। लेकिन उसके भीतर की शांति अब घर के दरवाजे की घंटी पर निर्भर नहीं थी, बल्कि उन भावनाओं पर टिकी थी जो अंततः अपने उत्तर पा चुकी थीं।

हर सुबह सूरज उसे बालकनी में चाय देता और वह कहता – “बेटा, भावनाएं धूप की तरह होती हैं – जब तक महसूस की जाएं, जीवन को गर्माहट देती हैं। लेकिन जब अनदेखी की जाएं, तो वो चुपचाप किसी को भीतर ही भीतर जला देती हैं।”
और सूरज, अब हर बार मुस्कराकर कहता – “अब वो वक्त कभी नहीं आने दूंगा, बाबूजी।”

अंत में बस इतना…
भावनाएं शब्दों से नहीं, व्यवहार से जीवित रहती हैं। जो चुप रहता है, वह कमजोर नहीं होता – वह सिर्फ उम्मीद छोड़ देता है। और जब उम्मीद लौटती है, तो रिश्ता फिर से महक उठता है।

अशोक वर्मा “हमदर्द”, लेखक

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