भोजपुरी “बटोहिया गीत”- “सुंदर सुभूमि भइया भारत के देशवा” के अमर रचनाकार रघुवीर नारायण जी की जयंती पर विशेष

श्री राम पुकार शर्मा, हावड़ा। ‘सिर पर पटीदार गोल टोपी, उन्नत भव्य ललाट पर उभरी दृष्टव्य रेखाएँ, मुखमंडल पर उद्भूत तेजस्विता, घुटनों के नीचे तक पहुँची धोती या कभी चूड़ीदार पायजामा, गला बंद कुर्ता, यही तो साधारण वाह्य स्वरूप रहा था, बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तित्व बाबू रघुवीर नारायण का, जिनमें गीतकार, पत्रकार, गायक, साहित्यकार, राष्ट्र-प्रेम जनित अनगिनत विशेषताओं का अद्भुत मणि-कंचन संयोग था। जिनके कोमल कंठ और लेखनी से फुट पड़ा था, राष्ट्र-प्रेम जनित स्वर-लहरिया ‘बटोहिया’ गीत।

‘सुंदर सुभूमि भइया भारत के देशवा से,
मोरे प्राण बसे हिमखोह रे बटोहिया।’

बाबू रघुवीर नारायण का जन्म सारण, वर्तमान छपरा जिले के दहियावां गाँव में एक प्रतिष्ठित कायस्थ कुल के नामी-गिरामी वकील जगदेव नारायण के घर-आँगन में 30 अक्टूबर 1884 को हुआ था। उनके पूर्वज कश्मीर से आकर बसे थे, जो बादशाह अकबर के समय से ही साहित्य-साधना में तल्लीन रहे थे। यह साहित्य-प्रेम उन्हें अपने पूर्वजों से वंशानुगत प्राप्त हुआ प्रतीत होता है। उनके पूर्वजों में हिन्दी और फारसी के अनेकानेक प्रसिद्ध विद्वान हो चुके हैं, जिनमें कीर्ति नारायण सिंह, भूप नारायण सिंह, पहलवान सिंह, मनीआर सिंह, कृपा नारायण सिंह, बाबू रामबिहारी सहाय आदि का नाम विशेष उल्लेखनीय है। इसी परंपरा की अग्रिम कड़ी के रूप बाबू रघुवीर नारायण थे।

उनकी प्रारम्भिक शिक्षा फारसी माध्यम से हुई थी। फिर आगे चलकर जिला स्कूल, छपरा में तथा कालांतर में अंग्रेजी में प्रतिष्ठा की शिक्षा ‘पटना कॉलेज’ में हुई थी। इसी ‘पटना कालेज’ में देशरत्न डॉ. राजेन्द्र प्रसाद जी उनसे दो कक्षा ऊपर के थे। परंतु दोनों के मध्य गहरी अन्तरंगता थी। उस समय के प्रसिद्ध विद्यानुरागी अंबिकादत्त व्यास इनके मार्ग-दर्शक शिक्षक रहे थे। इन्हें ‘पटना कॉलेज’ के प्राचार्य अंग्रेज विद्वान डॉ. विल्सन और प्रोफेसर जेम्स तथा संस्कृत के महान दार्शनिक गुरु महामहोपध्याय पंडित रामावतार शर्मा की साहित्यिक और व्यवहारिक सानिध्यता प्राप्त थी।

लेकिन ऐसे ही समय में रघुवीर नारायण को हृदय संबंधित रोग हो गया था। डॉक्टरों ने उन्हें विशेष आराम करने का परामर्श दिया। पढ़ाई को मझधार में ही थम जाने की नौबत आ गई। परंतु उन्होंने बीमारी की दशा में भी हिम्मत न हारी और घर पर ही अपनी पढ़ाई-लिखाई जारी रखी। अध्ययन काल में ही वे साहित्य-लेखन के क्षेत्र में भी अग्रसर हो चुके थे। हालांकि पहले वह अंग्रेजी में लिखा करते थे। सन् 1905 में रघुवीर बाबू ने ‘ए टेल ऑफ बिहार’ की रचना की थी। उनकी कृति को देख कर इंग्लैंड के प्रसिद्ध कवि अल्फ्रेड ऑस्टिन ने 1906 में एक पत्र के माध्यम से बाबू रघुवीर नारायण की तुलना अंग्रेजी के कई प्रमुख कवियों से की थी। परंतु उनकी वास्तविक साहित्यिक पहचान भोजपुरी और खड़ी बोली ने ही प्रदान की, जो उन्हें एक बिहारी कवि के रूप में साहित्य-जगत में पूर्णरूपेण प्रतिष्ठित की।

बाबू रघुवीर नारायण की झुकाव आध्यात्मिकता की ओर भी रही थी। वे एक बार अयोध्या गए थे और वहीं के ‘मधुरोपासन पंथ’ के साधक भक्त रूपकला जी महाराज के प्रभाव और आशीर्वाद से उनका हृदय रोग ठीक हो गया। उनके ‘वैष्णव भक्तमाल’ से प्रभावित होकर ही वह साहित्य-क्षेत्र की ओर प्रवृत हुए थे और परम पूज्य श्रीरूपकलाजी की प्रेरणा से उन्होंने भक्ति-भाव से परिपूर्ण अनेकानेक भक्ति-गीत, भजन और संकीर्तन-साहित्य की भी रचना की है, जो अयोध्या सहित उत्तर भारत के अनेकानेक मंदिरों में आज भी गाए जाते हैं। वहाँ से लौटने के बाद वे कानून की पढ़ाई करने लगे, परंतु उस कॉलेज के प्रधानाध्यापक से मतभेद हो जाने के कारण उन्होंने कानून की पढ़ाई बीच में ही छोड़कर छपरा जिला स्कूल में अध्यापक की नौकरी कर ली थी।

बनैली राज (पूर्णिया) के नरेश कीर्तयानंद सिंह ने बाबू रघुवीर नारायण की प्रतिभा से प्रभावित होकर 1912 में उन्हें अपना निजी सचिव बना लिया। उस कार्य में अपनी अद्भुत दक्षता को प्रदर्शित करते हुए 1932 तक वे उस पद पर बने रहे। उसके साथ ही उनकी साहित्य सृजन-कर्म भी निर्वाध चलती ही रही। बनैली में ही प्रसिद्ध हास्य-रसावतार पंडित जगन्नाथ प्रसाद चतुर्वेदी अक्सर उनसे मिलने आया करते थे। वे रघुवीर बाबू के निवास को ‘साहित्यिक तीर्थ-स्थली’ कहा करते थे। राजा कीर्तयानंद सिंह के सेवाकाल के दौरान ही उनके दो प्रसिद्ध काव्य-संग्रह ‘रघुवीर रस रंग’ और ‘रघुवीर पत्र-पुष्प’ प्रकाशित हुए थे। बनैली-नरेश कीर्तयानंद सिंह रघुवीर बाबू की समर्पित सेवा और उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर उन्हें पाँच सौ बीघा भूमि पुरस्कार स्वरूप दान में दी थी। परंतु आत्म-स्वाभिमानी रघुवीर बाबू ने दान में प्राप्त वह समस्त भूमि स्वेच्छा से परवर्तित बनैली-नरेश वंशधर कुमार कृष्णनन्द सिंह को सादर लौटा दी थी।

बाबू रघुवीर नारायण अंग्रेजी, हिन्दी, बंगला, संस्कृत, फारसी और भोजपुरी इन छः भाषाओं के अधिगत विद्वान थे। परंतु उन्होंने अंग्रेजी, हिन्दी और भोजपुरी में ही सर्वाधिक रचना की है। इन्होंने अंग्रेजी में ‘ए टेल आफ बिहार’, वे साइड ब्लजम’, ‘द व्हील आफ टाइम’, ‘द रोज़ आफ द चाइल्ड’, ‘सीताहरण’, ‘द बैटल आफ केरेन’, ‘चम्पा’, द विक्टर्स रिटर्न’ आदि प्रमुख रचना की है। इंग्लैंड के राष्ट्रकवि अल्फ्रेड ऑस्टिन ने एक पत्र में लिखा कि ‘बाबू रघुवीर नारायण का अंग्रेजी भाषाधिकार तत्कालीन अंग्रेज कवियों से भी अच्छा है।’

अंग्रेजी भाषा पर प्रांजल-प्रबल भाषाधिकार रखने वाले तत्कालीन भारतीय साहित्यकारों में माइकेल मधुसूधन दत्त, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, विवेकानंद, बंकिमचंद्र चटर्जी, महर्षि अरविन्द घोष, महात्मा गाँधी, तरूलता, सरोजिनी नायडू, जवाहरलाल नेहरू आदि के साथ बाबू रघुवीर नारायण का भी नाम सादर से लिया जाता है। बिहार के एकमात्र अंग्रेजी भाषा के कवि के रूप में रघुवीर नारायण का नाम सर्वदा स्मरण किया जाता रहेगा। हिन्दी में उनके द्वारा रचित ‘रघुवीर रसरंग’, ‘रघुवीर पत्रपुष्प’, ‘रंभा’ के अतिरिक्त ग्यारह जीवनियाँ, एक आत्मकथा सहित शताधिक कविताएँ और शोधपरक निबंध विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं। रघुवीर बाबू ने बंगला भाषा में वेदों और उपनिषदों के कुछ अंशों का बेहतरीन अनुवाद भी किया हैं, जो बंगला विद्वानों द्वारा प्रशंसित रहा है।

परंतु बाबू रघुवीर नारायण को सर्वाधिक ख्याति उनकी प्रसिद्ध रचना ‘बटोहिया’ गीत से प्राप्त हुई है। युग चेतना को स्वर देने वाली ‘बटोहिया’ गीत की रचना उन्होंने सर्वसाधारण के लिए भोजपुरी भाषा में 1911-12 में की थी। इसमें भारतीय प्राकृतिक सुषमा का बड़ा ही सजीव और उदत्त चित्रण सहित भारत की उज्ज्वल सांस्कृतिक परंपरा तथा आध्यात्मिकता का गहरा उद्घोष हुआ है। 1912 में मोतीहारी में आयोजित ‘बिहारी छात्र-सम्मेलन’ के अधिवेशन में ‘बिहार केशरी’ डॉ. श्री कृष्ण सिंह के भाई गोपीकृष्ण सिंह ने ‘बटोहिया’ गीत को अपने ओजस्वी स्वर में गाया था। असहयोग आंदोलन के दौरान बिहार प्रवास के समय भागलपुर में ‘बटोहिया’ का सस्वर पाठ सुनकर महात्मा गाँधी बोल पड़े थे- ‘अरे! यह तो भोजपुरी का ‘वन्देमातरम्’ है।’

‘सुंदर सुभूमि भइया भारत के देशवा से, मोरे प्राण बसे हिम खोह रे बटोहिया।
एक द्वार घेरे राम हिम कोतवलवा से, तीन द्वार सिंधु घहरावे रे बटोहिया।
जाऊ जाऊ भैया रे बटोही हिंद देखि आऊ, जहवाँ कुहुकि कोइली बोले रे, बटोहिया।’

‘सुंदर सुभूमि भइया भारत के देशवा’ की रक्षा उत्तर में पर्वतराज हिमालय और दक्षिण में तीनों समुद्र करते हैं, जहाँ की नदियाँ मीठी आवाज में गाती हैं, जहाँ के तीरथ-स्थल आत्मीय शांति प्रदान करते हैं, जहाँ की वायु में चतुर्दिक वेदगान गूँजित होता है, जहाँ के घर-घर में राम-कृष्ण अटूट रिश्ते से बंधे हुए हैं, जहाँ हर नारी में सीता का स्वरूप देख जाता है, जहाँ वाल्मीकि, व्यास, गौतम, कपिल मुनि, रामानंद, रामानुज और कबीर जैसे ज्ञानी लोग जन्म लिये हैं, जहाँ कालिदास, विद्यापति, जयदेव, सूरदास, मीरा, तुलसी की रचनाएँ सर्वत्र गूँजती रहती है, जहाँ बुद्ध, पृथु, अर्जुन और शिवाजी की गाथाएँ हर किसी के लिए प्रेरणा स्रोत रहे हैं, जहाँ की खेतों में सोना उगता है, जहाँ कोयल की कुहुक पर लोग मोहित हो जाते हैं। प्रकृति ने स्वयं अपने हाथों से जिस अद्भुत देश को रचा-बसाया है, वही देश हमारा भारत है । इसके सम्मुख हम बारम्बार अपना शीश झुकाते हैं।

‘अपर प्रदेश देश सुभग सुन्दर वेश, मोरे हिंद जग के निचोड़ रे बटोहिया।
सुंदर सुभूमि भइया भारत के भूमि जेहि, जन ‘रघुवीर’ सिर नावे रे, बटोहिया।।’

यह ‘बटोहिया’ गीत न सिर्फ बिहार या भारत ही, बल्कि मॉरीशस, त्रिनिदाद, फिजी, गुयाना, अफ्रीका इत्यादि देशों तक, अर्थात जहाँ भी भोजपुरी बोली और समझी जाती है, वहाँ तक इसकी लोकप्रियता आज भी बनी हुई है। यह भोजपुरी भाषी संगीत-कला का वेशकीमती श्रृंगार है। ‘लक्ष्मी’ पत्रिका के अगस्त 1916 के अंक में कवि शिवपूजन सहाय ने ‘बटोहिया’ गीत के संबंध में लिखा था- ‘बटोहिया’ का प्रचार-प्रसार बिहार के घर-घर में है। यदि एक ही (बटोहिया) गीत लिखकर बाबू रघुवीर नारायण अपनी प्रतिभाशाली लेखनी को विराम दे देते, तो भी उनका नाम अजर और अमर ही बना रहता।’

‘बटोहिया’ के संदर्भ में बंगला साहित्य के मूर्धन्य व्यक्तित्व सर यदुनाथ सरकार ने बाबू रघुवीर नारायण को लिखा था,- ‘आई कैन नॉट थिंक आफ यू विदाउट रिमेम्बरिंग योर बटोहिया।’ जबकि राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने कहा है, – ‘बाबू रघुवीर नारायण बिहार में राष्ट्रीयता के आदिचारण और जागरण के अग्रदूत थे।’ इस गीत की प्रशंसा पंडित रामावतार शर्मा, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, पं. ईश्वरी प्रसाद शर्मा, भवानी दयाल संन्यासी, आचार्य शिवपूजन सहाय, नलिन विलोचन शर्मा, नरेंद्र नाथ सोम, डॉ. उदय नारायण तिवारी सहित तत्कालीन सभी राष्ट्र चर्चित विद्वानों ने मुक्त-कंठ से की है। आज भी यह गीत हमारे मन-प्राणों को स्पंदित करता है।

यह ‘बटोहिया’ वही गीत है, जो आजादी की लड़ाई के समय भले ही सम्पूर्ण भारत में न सही, परंतु बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश में सब देश-प्रेमियों के कंठ का प्रिय ‘उद्घोषक गीत’ ही बना हुआ था। यह सिर्फ एक गीत न होकर सम्पूर्ण भारत के प्राकृति और स्कृतिक की एक भावनात्मक आदर्श व्याख्या है। विस्तृत भारत-भूमि और इससे संबंधित तत्वों का ऐसा सुंदर चित्रण अन्यत्र बहुत कम ही देखने को मिलता है। राष्ट्र-प्रेम और राष्ट्र-भक्ति से ओत-प्रोत ‘बटोहिया’ की ख्याति एक ही वर्ष में ही बंगला भाषाई क्षेत्र कोलकाता की गलियों तक फैल गयी थी। स्वतंत्रता संग्राम के समय यह गीत स्वतंत्रता सेनानियों का कंठहार बन चुका था। इसकी तुलना बंकिमचन्द्र के ‘वंदेमातरम्’ तथा इकबाल के ‘सारे जहाँ से अच्छा हिंदोस्तां हमारा’ से की जाती रही।

‘बटोहिया’ का भोजपुरी साहित्य और लोक-गायन जगत में ऐसा प्रभाव रहा है कि इसके गायन के बिना आज तक कोई भोजपुरिया गायक बन ही नहीं सका है। परवर्तित काल में ‘बटोहिया’ को आधार बनाकर अनेक गीत लिखे गए हैं और आज भी लिखे जा रहे हैं। ‘बेटी बेचवा’, ‘ओकीलवा’, ‘मुखतरवा’, ‘पूतोहिया’, ‘बिदेसिया’, ‘फिरंगिया’ आदि ‘बटोहिया’ के ही अनुरूप हैं और वे सब भी ‘बटोहिया’ की भाँति ही बहुत लोक चर्चित हुए है। इसके राष्ट्र-स्वर और प्रसिद्धि को इसी बात से अंदाज लगाया जा सकता है कि जब हमारे स्वतंत्र देश का राष्ट्रगीत चयन हेतु अनुसंधान हुए, तो उनमें चार गीतों का चयन किया गया था, जिनमें बंकिमचंद्र चटर्जी कृत ‘वन्देमातरम’ (1882), मुहम्मद इकबाल कृत ‘सारे जहाँ से अच्छा हिन्दुस्ता हमारा’ (1905), बाबू रघुवीर नारायण कृत ‘बटोहिया’ (1911) और रवीन्द्रनाथ ठाकुर कृत ‘जन गण मन अधिनायक’ (1912) रहा था। लोकधुन पर आधारित यह गीत प्रसिद्धि के समस्त पायदानों को पार करते हुए भले ही अंत तक राष्ट्रगीत न बन पाया, परंतु उसके समकक्ष तो अवश्य ही पहुँच ही गया था।

बाबू रघुवीर नारायण की दूसरी सबसे चर्चित कविता ‘भारत भवानी’ है, जो 16 सितंबर 1917 को ‘पाटलिपुत्र पत्र’ में छपी थी । हालांकि इसकी रचना सन 1912 में ही हो चुकी थी और उसी वर्ष ‘अखिल भारतीय कांग्रेस समिति’ के पटना अधिवेशन में इसका पाठ हुआ था। बाद में तो बिहार के सभी सभा-सम्मेलनों में इसे ‘मंगलाचरण’ के रूप में गाई जाने लगी थी। इसकी राष्ट्रीयता और क्रांति-स्वर से ही प्रभावित होकर विभिन्न जेलों में बंद तत्कालीन देश-भक्तों ने ‘भारत भवानी’ को अपना प्रेरक गीत बनाया और उनकी बेड़िया इसकी धुन पर झंकृत होने लगी थी।
‘गेंहू धान जाजहे काम सरसों विपिन फूले,
सुख झूले मड़ई पलानी मओरी जननी।
जेति जै जै पुण्य धाम धर्म की असल भूमि,
जेति जै जै भारत भवानी मोरी जननी।’

लोक जीवन, राष्ट्रीयता और साहित्य के क्षेत्र में तत्कालीन पुनर्जागरण के उस काल में सम्पूर्ण भारतीय में जो परिवर्तनकारी लहरें उठी थी, उसके पीछे के कई प्रमुख कारकों में से एक कारक राष्ट्रवादी विचारधारा के पोषक बाबू रघुवीर नारायण भी अवश्य ही रहे थे।

श्रीराम पुकार शर्मा, लेखक

बाबू रघुवीर नारायण बाद में दुनियादारी से विरक्त होकर एक सन्यासी का जीवन व्यतीत करने लगे थे। फिर वह समय भी आया, जब वह उन्मुक्त सन्यासी साहित्यकार बाबू रघुवीर नारायण 1 जनवरी, 1955 को अपने ‘सुंदर सुभूमि भइया भारत के देशवा से, मोरे प्राण बसे हिम खोह रे बटोहिया’ गीत को जग को सुनाने के लिए लोकान्तरण गमन कर गए। आज भले ही बाबू रघुवीर नारायण हमारे बीच सशरीर उपस्थित नहीं हैं, परंतु अपनी रचना और अपने गीतों के मध्याम से आज भी वे हमारे गीत-संगीतों में उपस्थित हैं।

यह बात अलग है कि साहित्य साधक और राष्ट्र के प्रति पूर्ण समर्पित कवि रघुवीर नारायण को केवल ‘बिहार राष्ट्रभाषा परिषद’ की ओर से सम्मानित होने के अतिरिक्त अन्य कोई उपयुक्त राष्ट्रीय सम्मान न प्राप्त हुआ है। खैर, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है?

श्रीराम पुकार शर्मा,
लेखक व आलेखकार,
अध्यापक, श्री जैन विद्यालय, (हावड़ा)
ई-मेल सूत्र- rampukar17@gmail.com

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