जयशंकर प्रसाद की जयंती पर विशेष…

“हारे सुरेश, रमेस, धंस, गनेसहु, सेस न पावत पारे।

जारे हैं कोटिक पातकी पुंज, ‘कलाधर’ ताहि छीनो बिच तारे।
तारन की गिनती सम नाहिं, सुबेने तेरे प्रभु पायी बिचारे।
चारे चले न बिरंचहि के, जो दयालु ह्वे संकर नेक निहारे।

श्रीराम पुकार शर्मा, कोलकाता। सुधि विद्वजन क्या आपको नहीं लगता है कि यह रचना किसी सिद्धस्त ब्रज-भाषी कवि की है। सही में इस सवैये में किसी भी कोण से कोई भी कवित्व की कमी प्रतीत नहीं होती है। पर आपको यह जानकर अचरज होगा कि यह सवैया एक नौ वर्षीय बालक ‘झारखंडी’ की एक प्रारम्भिक रचना है, जो आगे चलकर सुललित, सुमधुर, सांस्कृतिक और दार्शनिक धरातल पर प्रेम और यौवन के गीत गाने वाले छायावाद के प्रवर्तक कविरत्न ‘जयशंकर प्रसाद’ जी बना। जिन्होंने ने हिंदी काव्य क्षेत्र में समृद्ध ‘छायावाद’ काव्य-युग की स्थापना में अपनी अहम भूमिका निभाई, जिसके द्वारा खड़ी बोली जीवन के सूक्ष्म एवं व्यापक आयामों को चित्रित करती हुई काव्य शिखर ‘कामायनी’ तक पहुँचकर काव्य प्रेरक शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित हो गयी।

जयशंकर प्रसाद के लिए साहित्य रचना का उद्देश्य कदापि कवित्व अर्जन नहीं, बल्कि साहित्य सृजन उनकी आजीवन साधना रही है। ऐसी बहुआयामी प्रतिभा सम्पन्न भारती पुत्र जयशंकर प्रसाद जी ने साहित्य की सभी विधाओं को अपनी कृतियों से न केवल समृद्ध किया हो, बल्कि उन्हें साहित्यिक उच्चासन पर स्थापित भी किया है।

कविरत्न जयशंकर प्रसाद जी का जन्म माघ शुक्ल 10, संवत्‌ 1946 वि० (तदनुसार 30 जनवरी 1889 ई० दिन-गुरुवार) को काशी के सरायगोवर्धन मुहल्ले में हुआ था। इनके पूर्वज सुगन्धित नसवार और तम्बाकू के प्रतिष्ठित वैभवशाली व्यापारी ‘सुंघनी साहू’ के नाम से प्रसिद्द थे। इनके पितामह बाबू शिवरतन साहू धार्मिक व दान प्रवृति के व्यक्ति थे। प्रातःकाल गंगा स्नान से लौटते समय उनके पास जो कुछ भी रहता, वे सब दान कर दिया करते थे। यह पैत्रिक गुण परम्परागत रूप से जयशंकर के पिता बाबू देवीप्रसाद जी को भी प्राप्त हुआ था।

वे भी विद्वानों, कलाकारों का आदर करने के लिए विख्यात थे। इनका काशी में बड़ा ही सम्मान था और काशी की जनता काशी नरेश के बाद ‘हर हर महादेव’ से बाबू देवीप्रसाद का ही स्वागत करती थी। जयशंकर प्रसाद जी का कुटुम्ब शिव का उपासक था। माता पिता ने उनके जन्म के लिए अपने इष्टदेव काशी विश्वनाथ से बड़ी प्रार्थना की थी। देवघर वैद्यनाथ धाम से लेकर उज्जयिनी के महाकाल की आराधना के फलस्वरूप उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति के कारण शैशव में सभी जयशंकर प्रसाद को ‘झारखण्डी’ कहकर पुकारते थे। वैद्यनाथधाम में ही जयशंकर प्रसाद का नामकरण संस्कार हुआ था।

किशोरावस्था में ही माता और बड़े भाई का देहावसान हो जाने के कारण 17 वर्ष की अल्पायु में ही प्रसाद जी पर घरेलू और पारिवारिक व्यापारिक आपदाओं का पहाड़ ही टूट पड़ा। कच्ची गृहस्थी, घर में सहारे के रूप में केवल विधवा भाभी, जबकि कुटुबिंयों और परिवार से संबद्ध अन्य लोगों का संपत्ति हड़पने का षड्यंत्र, इन सबका सामना उन्होंने धीरता और गंभीरता के साथ किया। घर पर इनकी शिक्षा का व्यापक प्रबंध हुआ, जहाँ संस्कृत, हिंदी, उर्दू तथा फारसी का इन्होंने अध्ययन किया। घर के साहित्यिक तथा कला-प्रेमी वातावरण इनमें किशोरावस्था में ही साहित्य और कला के प्रति रुचि पैदा कर दिया।

नौ वर्ष की उम्र में ही उन्होंने ‘कलाधर’ नाम से ब्रजभाषा में एक सवैया लिखकर अपने गुरु ‘रसमय सिद्ध’ को दिखाया था, जिन्होंने बालक को महाकवि होने का आशीर्वाद प्रदान किया, जिसे आगे चलकर प्रतिभशाली बालक ने सिद्ध कर भी दिखाया।
तरूण तपस्वी-सा वह बैठा, साधन करता सुर-श्मशान,
नीचे प्रलय सिंधु लहरों का, होता था सकरूण अवसान।

पारिवारिक व व्यापारिक क्षेत्र में एक ओर कानूनी संघर्ष तो दूसरी ओर काव्य-साधना में जयशंकर प्रसाद की लेखनी भी गतिमान रही। उन्होंने अपनी काव्यरचना ब्रजभाषा में आरंभ की और धीर-धीरे खड़ी बोली की ओर बढ़ते हुए खड़ी बोली के मूर्धन्य कवियों की पंक्ति में अग्रणीय और फिर युगवर्तक कवि के रूप में प्रतिष्ठित हो गए।
जिस गम्भीर मधुर छाया में, विश्व चित्र-पट चल माया में,
विभुता विभु-सी पड़े दिखाई, दुख-सुख बाली सत्य बनी रे।

उन्होंने 1906 ई० में मात्र 17 वर्ष की आयु में “इन्दु” नामक मासिक पत्रिका का प्रकाशन किया। इसी पत्रिका में प्रसाद जी की सर्वप्रथम छायावादी रचना ‘खोलो द्वार’ प्रकाशित हुई। रचनाक्रम के अनुसार ‘चित्राधार’ प्रसाद का प्रथम काव्य संग्रह है। इसका प्रथम संस्करण 1918 ई. में प्रकाशित हुआ था। फिर तो काव्य की एक अजस्र मधुर धारा ही कलकल करती हुई बह चली। जो फिर उर्वशी, कानन-कुसुम, करूणालय, महाराणा का महत्व, प्रेम-पथिक, झरना, आँसू, लहर से होती हुई काव्य का अथाह सागर कामायनी तक जा पहुँची।

काव्यक्षेत्र में प्रसाद की कीर्ति का मूलाधार ‘कामायनी’ ही है। खड़ी बोली का यह अद्वितीय महाकव्य मनु और श्रद्धा को आधार बनाकर मानवता को विजयिनी बनाने का संदेश देता है। इसमें मनु, श्रद्धा और इड़ा (बुद्धि) के अद्भुत संयोग से अखंड आनंद की उपलब्धि को संयोजित किया गया है। उनकी यह कृति छायावाद और खड़ी बोली की काव्यगरिमा का ज्वलंत उदाहरण है। शिल्पविधि, भाषासौष्ठव एवं भावाभिव्यक्ति की दृष्टि से इसकी तुलना में खड़ी बोली के कोई भी काव्य ग्रन्थ खड़ा नहीं हो पाता है। सुमित्रानंदन ‘पंत’ इसे ‘हिंदी के ताज’ सदृश मानते हैं।
‘हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छाँह
एक पुरुष, भीगे नयनों से, देख रहा था प्रलय प्रवाह।
नीचे जल था ऊपर हिम था, एक तरल था एक सघन,
एक तत्व की ही प्रधानता, कहो उसे जड़ या चेतन।‘

कथा के क्षेत्र में प्रसाद जी आधुनिक ढंग की कहानियों के आरंभकर्ता ही माने जाते हैं। सन्‌ 1912 ई. में ‘इंदु’ में उनकी पहली कहानी ‘ग्राम’ प्रकाशित हुई। प्राय: तभी से कथा साहित्य में भी इनकी गति प्रबल हो गई। इन्होने ऐतिहासिक, प्रागैतिहासिक, पौराणिक, भावना-प्रधान प्रेमकथाएँ, समस्यामूलक, रहस्यवादी, प्रतीकात्मक और आदर्शोन्मुख यथार्थवादी उत्तमोत्तम कोई 72 कहानियाँ लिखी हैं। उनकी कुछ श्रेष्ठ कहानियों के नाम हैं : आकाशदीप, गुंडा, पुरस्कार, सालवती, स्वर्ग के खंडहर में आँधी, इंद्रजाल, छोटा जादूगर, बिसाती, मधुआ, विरामचिह्न, समुद्रसंतरण आदि है। उनके पात्र पाठक मन-मस्तिष्क पर अपने अमिट प्रभाव छोड़ जाते हैं।

प्रसाद ने तीन उपन्यास कंकाल, तितली और इरावती लिखे हैं। ‘कंकाल’ में जहाँ नागरिक सभ्यता के यथार्थ का उद्घाटन हुआ है, वहीं ‘तितली’ में ग्रामीण जीवन में सुधार के तत्व समाहित हैं। जबकि इरावती ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर रचित इनका अधूरा उपन्यास है।

प्रसाद ने आठ ऐतिहासिक, तीन पौराणिक और दो भावात्मक, कुल 13 नाटकों की सर्जना की। इनमें महाभारत से लेकर हर्षवर्द्धन के समय तक के ऐतिहासिक तथ्यों में सांस्कृतिक और राष्ट्रीय चेतना का ताना-बाना बना हुआ है, जिनमें प्रसाद जी एक इतिहासकार के रूप में प्रतिष्ठित होते हैं। उनके नाटकों में देशप्रेम का स्वर ही अति मुखरित हुआ है।
हिमाद्री तुंग श्रृंग से, प्रबुद्ध शुद्ध भारती,
स्वयं प्रभा सम्मुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती।

कवि सम्राट माँ भारती पुत्र जयशंकर प्रसाद जी को आजीवन अन्तः और वाह्य स्तर पर अनेक कठिन संघर्षों से होकर गुजरना पड़ा। इन चहुमुखी संघर्षों ने केवल 48 वर्ष की आयु में ही उनके शरीर को भीतर ही भीतर जर्जर कर दिया। पहले तो जाड़ा लगने के कारण वे बीमार पड़ गए, पर इलाज करने वाले डाक्टरों ने परीक्षण के बाद राजक्ष्मा अर्थात राज-रोग बताया। डाक्टरों और मित्रों ने जलवायु परिवर्तन की सलाह दी, पर वे काशी छोड़कर कहीं और जाने के लिए राजी ही न हुए। दिन-प्रतिदिन उनकी दशा बिगड़ती ही गई।

अंत में कार्तिक शुक्ल एकादशी, संवत 1994 विक्रम (तदनुसार 15 नवम्बर 1937) सोमवार के दिन एक महाकवि का – नहीं, – एक युग प्रवर्तक महान व्यक्तित्व जयशंकर प्रसाद इस नश्वर धराधाम को त्याग कर सर्वदा के लिए काशी स्वामी विश्वनाथमय हो गए।
ले चल वहाँ भुलावा देकर, मेरे नाविक ! धीरे-धीरे।
जिस निर्जन में सागर लहरी, अम्बर के कानों में गहरी,
निश्छल प्रेम-कथा कहती हो, तज कोलाहल की अवनी रे।

कवि सम्राट जयशंकर प्रसाद के परम साहित्यिक बंधू कवि महाप्राण ‘निराला’ जी ने श्रद्धांजलि अर्पण करते हुए जो कहा, उसे समूचे युग की श्रद्धांजलि कहा जा सकता है। मैं भी महान कवि को ‘निराला’ जी के उन्हीं शब्दों में नमन करते हुए वन्दना करता हूँ –
किया मूक को मुखर, लिया कुछ, दिया अधिकतर,
पिया गरल पर किया जाति, साहित्य को अमर।
सहज सृजन से भरे लता-द्रुम किसलय-कलि-वल,
जगे जगत के जड़ जल से वासन्तिक उत्पल।

श्रीराम पुकार शर्मा

श्रीराम पुकार शर्मा
ई-मेल सम्पर्क सूत्र – rampukar17@gmail।com

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