प्रेमचंद की 140वीं जयंती पर विशेष : शोषण के तिलिस्म को तोड़ते – मुंशी प्रेमचंद

डॉ. अजीत कुमार दास, असिस्टेंट प्रोफेसर, चित्तरंजन कॉलेज, कोलकाता

प्रेमचंद के पूर्व जिस तरह के साहित्य लिखे जा रहे थे, उनके मूल में कल्पना का स्वर केंद्र में था। तिलिस्मी और जासूसी दोनों प्रकार के साहित्य में अलौकिक घटनाओं, आश्चर्यजनक एवं रोमांचक वर्णनों का ऐसा बनावटी चित्रण किया जाता था कि पाठकों का मन उलझ कर रह जाता था। साहित्य के पात्रों और घटनाओं का दूर– दूर तक सामाजिक यथार्थ से कोई सरोकार न था।

बल्कि कल्पना के नील गगन में ही विचरण किया करते थे। प्रेमचंद ने ही सबसे पहले अपने साहित्य में मानव- जीवन को प्रमुख स्थान दिया। प्रेमचंद की सूक्ष्म दृष्टि ने मानव के सामाजिक एवं वैयक्तिक मूल्यों का समूचित मूल्यांकन करते हुए दोनों को स्वीकार किया।

उन्होंने भारतीय जनजीवन की मानसिक हलचल और हार्दिक संवेदना का अनुभव किया और इसीलिए इनके पात्र, इनकी कहानी भारतीय ग्राम्य जीवन की विशेषताओं से पूर्ण है। प्रेमचंद ने अपने साहित्य में मानव-जीवन का यथार्थ चित्र पूरी ईमानदारी के साथ चित्रित किया है। इसका एक कारण यह भी है कि प्रेमचंद ने स्वयं भी उसी प्रकार का जीवन भोगा था और दरिद्रता के दमनचक्र में फंसी हुई गरीब जनता के हृदय की धड़कन को बड़े निकट से सुना था।

प्रेमचंद ने अपने साहित्य में पीड़ित, दु:खी एवं दलित लोगों का चित्रण किया है। वे किसानों तथा मजदूरों की दशा में बुनियादी परिवर्तन करना चाहते थे। यही कारण है कि वे अपने तमाम उपन्यास तथा सैंकड़ों कहानियों में उनकी वकालत करते नजर आते हैं। वे साहित्य को समाज को बदलने वाली शक्ति के रूप में देखते हैं। इस बारे में प्रेमचंद ने “साहित्य का उद्देश्य’ निबंध में लिखा है-“साहित्य केवल मन बहलाव की चीज नहीं है, मनोरंजन के सिवा उसका और भी कुछ उद्देश्य है। अब वह केवल नायक-नायिका के संयोग- वियोग की कहानी नहीं सुनाता, बल्कि जीवन की समस्याओं पर भी विचार करता है और उन्हें हल करता है।‘’

प्रेमचंद साहित्य को समाज सापेक्ष मानते थे। जो साहित्य समाज को बदल नहीं सकता, जो साहित्य समाज को प्रगति के रास्ते पर नहीं ले जा सकता, वो साहित्य समाज-हित में नहीं है। प्रेमचंद का कहना है कि अब साहित्य का उद्देश्य दिन-प्रतिदिन बदल रहा है। अब वह मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि दुनिया को बदलने का माध्यम है। प्रेमचंद ने लिखा है- “साहित्यकार का लक्ष्य केवल महफिल सजाना और मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं है, उसका दरजा इतना न गिराइये। वह देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलनेवाली सच्चाई भी नहीं बल्कि उनके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई है।”

इसी लक्ष्य को निर्धारित कर प्रेमचंद ने साहित्य लिखा। उन्होंने तत्कालीन सामाजिक एवं राजनैतिक स्थितियों में बुनियादी परिवर्तन करने की कोशिश की। उन्होंने जहां किसानों तथा मजदूरों की दयनीय स्थिति का चित्रण किया, वहीं उन्होंने भारतीय नारी की अत्यंत दयनीय स्थिति का वर्णन किया।

प्रेमचंद एक ऐसे स्वाधीन भारत का स्वप्न देखते थे जिसमें गरीबों तथा असहायों को उनका अधिकार मिले, किसानों तथा मजदूरों का शोषण न हो, नारी का जीवन- स्तर बेहतर हो, सामंतवाद, साम्राज्यवाद एवं पूंजीवाद का खात्मा हो तथा पूरे भारत में समाजवाद की स्थापना हो। प्रेमचंद की यह हार्दिक मंशा थी कि रूस की तरह यहां पर भी “समाजवाद’ की स्थापना हो, यहां पर भी किसानों तथा मजदूरों का राज हो। प्रेमचंद अनुभव कर रहे थे कि रूस की हवा हिन्दुस्तान में भी धीरे-धीरे चलने लगी है। भारतीयों के दिल में अंग्रेजी शासन व्यवस्था के प्रति क्रोध था।

हमारे देश का निम्न तबका अंग्रेजी शासन व्यवस्था की चालाकी को अच्छी तरह समझ गया था। प्रेमचंद देख रहे थे कि धीरे-धीरे वे दुनिया का हाल जानने लगे हैं। बलराज जैसा जागरूक युवा किसान दुनिया का हाल जानने लगा है और वो जानता है कि आने वाले दिनों में यहां भी रूस की तरह किसानों तथा मजदूरों का राज होगा।

प्रेमचंद किसानों तथा मजदूरों की दयनीय स्थिति के पीछे जमींदार वर्ग की भूमिका मानते हैं। ये जमींदार अपने स्वार्थ की खातिर बेबस किसान तथा मजदूरों का शोषण करते हैं। श्री बाँके बिहारीजी, ज्ञानशंकर, राजा विशाल सिंह, रायसाहब अमरपाल सिंह आदि ऐसे ही जमींदार हैं जिनके कारण चेतू, मनोहर, बलराज, होरी, गोबर जैसे किसानों की जिन्दगी बरबाद है। समुद्र में मगरमच्छ से बैर करके रहा जा सकता है परन्तु गांव में जमींदार से बैर करके रहना असंभव है। ये जमींदार अपने स्वार्थ की खातिर किसानों का भयावह शोषण करते हैं।

इनसे सारी किसान बिरादरी कांपती है क्योंकि जमींदार के बावन हाथ होते हैं और अगर किसान को थोड़ी-सी रियायत चाहिए तो उन्हें जमींदारों की जी-हुजूरी करनी पड़ती है क्योंकि जब दूसरे के पांवों तले अपनी गर्दन दबी हुई हो तो उन पांवों को सहलाने में ही भलाई है। “गोदान’ का होरी शोषण के हर एक चक्र को समझता है। इसके बावजूद वह अपने जमींदार की जी-हुजूरी करता है। वह जानता है कि जब जमींदार ही किसान के जीवन का मालिक हो और उन्हीं के रहमों-करम पर किसान की जिंदगी टिकी हुई हो तब किसान के पास जमींदार के तलवे सहलाने के अलावा कोई रास्ता नहीं रहता है।

प्रेमचंद स्पष्ट देख रहे थे कि इन जमींदारों की जी-हुजूरी बहुत दिनों तक चलने वाली नहीं है, अब अधिक दिनों तक उन पांवों को सहलाने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि जमींदारी व्यवस्था की दीवारें हिलने लगी हैं। जमींदार अपनी वास्तविक स्थिति से वाकिफ हो चला था। वह स्पष्ट देखने लगा था कि वे सब अधिकार जो अन्याय एवं अत्याचार पर आधारित हैं, अब मिटने वाले हैं। वह स्पष्ट देखने लगा था कि आने वाले दिनों का क्या भविष्य है।

प्रेमचंद देख रहे थे कि जमींदारी व्यवस्था धीरे-धीरे मिट रही है और उसके स्थान पर महाजनी सभ्यता एवं पूंजीवाद का उदय हो रहा है। इस नयी व्यवस्था में किसानों तथा मजदूरों की स्थिति पहले से कहीं खराब हो गई है। प्रेमचंद इस व्यवस्था के व्यापक प्रभाव को भांप गए थे। इसका प्रभाव पूरी दुनिया पर था। सभी जगह इस महाजनी सभ्यता का विकास हो रहा है। पूंजी अब जमींदार के हाथ से निकलकर पूंजीपति और महाजन के हाथ में आ गई है।

बड़े-बड़े मिल-मालिक, सेठ-साहूकार, पूंजीपति और कारपोरेट जगत के लोग अब देश को चला रहे हैं। इस पूंजीवाद का इतना अधिक प्रभाव है कि गांव के किसान किसानी छोड़कर शहर की ओर भाग रहे हैं, वहीं उद्योगपति अधिक मुनाफे के लिए उद्योग-धंधे लेकर गांव में आते हैं। ये उद्योग-धंधे अधिक मुनाफा कमाने के लिए गांव की स्वच्छता एवं संस्कृति को नष्ट करते हैं।

प्रेमचंद ऐसे ही उद्योग का विरोध करते हैं जो गांव की स्वच्छता एवं संस्कृति को नष्ट करते हैं, लोगों में बुरे आचरण फैलाते हैं तथा लोगों के स्वास्थ्य से खिलवाड़ करते हैं। प्रेमचंद किसी भी कीमत पर गांव की संस्कृति एवं सादगी को नष्ट होने देना नहीं चाहते थे। वे जानते थे कि अगर गांव में इस तरह के कल-कारखाने लगते हैं तो हमारी ग्रामीण-सभ्यता एवं संस्कृति का विनाश निश्चित है। प्रेमचंद गांव की सीधी-सादी जिन्दगी पर ऐसे कल-कारखानों तथा उद्योग-धंधों का प्रवेश गांव की भलाई के लिए खराब मानते थे।

प्रेमचंद अच्छी तरह जानते थे कि देश की अर्थ-व्यवस्था कृषि और उद्योग-धंधों पर निर्भर करती है। प्रेमचंद का उद्योग-धंधों से विरोध नहीं था। अगर विरोध था तो ऐसे उद्योगों से, जिनसे लोगों का अहित होता है, स्वास्थ्य की हानि होती है, समाज का पतन होता है और पर्यावरण का नुकसान होता है।

प्रेमचंद ने अपने उपन्यासों में किसानों एवं मजदूरों की तरह नारी की भी यथार्थ स्थिति का चित्रण किया है। प्रेमचंद के उपन्यासों में सभी वर्ग की नारियां संघर्ष में आगे बढ़कर भाग लेती हैं। ये नारियां अन्याय का विरोध करती हैं, स्वतंत्रता संग्राम में पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर त्याग व बलिदान का उच्च आदर्श स्थापित करती हैं। सुमन, मुन्नी, सुखदा, जालपा, धनिया आदि ऐसी ही नारियां हैं जिनमें बेहतर जीवन की इच्छा तथा जागरुकता कूट-कूटकर भरी हुई है। प्रेमचंद किसानों की तरह स्त्रियों की समस्या के प्रति भी कृत संकल्प थे। विधवा-समस्या, वेश्या-समस्या, पति द्वारा प्रताडि़त, समाज द्वारा तिरस्कृत नारियों की समस्या पर प्रेमचंद ने विस्तार से प्रकाश डाला है।

हालांकि शुरू में प्रेमचंद ने “सेवासदन’, “प्रेमाश्रम’, “नारी निकेतन’, “विधवाश्रम’ जैसी संस्थाओं का सहारा लिया है लेकिन बाद में प्रेमचंद ने समय की नब्ज को पहचानते हुए नारी- मुक्ति आंदोलन को राष्ट्रीय-सामाजिक मुक्ति आंदोलनों के साथ जोड़ा है। उनका विश्वास था कि नारी की मुक्ति तथा उद्धार तभी हो सकता है जब वह किसी आश्रम अथवा संस्था पर निर्भर न रहकर स्वयं संघर्ष करे तथा राष्ट्रीय एवं सामाजिक आंदोलनों में अपना अहम योगदान दे।

यह कहने की आवश्यकता नहीं कि मौजूदा दौर में भारतीय नारी ने पूरी दुनिया में अपनी मेहनत और लगन से कामयाबी का झण्डा गाड़ा है। शिक्षा, राजनीति, साहित्य, समाज सेवा, कला, विज्ञान, वाणिज्य, फिल्म उद्योग आदि ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है जहां पर स्त्रियों ने अपनी पहचान स्थापित नहीं की है। भारतीय नारी आज पूरे देश का नेतृत्व करने की क्षमता रखती है। यही नहीं, उन्होंने अपनी मेहनत और ज्ञान के बल पर न सिर्फ धरती पर बल्कि धरती से हजारों-लाखों मील दूर अंतरिक्ष में भी कामयाबी का परचम लहराया है और विश्व के मानचित्र में भारत को गौरवान्वित किया है।

लेकिन यह भी सच है कि जहां भारतीय नारी ने अपनी मेहनत से पूरे संसार को अचम्भित कर दिया है, वहीं दूसरी तरफ समाज में हो रहे नारी के साथ अत्याचार और बलात्कार की घटनाओं ने पूरी दुनिया के सामने हमें शर्मशार कर दिया है। ऐसी स्थिति में जहां दोषियों को सजा देने के जरूरत है, उससे कहीं अधिक आवश्यक है कि हम अपने चारित्रिक गुणों का विकास करें जिससे कि हमें दूसरों के सामने शर्मशार न होना पड़ें। प्रेमचंद ने अपने साहित्य के द्वारा चारित्रिक गुणों के विकास करने की वकालत की है।

इसके अलावा प्रेमचंद ने गांवों में व्याप्त तमाम बुराइयों का चित्रण किया है। अज्ञानता, अंधविश्वास, जाति-पांति, छुआ-छूत, ऊंच-नीच, सांप्रदायिक भावना, समस्त सामाजिक एवं धार्मिक रीति-रिवाज गांव के विकास में बाधक थीं। प्रेमचंद ने इन बुराइयों का भंडाफोड़ किया तथा एक स्वस्थ एवं सुंदर समाज बनाने पर बल दिया। प्रेमचंद ने अपने साहित्य के माध्यम से समाज को बदलने का तथा उसे सुंदर बनाने का प्रयास किया। उन्होंने समाज में विद्यमान उन तमाम समस्याओं को उठाया जिनके कारण हमारा समाज पतन की गर्त में समाता जा रहा था। आजादी के सात दशक बीत जाने के बाद भी गांवों तथा गांवों में रहनेवाले किसानों तथा मजदूरों की स्थिति में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ।

यह कहने की आवश्यकता नहीं कि गांव के यथार्थ की परछाईं आज भी बुनियादी तौर पर शोषणमूलक है और धर्म और राजनीति के नए बाबुओं की मिली-भगत का प्रमाण देता है। आजादी के सात दशक बाद एकदम नये तरीके से गांवों में एक नव धनाढ्य वर्ग उभर चुका है। शहरों में गलत तरीके से पैसे कमाकर पुराना जमींदार वर्ग नए सिरे से अपने पैसे और ताकत के बल पर गांवों में फिर अपनी नई शक्ति के साथ स्थापित हो चुका है।

पुराने शोषकों का स्थान नए शोषकों ने ले लिया है। आजादी के बाद गांवों में जो नया राजनीतिक नेतृत्व उभरा है वह उन्हीं जमींदारों और रियासतदारों द्वारा निर्मित है जो जनता के प्रतिनिधि बनकर पंचायत, पौरसभा, विधानसभा तथा संसद पहुंचकर ग्रामीण जनता के भाग्य-विधाता बन बैठे हैं। पहले सूदखोर महाजन गरीब किसानों तथा मजदूरों के लिए ऋणदाता थे, अब उनकी जगह बैंकों से गरीब किसानों को ऋण दिलाने वाले बिचौलियों और ऋण पास करने वाले अफसरों और बाबुओं ने ले ली है।

किसानों को ये सूदखोर भी दस रुपये की जगह आठ रुपये ही देते थे और ये नए रिश्वतखोर बाबू भी उन्हें पास किए गए ऋण का एक भाग काटकर ही पैसा देते हैं। सूदखोरी का सिलसिला आज भी जारी है। बेगारी और बंधुआगिरी खत्म हो गई है परन्तु बंटाईदारों के रूप में अब भी दूसरे रूप में उसका सिलसिला चल रहा है। धर्म और जातिवाद का रौद्र रूप आज भी हमारे समाज में व्याप्त है। दहेज प्रथा, साम्प्रदायिकता, क्षेत्रियतावाद, धार्मिक कूपमंडूकता, नस्लवाद जैसी बुराइयां आज भी अजगर की तरह समाज को निगलने के लिए मुंह खोले हुए हैं। आज भी इन किसानों तथा मजदूरों की स्थिति जस की तस बनी हुई है। आज भी इन्हें दो वक्त की रोटी मुश्किल से मिलती है। उच्च शिक्षा, बेहतर जीवन की परिकल्पना इनके लिए स्वप्न जैसा है। आज भी इनके बच्चे प्राथमिक शिक्षा से वंचित रह जाते हैं।

यह कहने की आवश्यकता नहीं कि आज जब भारतवर्ष का पूरी दुनिया में अलग स्थान है, विज्ञान के क्षेत्र में आये दिन नई-नई उपलब्धियां अर्जित कर रहा है, लोग चांद और मंगल ग्रह पर कदम रख चुके हैं, वहीं गांव में निवास करने वाले किसान तथा उनके परिवार भीषण संकट में हैं। भूमंडलीकरण और उदारीकरण के दौर में किसानों की स्थिति अत्यंत खराब हो गई है। इस पर भी पूरी दुनिया में छायी आर्थिक मंदी ने किसानों की कमर तोड़ कर रख दी है।

इस आर्थिक मंदी का प्रभाव वैसे तो पूरी दुनिया पर पड़ा है परंतु इससे ज्यादा प्रभावित गरीब किसान ही हुए हैं। जिस मंदी के कारण किसानों की स्थिति इतनी दयनीय है उस मंदी के प्रभाव को प्रेमचंद ने आज से करीब आठ दशक पहले ही भांप लिया था। इस मंदी के कारण जहां किसान और मजदूर गरीब होते जा रहे हैं, वहीं पूंजीपति एवं बड़ी-बड़ी कंपनियों पर लक्ष्मी की बारिश हो रही है। आये दिन किसान कर्ज से तंग आकर आत्महत्या कर रहे हैं।

इनके आत्महत्या करने के पीछे मुख्य कारण हैं- गरीबी, अशिक्षा, राजनीतिक तथा सामाजिक व्यवस्था। परिणामत: देश के अनेक राज्यों के किसान गरीबी से तंग आकर आत्महत्या कर रहे हैं। मौजूदा दौर में इन किसानों की स्थिति अत्यंत भयावह है क्योंकि उदारीकरण-निजीकरण तथा आर्थिक सुधार का सबसे बुरा प्रभाव इन किसानों पर ही पड़ रहा है।

आज पूरी दुनिया कोरोना वायरस संक्रमण के दौर से गुजर रही है। दुनिया का ऐसा कोई देश नहीं है जहां पर इस महामारी ने तांडव न मचाया हो। चारों तरफ लाशें विद्यमान हैं। पूरी दुनिया इस महामारी से परेशान है। वहीं कुछ लोग ऐसे हैं जो इस विपत्ति के समय में भी अपनी औकात से बाज नहीं आता। मजबूत कमजोर को दबाने में लगा हुआ है, बड़ी मछली छोटी मछली को निगलने में तत्पर है।

आज पूरी दुनिया के सामने विश्व आर्थिक मंदी का संकट है जो कि दिन-प्रतिदिन उग्र रूप धारण करता जा रहा है। विकसित देश तीसरी दुनिया के देशों में अपना आधिपत्य कायम करने के लिए साम-दाम-दण्ड-भेद की नीति से काम ले रहे हैं। और इसी वजह से पूरी दुनिया “तीसरे विश्वयुद्ध’ की आशंका से ग्रस्त है। ऐसी स्थिति में प्रेमचंद का साहित्य मनुष्य को लड़ने की शक्ति देता है ।

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