
।।गुरबत इक रोज।।
लिखने बैठा जो गरीबी का ग्लैमर
तो देखा, कलम की रवानी में आंसू!
रह गई धरी ख़्वाहिश..
खिलखिलाने की गुरबत पर-
हाशिए पर आंसू!
हर काफिये पर आंसू!!
बहुत था शौक देखने को,
करीब से गरीबी।
फिर इक रोज-
खुद मिलने वो घर आई।
छा गया घर में, मरघट सा सन्नाटा…
चेहरा कहां छुपाए, अश्कों में सना आटा
गूंथती हुई गैरत की नमी, उंगलियों से छूटता बेलन
फिर तो रोटियों के हर एक
निवाले में आंसू!!
सुबकने लगा है सेंसेक्स, सिसकियों का सैलाब।
उतराती डूबती जिसमें, खिलखिलाहट का ख़्वाब।
नहीं सिक्कों का कोई सुराग…
अब भाग सके तो भाग!
तड़पती हुई सी तकिया, बिलखता हुआ बिछावन!
और पोंछता हुआ मैं,
अर्द्धांगिनी के आंसू!!!
लिखने बैठा जो गरीबी का ग्लैमर
तो देखा कलम की रवानी में आंसू!!
रह गई धरी ख़्वाहिश—
खिलखिलाने की गुरबत पर-
हाशिए पर आंसू!
हर काफिये पर आंसू..!!
आयाम – आर्थिक स्खलन
रचनाकार – श्री गोपाल मिश्र
(काॅपीराइट सुरक्षित)

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