श्री गोपाल मिश्र की रचना : ‘तपस्या इक प्रेयसी’

।।तपस्या इक प्रेयसी।।

प्रश्न पर्व
(तपस्वी)
रूपसी तेरा लावण्य पाश!
क्यूं चुरा रहा मेरे मन-चितवन को!
सृष्टि करती मेरा परिहास!
प्रेयसी तेरे घन केश-पाश!
क्यूं महका रहे मेरे मन-उपवन को
भौंरे करते मन में विलास!
रूपसी तेरा लावण्य पाश!
तेरे संवरे सुंदर अलकों को मैं,
सघन अरण्य का तृणदल कहता था।
पर आज वो कुंतल-छटा बिखराती,

सावन की परियां प्रतीत होती हैं।
तेरे सजल कटाक्ष नैनों को मैं,
सदा ही कहता था मदिरा -कुंड
छलके जिनके शूद्र प्यालों से
प्रेम के नाम, बस निशा-निमंत्रण!
पर आज लगतीं ये मानस-गंगा सी
नेत्र-अवरोहिणी क्षीर-सरिता
खिलती जिसके उर पर मेरे मन की –
प्रेम-संजीवनी मानस-नीरजा
सुरभित करती तेरा उच्छवास।
रूपसी तेरा लावण्य पाश!

मुखड़े के उपवन पर खिलता
रक्तिम अरूण अधर-गुलाब।
झलके पंखुड़ियों के अंदर से
रजत-शिलाओं का श्वेत मेहराब!
रूपसी के वस्त्रों के सिकुड़न में –
सिमट रही हैं चन्द्र-रश्मियां

मस्तक पर उभरे प्रस्वेद-कणों में –
झिलमिल करतीं हेम-दीप्तियां!
यह तन-परिवर्तन नारी! कि मन: परावर्तन?
कैसा किया नूतन श्रृंगार?
क्या बरस गयी थी इधर कभी
नभ-गंगा की स्फटिक धार?
क्यूं जकड़ रहा मुझे मोहपाश!
रूपसी तेरा लावण्य पाश
(उत्तर पर्व)

तपस्या
न ही नभ-गंगा उतरी
ना ही छिटकी हेम-दीप्तियां
ना ही मैं लावण्यवती हुई
कहां किया मैंने श्रृंगार?
प्रक्षालित हुई मैं प्रेम-पल्लवन से
नहा गई तेरी दृष्टि आभा में

सौंदर्य-प्रसविनी ये तेरी अंखियां हैं
जो स्वयं बनीं मेरा अलंकार!
स्वागत में लहराता हवा का आंचल
वक्ष पर करते कुंतल विहार !
मैंने पहनी तेरी गीतांजलि
निकाल फेंक वह मुक्ता हार!
मेरे तन से छिटकता दिव्य प्रकाश!
प्रियतम तेरे तप का विकास।

मेरा नैन-नीर जब ओस बन कर
गालों पर आ ठहर गया।
लगा झलकने हर झिलमिल कण में
तेरा मुखड़ा कुछ नया नया।
सिरजा तुमने जो अध्यात्म-कोष
वर्षों के तप से, संयम से
वह धन पाया मैंने ओ प्रियतम!
मात्र तुम्हारे दर्शन से।

तुम निरखो मुझे, मैं देखूं तुमको –
पर टूटे न कभी संयम की रेखा
बस यही है विकर्षण, मेरे आकर्षण का-
सबने देखी पुजारिन! पूजा किसने देखा?
मैं प्रसव हूं प्रियतम, तेरी पूजा की
तुम नहीं, तो मेरा आशय क्या!
मैं तेरी तपस्या, हे दिव्य तपस्वी!
मैं तुझमें प्रिय! फ़िर परिचय क्या!
यूं चिर समर्पिता रहे कौमार्य
पर चिर प्रतीक्षित रहे साहचर्य!
और चिर सुरक्षित रहे ब्रम्हचर्य!
तम का सूरज में हो विलय
तम का सूरज में हो विलय!!
कुछ ऐसा हो अपना सहवास!
प्रियतम तेरे तप का विकास!
प्रियतम तेरे तप का विकास।

(साहित्यकार, फिल्म पटकथा लेखक, गीतकार व शिक्षक)

आयाम : अध्यात्म – अभिसार
रचनाकार : श्री गोपाल मिश्र
(काॅपीराइट सुरक्षित)

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