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श्री गोपाल मिश्र की रचना : विद्रोह की पूर्व संध्या

।।विद्रोह की पूर्व संध्या।।

जरा देख लो मेरे जां-नशीं,
ऐ हिंद के सुल्तान
बामुलाहिजा होशियार!
मैं अक्स-ए-हिंदुस्तान
देखो! मेरी शक्ल पर खिंचा यह नक्शा।
बड़े तरतीब से खींचा है जिसे वक्त के खंजर ने।
गालों को चीर कर उभरी हैं, देश की सीमायें
और आंखों के उद्गम से निकली है…
तुम्हारी पावन गंगा।
दूर-दूर तक नहीं कहीं
अक्षांश या देशांतर
फिर भी नजर आता है कहीं
रेखाओं का मध्यांतर।
तुम कहते हो…
अमीरी है गरीबी है,
जंग है अमन है,
भूख है ऐश है,
कभी मंदिर है मस्जिद है,
कभी-कभी बाढ़ भी अकाल भी!
लेकिन…
जम्हूरियत की सदा क्या है…?
उसके होंठों के सरहद पर,
एक तूफानी शोर है और यही शोर!
तुम्हें कभी सोने नहीं देता।
कैसे जालिम हो तुम!
जो अपनी सुहानी नींद के लिए…
दबा देना चाहते हो अवाम के शोर को
तमंचों के शोर में…
नहीं जानते कमजर्फ!
कि यह शोर रूहानी है…
महज मानसूनी नहीं!
हर खाश-ओ-आम की जज्बात से बावस्ता यह तूफान…
आज जर्रा-जर्रा में है…
बच्चे की भूख में, बंदूक की रूख में;
मजदूर की हड्डी में, नोटों की गड्डी में;
बुड्ढे की सांस में, अर्थी के बांस में;
बेकारों की अर्ज़ी में, साहब की मर्ज़ी में;
बलात् के दृश्य में, बलत्कृता के भविष्य में;
दुल्हन के दहेज में, चिता की सेज में;
मंदिर के कलश में, मजहब की बहस में;
तुम्हारी सियासत में, हमारी बगावत में…
बेगम की सौत में, और?
और खुदा की मौत में…
हर कहीं, हर जगह हर लम्हा…
मेरा ही शोर गूंज रहा है…
अरे यार!
जूं तो बेशुमार है तेरे सर पर!
बस! ये बता…
कान पर कब रेंगेंगे???

आयाम – धरातल
रचनाकार – श्री गोपाल मिश्र
(काॅपीराइट सुरक्षित)

(साहित्यकार, फिल्म पटकथा लेखक, गीतकार व शिक्षक)

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