समदर्शी पंडित : गीता के प्रकाश में विश्लेषण

बाल कृष्ण आशीष जी महाराज, कोलकाता। आज कल लोग जाति आधारित मोह में पड़े हुए हैं और हर जाति के लोग अपने आप को ऊंचा दिखाने के चक्कर में दूसरों को नीचा कर समाज में विष बो रहे है जहां देश कमजोर पड़ रहा है। जिससे समाज में वैमनस्य फैलती जा रही है। भारत के लोग जितना अपने धर्म ग्रंथों से दूर होते जाएंगे उतना ही वो बुराइयां अपनाते जाएंगे। आज कर कुछ लोग विशेष रूप से गुमराह या फिर कहे तो लोभ लालच में पढ़कर विशेष कर लोग ब्राह्मण और पंडित जैसे शब्दों को लेकर अनर्गल शब्द का प्रयोग करने लगे है। किंतु सच तो ये है कि यह एक गूढ़ रहस्य है, जिसे ना तो ब्राह्मण या फिर कहे तो पंडित स्वीकार कर रहे है और ना ही अन्य कर्म जाति के लोग, इसका महज एक कारण है गीता जी का सही रूप से पठन – पाठन न करना। जहां इस धरा के तमाम समस्या का समाधान है।

भगवद्गीता भारतीय आध्यात्मिक ग्रंथों में एक अद्वितीय ग्रंथ है। जिसमें जीवन के गूढ़ रहस्यों को अत्यंत सरल और प्रभावी रूप में प्रस्तुत किया गया है। श्रीकृष्ण ने इस ग्रंथ में अर्जुन को उपदेश देते हुए समदर्शिता की महत्ता पर विशेष बल दिया है। गीता के अनुसार, सच्चा ज्ञानी वही होता है जो विद्या और विनय से संपन्न होता है तथा समस्त जीवों में एक ही परमात्मा का दर्शन करता है। यह विचार समता, दया और समानता की पराकाष्ठा को प्रकट करता है।

समदर्शी का तात्पर्य : समदर्शी का अर्थ है – जो सभी प्राणियों को समान दृष्टि से देखता हो। श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 5 के श्लोक 18 में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं:
“विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि। शुनि चैव श्वपाके च पण्डिता: समदर्शिन:।।”
अर्थात जो विद्या और विनय से सम्पन्न ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ते और चांडाल में एक ही परमात्मा का दर्शन करता है, वही सच्चा ज्ञानी (पंडित) है।
इस श्लोक में भगवान ने बताया कि समदर्शिता ही सच्चे पंडित की पहचान है। जाति, धर्म, सामाजिक स्थिति या किसी भी बाहरी पहचान के आधार पर भेदभाव करने वाला व्यक्ति सच्चा ज्ञानी नहीं हो सकता।

भारतीय आध्यात्मिक परंपरा में समदर्शिता को अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। उपनिषदों, वेदों और अन्य ग्रंथों में भी इस विषय पर गहन चर्चा की गई है। यह दृष्टिकोण केवल आध्यात्मिकता तक सीमित नहीं है, बल्कि यह सामाजिक समरसता और सौहार्द का भी मूलमंत्र है।
समदर्शिता का तात्पर्य केवल सैद्धांतिक ज्ञान से नहीं है, बल्कि इसे व्यवहार में अपनाना भी उतना ही आवश्यक है। इसका अर्थ यह नहीं कि हम सबको समान कार्यों में संलग्न करें, बल्कि इसका अभिप्राय यह है कि हम प्रत्येक जीव को ईश्वर का अंश मानें और उसके प्रति सम्मान और करुणा का भाव रखें।

1) सामाजिक समरसता : समाज में जाति, धर्म और आर्थिक स्थिति के आधार पर भेदभाव किया जाता है। यदि गीता के इस सिद्धांत को अपनाया जाए, तो समाज में समानता, प्रेम और सौहार्द की भावना विकसित होगी।

2) धार्मिक सहिष्णुता : जब व्यक्ति समदर्शिता का अभ्यास करता है, तो वह यह समझता है कि सभी धर्म एक ही सत्य की ओर ले जाते हैं। इससे धार्मिक कट्टरता का नाश होता है।

3) मानवता की सेवा : समदर्शी व्यक्ति सभी प्राणियों को समान मानकर उनकी सेवा करता है। वह न केवल मनुष्यों, बल्कि प्रकृति और पशु-पक्षियों के प्रति भी प्रेमभाव रखता है।

4) अहंकार का नाश : जब व्यक्ति यह समझ जाता है कि सभी में एक ही आत्मा का वास है, तो उसका अहंकार समाप्त हो जाता है। वह स्वयं को दूसरों से श्रेष्ठ नहीं समझता और सच्चे ज्ञान की ओर अग्रसर होता है।
समदर्शिता और आधुनिक समाज पर एक नजर डालें तो वर्तमान समय में जब समाज विभिन्न प्रकार के मतभेदों और विभाजन से ग्रसित है, तब गीता का यह सिद्धांत अत्यंत प्रासंगिक हो जाता है। यदि इसे व्यवहार में लाया जाए, तो विभिन्न सामाजिक समस्याओं का समाधान संभव है।

1) जातिवाद का अंत : जातिगत भेदभाव आज भी समाज में व्याप्त है। यदि हम सभी को समान दृष्टि से देखें, तो इस समस्या का निवारण संभव हो सकता है।

2) धार्मिक संघर्षों का समाधान : विभिन्न धर्मों के अनुयायियों के बीच वैमनस्य बढ़ता जा रहा है। यदि हम समदर्शिता को अपनाएं, तो धार्मिक सौहार्द स्थापित किया जा सकता है।

3) अंतरराष्ट्रीय शांति : विभिन्न देशों के बीच मतभेद और युद्ध की स्थिति बनी रहती है। यदि सभी देशों के शासक समदर्शिता को आत्मसात करें, तो विश्व में शांति संभव हो सकती है।
गीता के इस सिद्धांत को अपनाने के लिए हमें अपने दृष्टिकोण और व्यवहार में परिवर्तन लाना आवश्यक है। इसके लिए निम्नलिखित उपाय सहायक हो सकते हैं :

1) स्वाध्याय और ध्यान : गीता, उपनिषदों और अन्य आध्यात्मिक ग्रंथों का अध्ययन करने से समदर्शिता का भाव विकसित होता है।
2) समानता की भावना विकसित करें : किसी भी व्यक्ति के प्रति पूर्वाग्रह न रखें और सभी के साथ समान व्यवहार करें।
3) सेवा और परोपकार : निस्वार्थ भाव से समाज की सेवा करें और जरूरतमंदों की मदद करें।
4) अहंकार का त्याग करें : स्वयं को दूसरों से श्रेष्ठ मानने की प्रवृत्ति का त्याग करें और आत्मा की समानता को समझें।

श्रीमद्भगवद्गीता का यह संदेश कि सच्चा ज्ञानी वही है जो सभी में समानता देखता है, न केवल एक आध्यात्मिक सिद्धांत है, बल्कि यह सामाजिक सुधार का भी एक महत्वपूर्ण आधार है। यदि इस विचार को आत्मसात किया जाए, तो समाज में समरसता, शांति और प्रेम की स्थापना हो सकती है। जाति, धर्म, भाषा, रंग और आर्थिक स्थिति के भेदभाव से ऊपर उठकर यदि हम सभी को समान दृष्टि से देखें, तो यही सच्ची समदर्शिता होगी। भगवान श्रीकृष्ण के इस उपदेश को जीवन में अपनाकर ही हम एक श्रेष्ठ और आदर्श समाज की स्थापना कर सकते है।

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