श्रीराम पुकार शर्मा, कोलकाता। “मन चंगा तो कठौती में गंगा” यह तभी संभव हो सकता है, जब हृदय में समस्त चरचरों के लिए प्रेम-भाव हो, सहिष्णुता हो व उनकी उन्नति का विचार हो। समस्त सामाजिक और सांसारिक विभेदता से सर्वदा ऊपर हो । ऐसी ही सर्वहितार्थ भावना की पावन अमृत धारा को प्रवाहित करने वाले थे, संत शिरोमणि रविदास जी थे, जिन्हें ‘रैदास’ के नाम से भी जाना जाता है। संत शिरोमणि रविदास जी ने भगवान् को तत्कालीन तथाकथित श्रेष्ठजातियों की बंद चारदीवारी से बाहर निकाल कर उन्हें सबके लिए सिद्ध किया।

उन्होंने अपने आचरण तथा व्यवहार से प्रमाणित कर दिया है कि मनुष्य अपने जन्म, रूप-रंग तथा कार्य-पेशे के आधार पर नहीं, वरन् अपने विचारों की श्रेष्ठता, कार्यों की पवित्रता, सामाजिक हितार्थ जन्य भावनाओं के आधार पर ही महानता को प्राप्त कर सकता है। ऐसे ईश्वरीय कारी-इच्छा को प्रसारित करने वाले देव सदृश युगपुरुष संत शिरोमणि रविदास या रैदास जी का धरती पर अवतरण सिरगोवर्धनपुर, वाराणसी में माता कालसा देवी और बाबा संतोख दास जी के घर-आँगन में माघ पूर्णिमा सुदी, 1433 (सन् 1377) को हुआ माना जाता है । तथ्य प्रसिद्ध है –

चौदह सौ तैंतीस कि माघ सुदी पन्दरास ।
दुखियों के कल्याण हित प्रगटे श्री रविदास ।

रविदास अपने पिता के साथ ही बचपन से ही अपनी पैतृक पेशा चमड़े के जूते बनाने और मरम्मत करने के कार्य को ही अपना जीविका आधार बनाया। वे बचपन से ही ईश-भक्त थे। पर इसके लिए उन्हें उच्च जाति का भीषण विरोध और प्रताड़ना को भी सामना करना पड़ा था । फिर भी उन्होंने लोगों को परस्पर प्रेम-भावना अपनाने के महामन्त्र को ही सिखाया।

“प्रेम पंथ की पालकी, रैदास बैठियो आय।
सांचे सामी मिलन कूँ, आनंद कह्यो न जाय ।।”

भगवान के प्रति रविदास की भक्ति पूरी तरह से उन्हें पारिवारिक पेशा से न जुड़ने दे रहा था। अतः पारिवारिक जिम्मेवारियाँ देने के लिए उनके माता-पिता ने उनका विवाह अल्पायु में ही लोना देवी नामक कन्या के साथ कर दिया। कालांतर में रविदास जी को एक पुत्ररत्न की भी प्राप्ति हुई थी, जिसका नाम उन्होंने विजयदास रखा था ।

रविदास जी को भगवान को पूजने, उच्च जाति के विद्यार्थियों के जैसे ही विद्या अध्ययन करने और सामाजिक व्यवस्था खराब करने के नाम पर काशी के रुढ़ीवादी ब्राह्मणों ने उन्हें बहुत प्रताड़ित किया। तथाकथित कुलीन ब्राह्मणों ने इनकी शिकायत राजा से भी की थी पर रविदास इन प्रतिकारों से विमुख ईश्वरीय आराधना में पूर्वरत ही बने रहें।

“तुम कहियत हो जगत गुर स्वामी ।
हम कहियत हैं कलयुग के कामी।”

संत शिरोमणि रविदास जी मध्य कालीन जयदेव, नामदेव, गुरुनानक जैसे महान भारतीय संतों की परम्परा के अंतर्गत आते हैं। वे पहले संत कबीरदास को ही अपना आध्यात्म गुरु बनाना चाहते थे, परंतु उन्हीं के परामर्श पर उन्होंने महान गुरु स्वामी रामानन्द जी का आशीर्वाद प्राप्त कर उनका शिष्यत्व ग्रहण किया। अपने गुरु भाई संत कबीरदास की भाँति ही उन्होंने भी जाति-प्रथा के उन्मूलन हेतु प्रयासरत्त रहते हुए तत्कालीन भक्ति आन्दोलन में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया था।

वे एक ऐसे समाज की स्थापना करना चाहते थे, जिसमें लोभ-लालच और दरिद्रता की कोई गुंजाइश न हो, जिसमें मनुष्य-मनुष्य के बीच कोई भेद-भाव न हो, बल्कि जिसमें मानवता की प्रतिष्ठा हो । अतः उन्होंने अपने सरल नीतिगत वचनों के द्वारा लोगों को सर्वदा आत्मज्ञान, एकता, भाईचारा आदि का पाठ पढ़ाया । उनका कहना था –

जाति-जाति में जाति हैं, जो केतन के पात ।
रैदास मनुष ना जुड़ सके, जब तक जाति न जात ।।”

कालांतर में उनकी अनुपम महिमा से प्रभावित होकर कई राजा और रानियाँ इनके शिष्यत्व को प्राप्त कर इनके द्वारा प्रशस्त भक्ति मार्ग को अपनाए। रविदास जी बहुत ही परोपकारी तथा दयालु स्वभाव के व्यक्ति थे। साधु-सन्तों की सेवा-सहायता करने में उन्हें विशेष आनन्द की अनुभूति होती थी। वे अक्सर मूल्य लिये बिना ही उन्हें जूते दे दिया करते थे। उनके इस दानी प्रवृति के कारण उनके माता-पिता उनसे अप्रसन्न ही रहते थे।

नतिजन उनसे क्षुब्ध होकर उनके पिता ने उन्हें पारिवारिक संपत्ति से ही सपत्नी अलग कर दिया। पर रविदास जी बिना किसी रंज-द्वेष के ही ईश्वर के भरोसे एक साधारण घर बनाकर रहने और व्यवसाय करने लगे। अपना समय ईश्-भक्ति-भजन तथा साधु-सन्तों के सत्संग में व्यतीत करने लगे । उनका विश्वास था कि राम, कृष्ण, करीम, राघव आदि सब एक ही परमेश्वर के विविध नाम हैं । उनका मानना था कि वेद, कुरान, पुराण आदि ग्रन्थों में एक ही परमेश्वर का गुणगान किया गया है ।

कृस्न, करीम, राम, हरि, राघव, जब लग एक न पेखा।
वेद कतेब कुरान, पुरानन, सहज एक नहिं देखा ॥
चारो वेद के करे खंडौती। जन रैदास करे दंडौती ।।”

संत रविदास का विश्वास था कि ईश्वर की भक्ति के लिए सदाचार, परहित-भावना तथा सद् व्यवहार का पालन करना नितांत आवश्यक होता है । अतः उन्होंने लोगों में अभिमान त्याग कर दूसरों के साथ निर्मल व्यवहार, विनम्रता और शिष्टता के गुणों का विकास करने पर बहुत अधिक बल दिया । उनकी मृदुल वाणी का इतना व्यापक प्रभाव पड़ा कि समाज के प्रायः सभी वर्गों के लोग उनके प्रति श्रद्धालु बन गये । अपने एक भजन में उन्होंने कहा है –

कह रैदास तेरी भगति दूरि है, भाग बड़े सो पावै ।
तजि अभिमान मेटि आपा पर, पिपिलक हवै चुनि खावै ।”

संत रविदास जी की रचनाओं में भगवान के प्रति प्रेम की साफ़ झलक दिखाई देती है । उन्होंने सामाजिक और आध्यात्मिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कई बड़े बड़े कार्य किये थे । अतः आम लोग तो उन्हें अपने ‘मसीहा’ के रूप में मानते हैं । अनेक लोग उन्हें तो भगवान की तरह पूजते थे, और आज भी पूज रहे हैं ।

वर्णाश्रम अभिमान तजि, पद रज बंदहिजासु की ।
सन्देह-ग्रन्थि खण्डन-निपन, बानि विमुल रैदास की ।”

संत शिरोमणि रविदास जी ने राजा पीपा, राजा नागरमल को भी ज्ञान का मार्ग दिखाते हुए अपने अनुयायियों के रूप उन्हें दीक्षित किया था। उनको ही भक्त मीराबाई के आध्यात्मिक गुरु के रुप में माना जाता है। मीराबाई के दादा जी संत रविदास के प्रबल अनुयायी थे। अपने साथ अक्सर बालिका मीरा को भी संत रविदास जी के पास ले जाया करते थे । मीरा बचपन से ही संत रविदास से बेहद प्रभावित थी और बाद में उनके शिष्यत्व को प्राप्त कर उनकी बहुत बड़ी अनुयायी बनी । अपने गुरु के सम्मान में मीराबाई ने कुछ पंक्तियों में कही हैं –

गुरु मिलीया रविदास जी दीनी ज्ञान की गुटकी,
चोट लगी निजनाम हरी की महारे हिवरे खटकी ।”

संत शिरोमणि भगवान रविदास की मृत्यु के बारे में कुछ लोगों का कहना है कि उनकी ह्त्या हुई थी, जबकि उनके अनुयायियों का मानना है कि उनके गुरु जी की मृत्यु प्राकृतिक रुप से 120 या 126 साल की अवस्था में सन् 1540 में वाराणसी में हो गयी थी।

संत शिरोमणि रविदास जी के अनुयायी और भक्त उनकी जयंती ‘माघ सुदी पन्दरास’ के अवसर पर वाराणसी के सीरगोवर्धनपुर में बने उनके मंदिर को भव्य रूप में सजाते हैं । पूरे विश्व से ही उनके भक्त और अनुयायी उनकी जयंती-उत्सव में सक्रिय रुप से भाग लेने के लिए वाराणसी आते है। संत श्री रविदास महाराज जी के 40 पद सिखों के धर्म-ग्रन्थ ‘गुरु ग्रंथ साहब’ में भी मिलते हैं, जिसका सम्पादन स्वयं गुरु श्री अर्जुनसिंह देव जी महाराज ने किया था।

संत रविदास जी को बचपन से ही कई अलौकिक शक्तियाँ प्राप्त थीं । कहा जाता है कि एक बार पाठशाला में पढ़ने के दौरान पंडित शारदानंद के पुत्र उनके मित्र बन गये । एक दिन दोनों लोग एक साथ लुका-छिपी खेल रहे थे, पर अंधेरा हो जाने के कारण उस दिन का खेल पूरा नहीं हो सका था । दोनों ने उस खेल को अगले दिन सुबह भी जारी रखने का फैसला कर अपने-अपने घर लौट गए।

पर अगली सुबह रविदास जी अपने उस मित्र की मौत की खबर सुनकर हक्का-बक्का रह गये। उसके बाद रविदास जी अपने मृत मित्र से कहा कि ‘उठो मित्र ! यह सोने का समय नहीं है, यह तो लुका-छिपी खेलने का समय है । गत कल का अधूरा खेल को पूरा करना है ।’ और रविदास के ये शब्द सुनते ही उनका मृत मित्र फिर से जी उठा । इस आश्चर्यजनक पल को देखकर वहाँ पर उपस्थित सभी लोग चकित रह गये । सभी रविदास जी के आगे नत मस्तक हो गए ।

एक विशेष पर्व के अवसर पर पड़ोस के लोग गंगा-स्नान के लिए जा रहे थे । रैदास के शिष्यों में से एक ने उनसे भी चलने का आग्रह किया, तो वे बोले, गंगा-स्नान के लिए मैं अवश्य चलता, किन्तु मन तो यहीं ही लगा रहेगा, तो ऐसे पुण्य कैसे प्राप्त होगा ? मन सही है, तो इस कठौते के जल में ही गंगास्नान का पुण्य प्राप्त हो सकता है । कहा जाता है कि इस प्रकार के व्यवहार के बाद से ही कहावत प्रचलित हो गयी कि “मन चंगा तो कठौती में गंगा।” एक अन्य घटना के अनुसार एक बार पंडित गंगाराम हरिद्वार में कुम्भ उत्सव में शामिल होने जा रहे थे l। वे संत रविदास जी से मिले।

तब उन्होंने उन्हें एक सिक्का देते हुए कहा कि ‘यह सिक्का आप गंगा माता को दे दीजियेगा, यदि वह इसे आपके हाथों से स्वीकार करें।’ पंडित गंगाराम जी ने उसे बड़ी सहजता से ले लिया और हरिद्वार चले गये। गंगा में स्नान आदि कर वापस अपने घर लौटने लगे। कुछ दूरी तय करने के बाद उन्हें स्मरण हो आया कि वह कुछ भूल रहे हैं। दुबारा गंगा के किनारे वापस गये और जोर से चिल्लाए, ‘माता ! तुम रविदास का यह सिक्का स्वीकार करो।’

और सचमुच माता गंगा प्रकट हुई और उसके हाथ से सिक्के को स्वीकार की। बदले में माँ गंगा ने अपने भक्त संत रविदास जी के लिए एक सोने का कँगन पंडित गंगा राम को प्रदान की। पंडित गंगा राम के मन में धूर्तता का समावेश हो गया और उस कँगन उसने अपनी पत्नी को दे दिया। बाद में पंडित गंगाराम की पत्नी ने उस कँगन को राजा-रानी को दिखाया । रानी ने उस कँगन का जोड़ा लाने को कहा, अन्यथा पंडित को मौत सजा दे दी जाएगी।

अब तो पंडित को काटो तो खून नहीं की स्थिति हो गई। आज वह अपनी करनी पर बहुत शर्मिंदा था, क्योंकि उसने भोले-भले संत रविदास जी को धोखा दिया था । वह तुरंत ही संत रविदास जी से जा मिला। उन्हें अपनी धूर्तता को बताते हुए अपने जीवन-रक्षा का निवेदन किया। पर संत रविदास जी ने शांत और मधुर स्वर में उससे कहा कि “मन चंगा तो कठौती में गंगा।” और एक मिट्टी के बर्तन में जल भर कर माँ गंगा से पूर्व प्रदत कंगन का जोड़ प्रदान करने का निवेदन किया।अद्भुत घटना घटी।

उस जल भरे मिट्टी के बर्तन में माँ गंगा प्रकट हुई और ठीक पहले की तरह ही एक दूसरा कँगन अपने भोले-भले भक्त रविदास को प्रदान की, जिसे बिना कोई गर्व के ही ख़ुशी-ख़ुशी उस पंडित को दे दिया। संत रविदास जी की इस दैवीय चमत्कार को देखकर पंडित अपना अभिमान त्याग कर सदैव के लिए उनका का भक्त बन गया। संत शिरोमणि रविदास का सम्पूर्ण जीवन ही दैवीय चमत्कारों से परिपूर्ण है। जिसे देख कर लोग उनके सम्मुख नत मस्तक हो जाया करते थे और उनके भक्त बन जाया करते थे। संत रविदास जी सदैव यही मानते और लोगों को बताते रहे –

मन ही पूजा मन ही धूप।
मन ही सेऊँ सहज सरूप ।।

श्रीराम पुकार शर्मा

श्रीराम पुकार शर्मा
ई-मेल सम्पर्क सूत्र – [email protected]

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