बेचैन कलम : मन न पाए ठहराव…

प्रफुल्ल सिंह “बेचैन कलम”, लखनऊ । मन स्थिर कैसे हो सकता है! जो एक है तो उसी का कोई पारावार नहीं। ठहरता ही नहीं। उसकी गति के आगे प्रकाश भी धीमा है। प्रकाश तो आद्योपान्त है किन्तु मन स्मृतियों का अमिट छाप। व्यक्ति के जनमते ही चुपचाप कुण्डली मारे बैठा रहता है और समय आते ही उछलकर कस लेता है। भींच लेता है। उसकी जकड़न से बचने का सामान्यतः तो कोई उपाय नहीं।

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प्रफुल्ल सिंह “बेचैन कलम”
युवा लेखक/स्तंभकार/साहित्यकार

किन्तु गोपियों के लिए मन दस-बीस हों तो भी क्या! वे दस-बीस भी एक ही में रह जाते। मन तो मनन है। सतत् है। और जब यह एक ही मनन में उतर जाय तो पुनः और क्या बचेगा! दस-बीस भी एक ही के हो जाते। ज्यों अनेकानेक नदियाँ बस उसी एक सागर की हो जाती हैं। गोपियाँ मन के भरोसे तो हैं भी नहीं। कहती भले हैं। क्योंकि उद्धव मन की ही बात कहने जो आये हैं। गोपियाँ तो हृदय वाली हैं। मन के भी पार। बस उद्धव को मन कहकर समझा देती हैं। मन तो तर्कगामी है। होना भी चाहिए उसे। उसका यही स्वभाव है। किन्तु हृदय–वह तो मन के ऊपर की छलांग है। एक सहज अतिक्रमण। भेद भले बहुत सूक्ष्म हो किन्तु अन्तर बहुत गहरा व बड़ा है।

गोपियाँ हृदय की बात जानती हैं। वे अपनी इसी समझ में सन्तुष्ट हैं। उन्हें ज्ञान से क्या अभिप्राय। उन्हें मुक्ति से क्या प्रयोजन! उन्हें आत्मा के रस से क्या सरोकार। उन्हें ब्रह्म का अन्वेषण ही क्यों करना। वे तो सहज संगति हैं। कृष्ण की संगति। वे चित्त की अन्तिम अवधान हैं। पुनः अन्तर क्या कि कृष्ण परमात्मा हैं कि नहीं। गोपियाँ कृष्ण के प्रेम में इसलिए थोड़े न हैं कि कृष्ण कोई अवतारी पुरुष हैं। कि कृष्ण प्रायः चमत्कृत करते हैं। अपितु बात बस इतनी है कि गोपियों को चमत्कार व अवतार में कोई रस है ही नहीं। कोई गोपी तो कृष्ण की माँ है। कोई सखी। कोई प्रेमिका। सबकी अपनी अपनी निर्मिति। कृष्ण से निर्मिति।

कृष्ण इन सभी नामों से सन्तुष्ट हैं। वे अपनीओर से कोई अड़चन देते ही नहीं। गोपियाँ कृष्ण के प्रेम में बस इसलिए हैं कि उन्होंने चुनाव की प्रक्रिया को नहीं चुना। वे बस हो गयीं। तब कृष्ण यदि चोरी भी करें तो भी प्रिय। चमत्कार दिखाएँ तो भी प्रिय। छोड़ जाँय तो भी प्रिय। उनकी उलाहना भी बस उनकी है। किसी दूसरे के लिए उसमें रत्ती भर अवकाश नहीं। गोपियों के लिए कृष्ण कोई सामूहिक उत्सव हैं। उनमें आपसमें कोई प्रतिस्पर्धा नहीं। एक दूसरे से कोई इर्ष्या नहीं। कृष्ण उनके अपने हैं। और जब अपने हो ही गये तो किसी दूसरे के भी होंगे, इस बात की भी उन्हें कोई परवाह नहीं। अतएव कृष्ण जैसे भी हैं, आपन्न हैं। कृष्ण तो गोपियों के अन्तर्वैश्विक हैं।

कृष्ण आये। गोपियों के हो गये। कृष्ण गोपियों की चेतना में बस गये। उनकी आत्मा में रह गये। उनकी स्वास में बस कृष्ण की धौकनी चलती रही। उनके हृदय में कृष्ण की छवि छप गयी। उनके मन में कृष्ण का ही चिन्तन रहा। और उनकी देह…! वह तो कबकी छूट गयी। कोई देह के तल पर गोपी हो ही नहीं सकता।

गोपी का एक अर्थ छिपाने वाली भी होता है। गोपियों ने सच में कृष्ण को छुपा लिया। एक गोपी दूसरे से पूछ लेती है– कान्हा दिखा क्या? दूसरी कहती है कि उधर ही तो जा रहा था अभी। गाय पर तनकर चढ़ रहा था। गिरा भी। पहली कहती है कि अरे! कान्हा ठीक तो है न! कुछ हुआ तो नहीं उसे। दूसरी कहती जो ठीक न होता तो तू अभीतक यहाँ रह जाती!
कृष्ण जागतिक उत्सव हुए। गोपियों ने उन्हें असीसा भी। पुचकारा भी। छेड़ा भी। अँकवार भी दिया। उनकी चोटी भी पकड़ी। वे रोयी भी। टूटीं भी। कृष्ण जाकर भी नहीं गये।

कृष्ण जो आ जाँय तो जाते नहीं! उनके प्रत्यक्ष होने, न होने में कोई अन्तर नहीं। सम्भवतः गोपियाँ ही मीरा की मार्ग हैं। और कोई एक गोपी महागोपी हो जाती है। वह राधा होती है।
मन के अनेकपद हैं। किन्तु कृष्ण गोपियों के मन हैं। पुनः आश्चर्य नहीं कि गोपियाँ बस एक ही मन की हो गईं। और कृष्ण उनके ध्यामन्।

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