राम नवमी विशेष : रघुकुल रीति सदा चलि आई। प्रान जाहुँ बरु बचनु न जाई।।

श्रीराम पुकार शर्मा, हावड़ा । कौसल्या-दशरथ नंदन श्रीराम का अपने भाइयों समेत इस धरती पर कोई देवस्वरूप नहीं, वरन मानव रूप में ही अवतरण हुआ था। अतः प्रकृति के नियमानुसार उन्हें भी समस्त सांसारिक-मानवीय क्रिया-कलापों की पूर्णता के उपरांत अपने अनुजों समेत निर्वाण स्वरूप अपने भौतिक शरीर को त्यागना ही पड़ा था। जैसा कि अन्य सभी प्राणियों के साथ होता आया है। एक-एक करके सभी भाई सरयू नदी में अंतर्धान हो गए। पर उनकी कीर्तियाँ अमरत्व को प्राप्त कर हो गई हैं। जो युगों-युगों तक गायी और सुनी जाएँगी। व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र के प्रति श्रीराम के मर्यादित श्रेष्ठ आचरण, कर्म और विचारों के कारण उन्हें जगत में ‘पुरुषोत्तम’ की संज्ञा प्रदान की गई है। उन्होंने कभी भी, कहीं भी अपने जीवन में मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया। उनका यह उच्चादर्श केवल गुरू से लेकर मित्र तक या फिर राजा से लेकर सेवक तक ही सीमित न रहा, बल्कि अपने कट्टर शत्रुओं के प्रति भी उनका मर्यादित व्यवहार यथावत ही रहा है।

श्रीराम रघुकुल के वंशज थे, जिस कुल में सत्यता, दयालुता, वीरता, साहसिकता, त्याग, बलिदान, परोपकारिता आदि अनन्त गुण उनके उज्ज्वल मणिरत्न सदृश रहे थे। अपनी इन्हीं चारित्रिक विशिष्ठ्ताओं के आधार पर श्रीराम के पूर्वजों ने समयानुसार इस लोक में कई प्रमाणिक आदर्श भी स्थापित किये थे। कहा भी जाता है कि अपने पूर्वजों के विचार और कर्मों का आंशिक या पूर्ण प्रभाव उनके वंशजों में भी परिलक्षित हुआ करते हैं। शायद इसी आधार पर श्रीराम के चरित्र में भी उन विविध वैशिष्ठ्यों का एकत्र समावेश होना परमोचित ही था।

महाराज दशरथ द्वारा प्रदत्त दोनों वरदानों के बदले में महारानी कैकेयी ने उनसे राम के लिए चौदह वर्षों के लिए वनवास और भरत के लिए राजगद्दी की माँग कर ली। साथ ही साथ वह अपने पति महाराज दशरथ के मन में राम के प्रति विशेष मोह को देखती हुई उन्हें ललकारती भी है कि ‘यदि आपको यह वरदान देना स्वीकार न हो, तो आप अपने उन दोनों वचनों को वापस ले लीजिये। ज्यादा से ज्यादा ‘रघुकुल’ कलंकित ही होगा न, और क्या?’ यह सुनकर कुल-मर्यादा रक्षक महाराज दशरथ व्यथित हो उठते हैं । फिर अपने कुल की रीति व मान-मर्यादा के रक्षार्थ ‘प्राण जाई पर वचन न जाई’ को ही प्रमुखता देते हुए अपने प्राण को पुत्र-शोक में त्यागना स्वीकार करते हैं, परन्तु अपने कुल की रीति को कलंकित करना उन्होंने कदापि स्वीकार नहीं किया।
‘झूठेहुँ हमहि दोषु जनि देहू। दुइ कै चारि मागि मकु लेहू॥
रघुकुल रीति सदा चलि आई। प्रान जाहुँ बरु बचनु न जाई।।’

फिर हुआ भी वही, जो विधाता ने पूर्व ही निश्चित कर रखा था। उधर राम, लक्ष्मण और सीता वन को गमन किये, और इधर महाराज दशरथ ने ऋषि श्राप के अनुकूल पुत्र-वियोग में ‘राम-राम’ करते हुए अपने प्राण त्याग दिए। पर रघुकुल की यह रीति ‘प्राण जाई पर वचन न जाई’ का पालन महाराज दशरथ तक ही सीमित नहीं रहा, अपितु अगली पीढ़ी अर्थात उनके सुपुत्र श्रीराम के द्वारा भी इसे सहर्ष ही पालन किया गया।

जब राक्षसराज रावण श्रीराम की पत्नी सीता को पंचवटी से छल से हरण कर लेता है और उन्हें समुद्र पार अपनी लंका नगरी में ले जाता है। तब पत्नी-वियोग से दुखी श्रीराम अपने अनुज श्रीलक्ष्मण सहित उनकी खोज में वन-वन भटकते हुए श्रीहनुमान के माध्यम से बानरराज सुग्रीव से मिलते हैं। सुग्रीव की दशा भी श्रीराम जैसी ही निर्वासन की ही थी। उसके अग्रज महाबली बाली ने उसे अपने पैत्रिक राज्य किष्किन्धा से मार-पीट और दुत्कार कर निष्कासित कर दिया था और उसकी पत्नी रूमा को भी बलपूर्वक अपने पास बंदी बनाकर रख लिया था। मित्र बन जाने के बाद असहायों के स्वामी श्रीराम ने अग्नि को साक्षी मानकर बानरराज सुग्रीव को प्राणपन से सहायता करने का अचूक वचन दिया।
‘सुनु सुग्रीव मारिहउँ बालिहि एकहिं बान।
ब्रह्म रुद्र सरनागत गएँ न उबरिहिं प्रान।।’

पर श्रीराम के लिए भी महाबली बाली को उसके द्वारा प्राप्त वरदान के आधार पर सीधी लड़ाई में हराना संभव न था। पर बात तो यहाँ पर भी रघुकुल रीति अर्थात ‘प्राण जाई पर वचन न जाई’ की रक्षा करने की ही थी। अतः धर्म-सिद्धांत के सर्वज्ञ होते हुए भी श्रीराम ने छिपकर बाली को मारा और सुग्रीव को दिए गए अपने ‘वचन’ का पालन किया। तत्पश्चात बानरराज सुग्रीव को किष्किन्धा का राजा बनाया। पर ‘राजा-निर्माता’ के अहंकार से दूर रहकर स्वयं नगर में प्रवेश तक न किया।

लंका युद्ध के पूर्व ही लंकेश का ईश-भक्त अनुज विभीषण अपने भ्राता लंकेश के दुत्कार और असभ्य व्यवहारों से दुखी होकर लंका को त्याग कर श्रीराम के चरणों में आ गिरा। दया के सागर श्रीराम ने अपनी शरण में आए हुए शत्रु अनुज विभीषण को न सिर्फ गले से लगाया, बल्कि उसका भावी लंकेश के रूप में अभिषेक कर उसकी रक्षा के प्रति अपने दायित्व को बढ़ा लिया। फिर लंका के युद्ध के मैदान में जब लंकेश दशानन अपने कुलद्रोही व देशद्रोही अनुज विभीषण को देखा, तब वह आग-बबूला हो गया और उसने उस पर कठिन दिव्यास्त्र का प्रयोग किया, जिसके स्पर्शमात्र से ही विभीषण के प्राण पखेरू उड़ जाते । उसका शरीर तत्क्षण क्षीण-विक्षीण हो जाता। तब भला श्रीराम द्वारा उसे लंकेश बनाये जाने के लिए दिए गए वचन का क्या होता? अतः श्रीराम ने अपनी मर्यादा के अनुकूल रघुकुल रीति ‘प्राण जाई पर वचन न जाई’ की रक्षा करते हुए विभिषण पर आगत मृत्यु के सम्मुख स्वयं को आगे कर उसके कठोर आघात को सहा, कुछ क्षण के लिए मूर्छित भी हो गए, पर उन्होंने अपने शरणागत और भावी लंकेश विभीषण की पूर्णतया रक्षा की।
‘आवत देखि सक्ति अति घोरा। प्रनतारति भंजन पन मोरा॥
तुरत बिभीषन पाछें मेला। सन्मुख राम सहेउ सोइ सेला।।’

युद्ध के उपरांत अहंकारी लंकेश दशानन रावण की पराजय और उसकी मृत्यु के उपरांत श्रीराम ने अपने अनुज कुमार लक्ष्मण को कुछ प्रमुखों के साथ लंका के राजदरबार में भेज कर विभीषण का राज्याभिषेक कर उसके प्रति दिए गए अपने वचन को ‘रघुकुल रीति’ ‘प्राण जाई पर वचन न जाई’ के अनुकूल पूर्ण किया।
‘सब मिलि जाहु बिभीषन साथा। सारेहु तिलक कहेउ रघुनाथा॥
सादर सिंहासन बैठारी। तिलक सारि अस्तुति अनुसारी।।’

लंका विजयोपरांत अयोध्या वापस लौटकर श्रीराम अयोध्या के राजा बन जाते हैं। फिर अवसर देख कर ही एक दिन यम देवता कोई महत्त्वपूर्ण वार्तालाप करने के लिए श्रीराम के पास आते हैं। वार्तालाप प्रारम्भ करने से पूर्व ही उन्होंने श्रीराम से एक वचन माँग लिया कि उनके वार्तालाप के मध्य यदि कोई भी आएगा, तो उन्हें उसको मृत्युदंड देना पड़ेगा। ऐसे में अपने अनुज लक्ष्मण को विशेष हिदायत देते हुए श्रीरामजी उन्हें द्वार का रक्षक नियुक्त कर देते हैं। लक्ष्मण जी भी अपने भ्राता और अयोध्यापति श्रीराम की आज्ञा को शिरोधार्य कर द्वारपाल के दायित्व के पालन हेतु कमर कस कर तैयार हो जाते हैं। पर दुर्भाग्य तो देखिए, अभी कुछ ही पल बीते होंगे कि वहाँ पर ऋषि दुर्वासा का अचानक आगमन होता है और वे श्रीराम से मिलने की जिद कर बैठते हैं।

लक्ष्मण जी ने विनम्रतापूर्वक उन्हें कुछ पल प्रतीक्षा हेतु निवेदन किया। पर ऋषि दुर्वासा इसे अपनी अवज्ञा मान कर अपने स्वभावानुसार क्रोधित हो गए तथा उन्होंने सम्पूर्ण अयोध्या को ही अपने श्राप से भस्मभुत कर देने की बात कही। लक्ष्मण जी समझ गए कि या तो उन्हें अपने देव तुल्य भ्राता और अयोध्यापति श्रीराम की आज्ञा का उल्लंघन करना होगा या फिर सम्पूर्ण अयोध्या को ही ऋषि के श्राप की अग्नि में झोंकना होगा। ऐसे में उन्होंने स्वयं का बलिदान देकर अयोध्यावासियों को बचा लेना ही हितकर समझा और उन्होने रामाज्ञा के विपरीत उस विशेष कक्ष में प्रवेश कर श्रीराम-यम देवता के वार्तालाप के बीच पहुँच अपने भ्राता और महाराज श्रीराम को ऋषि दुर्वासा के आगमन की सूचना दी। श्रीराम ने शीघ्रता से यम देवता के साथ अपनी वार्तालाप समाप्त कर तत्क्षण ऋषि दुर्वासा की आव-भगत की।

परन्तु अब अयोध्यापति महाराज श्रीराम दुविधा तथा धर्म संकट में पड़ गए। कारण, उन्हें तो अब यम देवता को दिए गए अपने वचन के अनुसार अपने प्राण प्रिय अनुज लक्ष्मण को मृत्यु दंड देना था। वे समझ नहीं पा रहे थे कि अपने प्राणप्रिय अनुज को मृत्युदंड कैसे दे? फिर विद्वजनों के अनुसार त्यागना भी मृत्युदंड का ही पूरक होता है। पर लक्ष्मण का त्याग! मन भाव-विकल हो रहा था। लेकिन उन्होंने यम देवता को जो वचन दे दिया था। अतः उन्हें तो रघुकुल रीति ‘प्राण जाई पर वचन न जाई’ की रक्षा का निर्वाह करना अनिवार्य था।

अपने देव तुल्य भ्राता श्रीराम की विकलता को श्रीलक्ष्मण जी भाँप गए। वह भी तो रघुकुल के ही वंशज और श्रीराम के अनुज थे। उन्हें भी तो रघुकुल की रीति व मान-मर्यादा से प्यार था। वह भला इन्हें कैसे कलंकित होने देते? अतः उन्होंने प्रेमवश अपने भ्राता श्रीराम से निवेदन किया कि ‘हे भ्राता! आप मेरा त्याग न करना, आप से दूर रहकर मैं किसी भी हालत में जीवित न बचूँगा। अतः अच्छा तो यही है कि मैं आपके वचन का पालन करते हुए स्वयं मृत्यु को प्राप्त कर लूँ।’ और ऐसा कहकर उन्होंने सबको रोते-कलपते छोड़ कर सरयू नदी के किनारे पहुँच योग क्रिया द्वारा अपने भौतिक शरीर को त्याग दिया। शायद इसीलिए रामकथा पात्रों में श्रीराम जी की प्रमुखता के बाद श्रीलक्ष्मण जी का ही नाम आता है।

आज भौतिकता की चकाचौंध तथा स्वार्थजन्य जीवन में श्रीराम की उसी पावन-भूमि पर उनके अनुयायियों के बीच उनकी कथा और ‘प्राण जाई पर वचन न जाई’ उक्ति बस एक कहावत मात्र बनकर रह गई है। अपने कुल की मर्यादा को आज लोग रंचमात्र स्वार्थ के बदले विनमय करते नजर आ रहे हैं। अनगिनत माता-पिता अपने पुत्रों के हाथों अपमानित और प्रताड़ित हो रहे हैं। अनगिनत भाई अपने भाई के ही हत्यारे भी बनते जा रहे हैं। पर क्या हम श्रीराम के आदर्श को केवल एक कथा मात्र बना कर ही रख देना चाहते हैं? क्या उनके आदर्श को हम ग्रहण कर उनके जैसा पुत्र और उनके जैसा भाई नहीं बन सकते हैं? मन तो कहता कि हम जरुर बन सकते हैं।

श्रीराम पुकार शर्मा, लेखक

श्रीराम पुकार शर्मा
ई-मेल सम्पर्क सूत्र – rampukar17@gmail.com

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