राजीव कुमार झा की कविता : मुलाकात

।।मुलाकात।।
राजीव कुमार झा

हम दोस्त हैं
क्या जरूरत भर
एक – दूसरे को जानते हैं
तुम्हें कुछ दिनों से
पहचानते हैं
क्या इस वक्त तुम
अपने साथ हो
आदमी की आत्मा
उसका साथ छोड़ चुकी है
किसने तुम्हारे अकेले मन को चुराया
तुमने कुछ भी नहीं बताया
यहां की आबोहवा सुंदर है
मेरा और तुम्हारा घर
आमने सामने है
खिड़की पर
तुम रोज आकर चांद से बातें करना
चाहती हो
औरतों की आजादी
लड़कियों के पढ़ने – लिखने की
तरह है
जीवन के तमाम रास्तों पर
सुबह रात का अंधेरा
खतम हो जाता
स्नेह और प्रेम की
मूरत बनी औरतें
लड़कियों को जब भी
देखती हैं
हंसने लगती हैं
तुम्हारा चेहरा सुंदर है
गेंदे के फूल की तरह
गोल है
यह घर एक बगीचा है
बूढ़े माली की आत्मा
यहां वास करती है
सुबह में यह घर
प्रकाश से भर जाता है
तुम नदी के जल में
किरणों की तरह
थिरकती हो
वसंत की हरियाली
कब खत्म हो जाती
सूरज उगने के बाद
तमाम दिशाओं में धीरे-धीरे
सन्नाटा पसर जाता है
बाग बगीचों में बैठी हवा
शाम में नदी को पार करके
रात के आंगन में
तब आती है
सोने से पहले आदमी के पास
उसकी आत्मा पास आ जाती है
सुबह सूरज उसे
पुकारता है
तुम किरण हो
मेरी आंखों में रोशनी भर गयी है
इतने सारे लोगों के बीच
तुम्हें थोड़ा बहुत जानता है
खुद को तुम्हारे पास आकर
पुकारता हूं
तुम्हारे ख्यालों में
मन का महकता पुलाव
मुस्कान से तरबतर है
उस आखिरी जंग में
आदमी अकेला हो जाता है
तमाम रास्तों से खुद को
बाहर पाता है
घर से बाहर जाते हुए
उसने किसी के बारे में सोचा!

राजीव कुमार झा, कवि/ समीक्षक

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