।।सांझ की वेला।।
राजीव कुमार झा
अरी सुंदरी!
बीत गयी!!
सोलह साल की,
अल्हड़ उमरिया!
अब ओढ़ी,
सुंदर रंगों से,
सजी चदरिया!
थिरक उठे पाँव! साँझ की वेला
में!
सूरज डूबे!
बहती नदिया की धारा!
घाट पर आकर
वह करती श्रृंगार!
कजरारी आँखों में!
मन की कलियाँ!
अब रोज महकती!
बाग में छाये!
वसंत बहार!!
सुंदरी!
चमकता!
मन का खोया
कोई हार!
किसने देखा
अरी सांवरी
अलसाए जंगल में
धूप निकल आयी
अरी बावरी!
मौसम को किसने
पास बुलाया
अरी रुपहली
स्पंदित अब
मन के तार
रोम रोम झंकृत है
तुम रेशम सी
कोमल हो!!

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