गोपाल नेवार की कविता : “दो बूंद विष”

“दो बूंद विष”

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मृत्यु से डरता नहीं है वह
न ही डरता है किसी और से
पर छोड़ जाना चाहता है संसार को
बूढ़ा हो जाने के डर से।

देखा है उसने बूढ़े माँ-बाप को
बहूू-बेटों के हाथों पिटते हुए
भय से थर-थर काँपते हुए
मूक बन ज़िन्दा लाश बनते हुए।
घर से बेदखल होते हुए
गली-चौराहों पर भीख माँगते हुए।

देखा है उसने मजबूर बुजुर्गों को
एकांत कमरे में आँसू बहाते हुए
भूख से चीखते-चिल्लाते हुए
ईश्वर से मौत की भीख माँगते हुए
आश्रम में अंतिम साँस गिनते हुए
पेड़ों पर फाँसी लटकते हुए।

इन सारे अनुभवों के पश्चात
करता है अपनों से कुछ ऐसी फरियाद
जब कभी भी उनके बुढा़पे का लगे बोझ
तो चुपके से भोजन में उसके
दो बूंद विष अवश्य मिला देना।

करता है बेटों से कुछ ऐसा निवेदन
अर्थी को उसके कंधों में बिठाकर
घाट तक जरूर पहुँचा देना
यदि परवरिश में हुई हो कमी
तो पिता की मजबूरी समझकर क्षमा कर देना ।

गोपाल नेवार, गणेश सलुवा ।

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