अलविदा – २०
ध्रुवदेव मिश्र पाषाण
बे-औलाद-सा बंजर
रावण-सा डरावना
साल बीता
रोता रहा वन-वन राम
कलपती रही राजधानी में
पेड़ के नीचे कहीं सीता?
अस्थि-मज्जा में फंसा
कहीं कुछ खंजर-सरीखा
भटकतीं चौंध कर अंधी दिशाएं
रह-रह जागते बवंडर में
सिर धुन रहीं पागल हवाएं,
राजपथ से पगडंडियों तक
पसीना नहाते
लोग रोजी मांगते
‘रोटी’ ‘हाय रोटी’ चीखते
–दम तोड़ते
रह गया उम्मीद का हर घड़ा रीता
बे-औलाद-सा बंजर
अस्थि-मज्जा में धंसा खंजर-सरीखा
रावण – सा डरावना साल बीता।
अलविदा
अलविदा
अलविदा हे बीस
साबित हुए छल-छद्म में माहिर
बहुरूपिया मदारी से तुम नहीं उन्नीस
नाम रट-रट जनतंत्र का
श्रम के सपूतों को
खूब डाला पीस
अलविदा
अलविदा
अलविदा हे बीस।
ध्रुवदेव मिश्र पाषाण
१६/१२/२०

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