अर्चना पांडेय की कविता : “दरबान जी”

“दरबान जी”

दरबान जी, दरबान जी, दरबान जी,
जहाँ देखो, दिखेंगे ये दरबान जी।
बड़े साहब, बड़े मालिक, बाबा-बेबी,
सबके लिए, तैयार रहते दरबान जी।
सलाम ठोकते, फाटक खोलते,
बंद भी करते दरबान जी।
सिर्फ बंगलों की ही नहीं
ऊंची-ऊंची मंजिलों की भी
देखभाल करते दरबान जी ।
कौन आया, कौन गया, किससे मिलना, क्या है काम ?
इन सब बातों का हिसाब रखते दरबान जी।
बड़े-बड़े कारखानों की, गोदामों की, जान-मालों की,
हिफ़ाजत करते दरबान जी।
चैन से सोते हैं हम सोसायटी वाले,
दो पैरों पर रातभर गश्त लगाते दरबान जी।
आधा-एक घन्टा शायद मैं मुश्किल से खड़ी हो पाऊं,
पांच सितारा होटल के गेट पर लगातार
कैसे खड़े रहते हो आप दरबान जी ?
आश्चर्य होता है आपकी सहनशक्ति देखकर
क्यों मुझमें नहीं आती ऐसी शक्ति दरबान जी।
सुना है वेतन भी कुछ खास नहीं,
तो कैसे परिवार संभालते हो आप दरबान जी।
बेरोजगारी के कारण किसी दफ़्तर में नौकरी नहीं मिली,
वरना आज साहब या बाबू कहलाते दरबान जी।
हमारी जिंदगी इतनी भागदौड़ से भरी है, कि इनकी तरफ कभी ध्यान ही नहीं जाता।
पर हमारे जीवन का एक अहम हिस्सा होते हैं ये दरबान जी ॥

जरूरत है कि हम सदा इनके साथ सद्व्यवहार करें,
क्योंकि सम्मान के हकदार हैं दरबान जी।
सच्चे दिल से सलाम है, आपको दरबान जी,
हां, दिल से सलाम है, आपको दरबान जी।

अर्चना पांडेय, दुर्गापुर, पश्चिम बंगाल

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