पितृपक्ष श्राद्ध : जाने सब कुछ पंडित मनोज कृष्ण शास्त्री जी से

वाराणसी। पितृपक्ष श्राद्धों के लिए निश्चित 16 तिथियों का एक समूह है। ‘श्राद्ध’ का अर्थ है, श्रद्धा से जो कुछ दिया जाए। श्रद्धया दीयते यत् तत् श्राद्धम्। पितृपक्ष में श्राद्ध तो मुख्य तिथियों को ही होते हैं, किन्तु तर्पण तो प्रतिदिन किया जाता है। पितृपक्ष पितरों के लिए पर्व का समय है। यद्यपि प्रत्येक माह की अमावस्या पितरों की पुण्यतिथि कही गई है। पितृपक्ष में पितृ पृथ्वी पर श्राद्ध आदि की आशा में अपने पुत्रों के यहॉं आते हैं। वहॉं उन्हें पिण्डदान या तिलाञ्जलि आदि नहीं मिलती है तो वह निराश होकर शाप देकर जाते हैं, अतएव एकदम श्राद्ध का परित्याग नहीं करना चाहिए। जिस दिन घर में श्राद्ध हो उस दिन क्षौरकर्म (बाल काटना) नहीं करना या कराना चाहिए।

श्राद्ध के दिन श्राद्धकर्त्ता और श्राद्ध का भोजन करने वाले ब्राह्मण को पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। घर में जिस दिन श्राद्ध हो, उस दिन श्राद्धकर्त्ता के लिए दूसरे के घर का अन्न खाना निषेध है। पितृपक्ष में पार्वण श्राद्ध ही होता है। जो पार्वण श्राद्ध नहीं कर सके, वह कम से कम पञ्चबलि निकालकर ब्राह्मण भोजन ही कराऍं। गाय, श्वान, काक (कौवा), देवता, चींटी आदि जीव जन्तु को श्राद्ध निमित्त बने भोजन का ग्रास देने को ही पञ्चबलि कहते हैं।

भोजन ग्रास (पञ्च बलि) दक्षिण दिशा में मुख कर कौवे का पृथ्वी पर, शेष सभी को पत्ते पर देना चाहिए। इसके बाद श्राद्ध निमित्त ब्राह्मण को भोजन कराना चाहिए। पश्चात अपने इष्ट मित्रों, दौहित्र, भांजा, दामाद और परिजनों के साथ भोजन करना चाहिए। कितना ही भेदभाव हो, किन्तु श्राद्ध में 5 कि.मी. की दूरी में रहने वाले दौहित्र, भांजा, जमाई (दामाद) को नहीं छोड़ना चाहिए। श्राद्ध में उन्हें जरूर सम्मिलित कर अपने साथ भोजन कराना चाहिए। धर्मशास्त्रों में कहा गया है कि पितरों को पिण्डदान करने वाला गृहस्थ, दीर्घायु, पुत्र पौत्रादि, यश, स्वर्ग, पुष्टि, बल, लक्ष्मी, पशु, सुख साधन तथा धन धान्य आदि की प्राप्ति करता है। उसे सब प्रकार की समृद्धि, सौभाग्य, राज्य तथा मोक्ष तक की प्राप्ति होती है।

पूर्वाह्न में शुक्ल पक्ष में, सायंकाल में, रात्रि में, अपने जन्मदिन में और युग्म दिनों में श्राद्ध नहीं करना चाहिए।
चतुर्दशी तिथि को श्राद्ध कभी नहीं करना चाहिए। चतुर्दशी तिथि का श्राद्ध अमावस्या को करना चाहिए। (कूर्मपुराण, याज्ञवल्क्य स्मृति, ब्रह्मोक्त याज्ञवल्क्य संहिता, महाभारत अनु. पर्व)

श्राद्ध का समय योग्य हो या न हो, तीर्थ में पहुॅंचते ही मनुष्य को सर्वदा स्नान, तर्पण और श्राद्ध करना चाहिए। श्राद्ध में तीन वस्तुऍं अत्यन्त प्रशंसनीय हैं, बाहर भीतर की शुद्धि, क्रोध न करना तथा जल्दबाजी न करना। श्राद्ध एकान्त में गुप्त रूप से करना चाहिए। ब्राह्मण बिना श्राद्ध नहीं होता है। श्राद्ध में एक अथवा तीन ब्राह्मण को भोजन कराना चाहिए। अत्यन्त धनवान होने पर भी श्राद्ध कर्म में अधिक विस्तार नहीं करना चाहिए। श्राद्ध के भोजन पर रजस्वला स्त्री की दृष्टि नहीं पड़ना चाहिए।

राजमाष, मसूर, अरहर (तुअर), गाजर, कुम्हड़ा, गोल लौकी, बैंगन, शलजम, हींग, प्याज, लहसुन, काला नमक, काला जीरा, सिंघाड़ा, जामुन, पिप्पली, सुपारी, कुलथी, कैथ, महुआ, अलसी, पीली सरसों, चना यह सब वस्तुऍं श्राद्ध के भोजन में वर्जित हैं। जौ, कॉंगनी, मूॅंग, गेहूॅं, धान, तिल, मटर, कचनार, सरसों का तेल, तिन्नी का चावल, सॉंवा, आम, अमड़ा, बेल, अनार, बिजौरा, पुराना ऑंवला, खीर, मालपुआ, गौ का दूध, दही, घी, नारियल, फालसा, नारंगी, खजूर, ॲंगूर, नीलकैथ, परवल, चिरौंजी, बेर, जङ्गली बेर, इन्द्रजौ और भतुआ को श्राद्ध में लेना चाहिए।
भैंस, भेड़ और एक खुर वाले पशुओं का दूध श्राद्ध में निषेध है।

रजस्वला स्त्री, श्वान (कुत्ता), सूअर आदि के देखने से श्राद्ध का भोजन अपवित्र हो जाता है। श्राद्ध के समय इन सभी को दूर रखना चाहिए।
श्राद्ध में नीला, काला वस्त्र धारण करने वाले ब्राह्मण को भोजन नहीं कराना चाहिए। श्राद्ध में श्वेत वस्त्र का होना अच्छा माना गया है।
श्राद्ध कर्म खुले स्थान की अपेक्षा किसी घिरे हुए स्थान में ही श्रद्धापूर्वक करना चाहिए।

श्राद्ध कर्म दूसरे की भूमि पर नहीं करना चाहिए। स्वयं का घर, जङ्गल, पर्वत, पुण्यतीर्थ और देव मन्दिर में ही श्राद्धकर्म करना चाहिए, क्योंकि यह दूसरे की भूमि में नहीं आते हैं, क्योंकि इन पर किसी का स्वामित्व नहीं होता है।

श्राद्ध हमेशा मृत्यु तिथि पर ही करना चाहिए। (अंग्रेजी तारीख से नहीं)
श्राद्ध का भोजन स्त्री को नहीं कराना चाहिए। (बृहत्पराशर स्मृति 7/71)
जिनकी मृत्यु तिथि ज्ञात नहीं हो, उन पितरों का श्राद्ध अमावस्या तिथि के दिन करना चाहिए।

जिन कुॅंवारे बच्चों, युवा, युवती की मृत्यु तिथि ज्ञात न हो तो उनका श्राद्ध कुमार पञ्चमी तिथि के दिन करना चाहिए।
जिन सौभाग्यवती स्त्रियों की मृत्यु तिथि ज्ञात न हो, उनका श्राद्ध नवमी तिथि को करना चाहिए।

परिवार में यदि कोई साधु, सन्त, संन्यासी हो गया हो और उनकी मृत्यु तिथि ज्ञात न हो तो उनका श्राद्ध द्वादशी तिथि के दिन करना चाहिए।
जिनकी शस्त्राघात, दुर्घटना, विष आदि से मृत्यु हुई हो और उनकी मृत्यु तिथि ज्ञात न हो, तो उनका श्राद्ध चतुर्दशी तिथि के दिन करना चाहिए।
ज्ञात, अज्ञात पितरों का श्राद्ध अमावस्या तिथि को करना चाहिए।

श्राद्ध (महालयारम्भ) 17 सितम्बर मङ्गलवार से प्रारम्भ हों गये है।
प्रोष्ठपदी पूर्णिमा तिथि का श्राद्ध 17 सितम्बर मङ्गलवार।
प्रतिपदा तिथि का श्राद्ध 18 सितम्बर बुधवार।
द्वितीया तिथि का श्राद्ध 19 सितम्बर गुरुवार।
तृतीया तिथि का श्राद्ध 20 सितम्बर शुक्रवार।
चतुर्थी तिथि का श्राद्ध 21 सितम्बर शनिवार।
पञ्चमी तिथि का श्राद्ध 22 सितम्बर रविवार।
षष्ठी तिथि का श्राद्ध 23 सितम्बर सोमवार।
सप्तमी तिथि का श्राद्ध 24 सितम्बर मङ्गलवार।
अष्टमी तिथि का श्राद्ध 25 सितम्बर बुधवार।
नवमी तिथि का श्राद्ध 26 सितम्बर गुरुवार।
दशमी तिथि का श्राद्ध 27 सितम्बर शुक्रवार।
एकादशी तिथि का श्राद्ध 28 सितम्बर शनिवार।
द्वादशी तिथि का श्राद्ध 29 सितम्बर रविवार।
त्रयोदशी तिथि का श्राद्ध 30 सितम्बर सोमवार।
चतुर्दशी तिथि का श्राद्ध 1 अक्टूबर मङ्गलवार।
सर्वपितृ अमावस्या का श्राद्ध 2 अक्टूबर बुधवार।

पितृ पक्ष की सभी प्रमुख तिथियां और धार्मिक महत्व : दिक पंचांग अनुसार इस बार पितृ पक्ष का आरंभ 18 सितंबर से हो गया है और 2 अक्टूबर तक चलेगा।

ज्योतिष पंचांंग के अनुसार प्रतिवर्ष श्राद्ध पक्ष शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा से आरंभ होते हैं और आश्विन मास की अमावस्या तक चलते हैं। जो इस साल 18 सितंबर से शुरू होंगे और यह 02 अक्टूबर तक चलेंगे। पितृपक्ष में पितरों की आत्मा की शांति के लिए तर्पण आदि के कार्य किए जाते हैं। साथ ही पूर्वजों के निमित्त श्राद्ध कर्म किया जाता है। मतलब जिस तिथि को पितर स्वर्गलोक गए थे, उस तिथि को ही ब्राह्राण भोग कराया जाता है। साथ ही दान-दक्षिणा दी जाती है।

आइए जानते हैं श्राद्ध की प्रमुख तिथियां और धार्मिक महत्व…
श्राद्ध की सभी प्रमुख तिथियां और तारीख : –
प्रतिपदा/पूर्णिमा का श्राद्ध : 18 सितंबर मंगलवार।
द्वितीया का श्राद्ध : 19 सितंबर गुरुवार।
तृतीया का श्राद्ध : 20 सितंबर शु्क्रवार।
चतुर्थी का श्राद्ध : 21 सितंबर शनिवार।
पंचमी का श्राद्ध : 22 सितंबर रविवार।
षष्ठी का श्राद्ध और सप्तमी का श्राद्ध : 23 सितंबर सोमवार।
अष्टमी का श्राद्ध : 24 सितंबर मंगलवार।
नवमी का श्राद्ध : 25 सितंबर बुधवार।
दशमी का श्राद्ध : 26 सितंबर गुरुवार।
एकादशी का श्राद्ध : 27 सितंबर शुक्रवार।
द्वादशी का श्राद्ध : 29 सितंबर रविवार।
मघा का श्राद्ध : 29 सितंबर रविवार।
त्रयोदशी का श्राद्ध : 30 सितंबर सोमवार।
चतुर्दशी का श्राद्ध : 1 अक्टूबर मंगलवार।
सर्व पितृ अमावस्या : 2 अक्टूबर बुधवार।

पितृ पक्ष का महत्व : मान्यता है पितृपक्ष में हमारे पूर्वज धरती पर आते हैं और हम उनके निमित्त क्या कर रहे हैं। ये सब वह देखते हैं। आपको बता दें कि पितृ पक्ष में पितरों का तर्पण, श्राद्ध और पिंडदान करने से उनकी आत्मा को मुक्ति मिलने के साथ मोक्ष की प्राप्ति होती है। वहीं श्रद्धा के साथ श्राद्ध के कार्य करें इसलिए ही इसे श्राद्ध कहते हैं।

जिस भी श्राद्ध कार्य करते हैं उस दिन ब्राह्मण को भोजन कराने का विधान है। साथ ही जिस दिन आपके पूर्वज का श्राद्ध होता है, उस दिन गाय, कुत्ता कौवा और चींटी को भी जिमाया जाता है। वहीं इसे पंच ग्रास या पंच बली कहते हैं। साथ ही जिन लोगों की जन्मकुंडली में पितृदोष है, उन लोगों को पंचबली जरूर निकालनी चाहिए।

नोट : पितृदोष का गारंटी के साथ समाधान के लिए संपर्क करे।

ज्योतिर्विद रत्न वास्तु दैवज्ञ
पंडित मनोज कृष्ण शास्त्री
मो. 99938 74848

पंडित मनोज कृष्ण शास्त्री

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