एक संविधान एक भगवान एक विधान : डॉ. लोक सेतिया

डॉ. लोक सेतिया : वो जो भी है किसी भी नाम से पुकारो एक ही है और उसने दुनिया भी एक ही बनाई है। जो उसको मानते हैं या जो उसको नहीं मानते हैं ऊपरवाले ने सभी को समान बनाकर सब एक जैसा दिया है। जो समझते और समझाते हैं उसकी पूजा अर्चना महिमा का गुणगान करने से जो भी पाप किये हैं क्षमा किये जा सकते हैं और मोक्ष मिल सकता है खुद गुमराह हैं। ईश्वर की अदालत में हिसाब अच्छे बुरे कर्मों का होना चाहिए दुनिया की शासकों की व्यवस्था की तरह न्याय अन्याय में पक्षपात भला कैसे हो सकता है। भगवान, ईश्वर, अल्लाह, वाहेगुरु सभी को याचक कैसे बना सकते हैं। उनको अपनी बनाई दुनिया के सभी इंसानों से कुछ भी पाने की ज़रूरत कैसे हो सकती है। जब विधाता सभी को सब देता है। अचरज की बात है ईश्वर को अपने होने की बात खुद कहने की चाहत भला क्यों हो सकती है। उसका होना कोई छिपी हुई राज़ की बात नहीं है।

डॉ. लोक सेतिया, विचारक

ज्ञान की आंखों से पता चलता है अज्ञानता की पट्टी बंधी हुई जिनकी आंखों पर उन्हीं को नज़र नहीं आता। आस्था विश्वास विवेक बुद्धि से पैदा होता है। किसी के आदेश उपदेश से तोते की तरह रटने से कदापि नहीं। अगर हम अपने विवेक से चिंतन मनन कर समझेंगे तो सब समझ आएगा। धार्मिक कथाओं ग्रंथों में सही मार्गदर्शन देने का कार्य किया गया है। लेकिन सोचने की बात ये है कि कोई भी आपको सही गलत रास्ता बताता है मगर उस पर चलना और आचरण कर उचित मंज़िल तक पहुंचना आपको अपने कदमों से है। उधर नहीं जाना सभी जगह लिखा हुआ होता है। लेकिन किसी ने भी उस हिदायत को कभी माना ही नहीं। वास्तविकता यही है आपकी आत्मा आपका मन जानता है क्या उचित क्या अनुचित है फिर भी सभी स्वार्थ लोभ अहंकार के कारण मनमानी करते हैं और समझते हैं जैसे नियम कानून का उलंघन कर रिश्वत जुर्माना देकर बच जाएंगे, पकड़े जाने पर वैसा ऊपरवाले की अदालत में भी स्तुति अर्चना चढ़ावा काम आएगा।

इस से बढ़कर अज्ञानता और नासमझी क्या हो सकती है। क्या भगवान को किसी इंसान से कुछ चाहिए मतलब आप ईश्वर को देने वाले बन सकते हैं ये आपकी आस्था नहीं कुछ और है विधाता के दरबार में झूठ का कारोबार नहीं चलता है। ईश्वर की परिकल्पना करने वालों ने उसके अनेक नाम दिये और अपने अपने आराध्य की कथा लिख कर उनका गुणगान किया लेकिन उनकी कथाओं में महत्व उसी को बड़ा और महान शक्तिशाली आदर्श साबित करने की खातिर अन्य किरदारों की उपेक्षा और उनका महत्व कम करना ठीक उसी तरह है जैसे पिता को संतान सबसे बेहतर समझती है मानती है या हर माता को अपने बच्चे सबसे प्यारे लगते हैं।

विधाता ने जीव जंतु पेड़ पौधे हवा पानी धरती जाने क्या क्या बनाया और इंसान को भी बनाया लेकिन उसने सभी को बंधन मुक्त रखा अगर चाहता तो सभी सिर्फ वही कर्म करते जो उसकी मर्ज़ी या अनुमति होती लेकिन तब आदमी पेड़ पक्षी जीव सभी इक मशीन होते निर्जीव निर्धारित कार्य करने को। सभी ज्ञानीजन कहते हैं इंसान कर्म अपनी मर्ज़ी से कर सकता है नतीजा ऊपरवाले की मर्ज़ी से और अच्छे बुरे कर्मों का फल भी मिलना अवश्य है देर है अंधेर नहीं है। मूर्खता है हम इंसान सीसीटीवी कैमरे से निगरानी करते हैं और समझते हैं ऊपरवाला नहीं देखता हम क्या करते हैं क्या क्या नहीं करते हैं। अपने भगवान को भी धोखा देना चाहते हैं इस से बढ़कर नादानी नासमझी क्या होगी। आदमी मतलबपरस्त होकर अपने मालिक से हेराफेरी करने की कोशिश करता है तो वो हंसता होगा कहीं से देख कर। मेरी पुस्तक ‘फ़लसफ़ा ए ज़िंदगी’ की दूसरी ग़ज़ल इस विषय पर है। पढ़ते हैं फिर समझते हैं।

ढूंढते हैं मुझे, मैं जहां नहीं हूं
जानते हैं सभी, मैं कहां नहीं हूं।
सर झुकाते सभी लोग जिस जगह हैं
और कोई वहां, मैं वहां नहीं हूं।
मैं बसा था कभी, आपके ही दिल में
खुद निकाला मुझे, अब वहां नहीं हूं।
दे रहा मैं सदा, हर घड़ी सभी को
दिल की आवाज़ हूं, मैं दहां नहीं हूं।
गर नहीं आपको, ऐतबार मुझ पर
तुम नहीं मानते, मैं भी हां नहीं हूं।
आज़माते मुझे आप लोग हैं क्यों
मैं कभी आपका इम्तिहां नहीं हूं।
लोग “तनहा” मुझे देख लें कभी भी
बस नज़र चाहिए मैं निहां नहीं हूं।

लोग मुझे वहां तलाश करते हैं जहां मैं नहीं हूं, जबकि सब को पता है ऐसी कोई जगह नहीं जहां मैं नहीं हूं। जिस जगह सर झुकाते हैं वहां जाने कौन है। आपके दिल में रहता था निकाल दिया अब नहीं रहता उस जगह। मैं कोई चेहरा नहीं मन की आवाज़ हूं। मुझे आज़माना मत मैं आपका इम्तिहान नहीं हूं। सिर्फ नज़र चाहिए मैं दिखाई दे जाऊंगा छुपा हुआ नहीं हूं। जिनको मुझ पर यकीन नहीं मानते नहीं, मैं भी कहता हूं कि मैं नहीं हूं। बस सभी खुद अपने आप को पहचान लें काफी है आस्तिक नास्तिक के भंवर में हिचकोले खाती नैया नहीं तूफान सी ज़िंदगी को पार कर किनारे लगने की कोशिश की ज़रूरत है।

हमारे देश का एक संविधान है जो लोकतांत्रिक व्यवस्था पर आधारित है और धर्मनिरपेक्ष है सभी को इक समान अधिकार आज़ादी से जीने न्याय पाने विचारों को अभिव्यक्त करने के देने को वचनबद्ध है। कोई भी शासक कोई सरकार संविधान से ऊपर नहीं हो सकती है। इसलिए जिस किसी की मानसिकता संविधान के विपरीत होती है उनको न्याय और संवैधानिक संस्थाओं का आदर कर उनके अनुरूप कार्य करना पड़ता है केवल बहुमत हासिल करने से संविधान से खिलवाड़ करने की अनुमति नहीं मिल सकती है। खेद का विषय है कि बहुत लोग देश और संविधान से अधिक किसी व्यक्ति दल अथवा विचारधारा को महत्व देने लगे हैं।

ऐसे में शासक और अधिकारी सत्ता का दुरूपयोग कर देश की व्यवस्था से खिलवाड़ कर अपने समर्थक के अपराधों को अनदेखा और विरोधी को निरपराध सज़ा देने जैसा कार्य करते हैं। हर नागरिक अपने विचार और धार्मिक आस्था पर चल सकता है लेकिन किसी को भी किसी अन्य के विचारों से असहमत होने पर नफरत या हिंसा की अनुमति नहीं मिल सकती है। देश का कानून न्यायपालिका सबको समान मानकर सुरक्षित समाज बनाने को प्रतिबद्ध हैं। मेरा हमेशा से यही कहना रहा है इक शेर मेरी गजल का है।
हाल-ए-दिल आ के पूछे हमारा जो खुद,
ऐसा भी एक कोई ख़ुदा चाहिए।

(नोट : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी व व्यक्तिगत है। इस आलेख में दी गई सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई है।)

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