3 मई विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस – जब आजादी सवालों के घेरे में हो

अशोक वर्मा “हमदर्द”, कोलकाता। हर वर्ष 3 मई को “विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस” मनाया जाता है, जो यह याद दिलाता है कि लोकतंत्र में पत्रकारिता की स्वतंत्रता कितनी अनिवार्य है। यह दिन हमें उस संघर्ष की ओर लौटाता है, जो पत्रकारों ने अपने विचार, अपने लेखन और समाज के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी को निभाने के लिए लड़ा है। लेकिन आज जब हम 2025 में इस दिन को देख रहे हैं, तो सवाल उठता है कि क्या आज भी पत्रकारिता उतनी ही स्वतंत्र है जितनी उसे होना चाहिए?

पत्रकारिता मात्र एक पेशा नहीं, बल्कि समाज के लिए एक मिशन है, जिम्मेदारी है। लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में इसकी जिम्मेदारी केवल सूचना देना नहीं, बल्कि सत्ता को सवालों के कटघरे में खड़ा करना, समाज की आवाज बनना और सच्चाई को निर्भीकता से सामने रखना है। लेकिन दुखद सच्चाई यह है कि आज यह स्तंभ खुद दबाव, डर और दिशाहीनता से जूझ रहा है।

आज सोशल मीडिया के युग में यूट्यूब एक सशक्त माध्यम बनकर उभरा है, जिसमें लाखों लोग हर रोज अपना चैनल शुरू कर पत्रकार बनने का दावा कर रहे हैं। लेकिन क्या हर व्यक्ति जो कैमरा लेकर सड़कों पर उतर जाए या किसी मुद्दे पर अपनी राय ज़ोर से बोल दे, वो पत्रकार कहलाने योग्य है? पत्रकार बनने के लिए न केवल शब्दों की समझ आवश्यक है, बल्कि एक नैतिकता, वस्तुनिष्ठता और जिम्मेदारी भी चाहिए।

दुख की बात यह है कि इन तथाकथित यूट्यूबर पत्रकारों में न तो भाषा का ज्ञान है, न तथ्यों की पुष्टि करने की आदत और न ही विषय की गहराई को समझने की जिज्ञासा। ये लोग सनसनी फैलाने, भीड़ जुटाने और लाइक-व्यू कमाने की होड़ में पत्रकारिता को एक तमाशा बना रहे हैं। ऐसे में जब आम जनता इनकी बातों को ‘प्रेस’ की बात समझती है, तो इसका सीधा असर असली पत्रकारों की साख पर पड़ता है।

दूसरी ओर, कुछ स्थापित मीडिया हाउस भी चाहें वो प्रिंट हो या इलेक्ट्रानिक ये अब निष्पक्षता की जगह किसी एक राजनीतिक दल या व्यक्ति की अंधभक्ति में लिप्त नजर आते हैं। एंकर की आवाज में सच्चाई नहीं, बल्कि समर्थन झलकता है। डिबेट का मंच जनहित नहीं, बल्कि एजेंडा आधारित बन चुका है। रिपोर्टिंग की जगह ‘नैरेटिव गढ़ने’ का काम हो रहा है। ऐसे में जब मीडिया घराने खुद ही अपने स्वतंत्र विचार को गिरवी रख देते हैं, तो प्रेस की स्वतंत्रता एक खोखला शब्द बनकर रह जाती है।

पत्रकारों पर बढ़ता दबाव और घटती स्वतंत्रता ये कहीं ना कहीं समाज के लिए ठीक नहीं है। आज का सच्चा पत्रकार दोहरी मार झेल रहा है। एक ओर उसे यूट्यूब पत्रकारों की उथली लोकप्रियता से मुकाबला करना पड़ रहा है, तो दूसरी ओर अपने मीडिया संस्थान की दिशा और दबाव से जूझना पड़ रहा है। उसे न अपनी बात कहने की स्वतंत्रता है, न सच्चाई को सामने लाने का मौका।

सरकारें हों या बड़ी कॉर्पोरेट कंपनियाँ, वे खबरों पर नियंत्रण रखने की कोशिश में लगी हैं। अगर कोई पत्रकार सच्चाई दिखाने की कोशिश करता है, तो या तो उस पर मुकदमा ठोंका जाता है, या उसकी नौकरी पर संकट आ जाता है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या यही है प्रेस की स्वतंत्रता? जब पत्रकारिता चाटुकारिता में बदल जाए तो समाज को निष्पक्ष खबरें नहीं मिल पाएगी और समाज का विश्वास इस सशक्त माध्यम से उठ जाएगा या कहें तो उठ रहा है।

पत्रकारिता का मूल उद्देश्य सत्ता से सवाल पूछना है, न कि उसके सामने झुक जाना। लेकिन आज हम देख रहे हैं कि कुछ पत्रकार सत्ता की चापलूसी में इतने लिप्त हो चुके हैं कि वे खुद को ‘राष्ट्रीयतावादी’ पत्रकार कहकर अपने कर्तव्यों से मुंह मोड़ लेते हैं। वे न तो जनता के सवाल उठाते हैं, न ही सत्ता की जवाबदेही तय करते हैं। इसके बजाय वे विपक्ष की निंदा और सरकार की प्रशंसा में ही खुद को समर्पित कर चुके हैं।

यह भी समझना आवश्यक है कि एक समाज वैसी ही पत्रकारिता प्राप्त करता है, जैसी उसकी अपेक्षाएं होती हैं। अगर समाज सनसनीखेज, पक्षपातपूर्ण या मनोरंजनपूर्ण खबरों को ही महत्व देगा, तो स्वाभाविक है कि मीडिया उसी ओर झुकेगा। इसलिए आम नागरिक की भी यह जिम्मेदारी बनती है कि वह पत्रकारिता के सही स्वरूप की मांग करे, और ग़लत पत्रकारिता को नकारे।

हाँ, तमाम अव्यवस्थाओं के बावजूद, आज भी कई पत्रकार हैं जो निर्भीकता से सच दिखा रहे हैं। वे फील्ड में हैं, ज़मीन की सच्चाई दिखा रहे हैं, अपनी जान जोखिम में डालकर भी पत्रकारिता का धर्म निभा रहे हैं। लेकिन उनकी आवाज दबाई जाती है, उन्हें पहचान नहीं मिलती, क्योंकि TRP की होड़ में सच्चाई के लिए कोई जगह नहीं।

प्रेस स्वतंत्रता दिवस के मायने आज नजर नहीं आते जब एक पत्रकार अपनी कलम से डरने लगे, जब संस्थान अपनी संपादकीय नीति किसी सत्ता के चरणों में समर्पित कर दे, जब जनता सनसनी को सच्चाई समझने लगे, तब इस दिवस का कोई अर्थ नहीं रह जाता। प्रेस की स्वतंत्रता का मतलब है – सत्ता से सवाल, समाज के लिए जवाब और सच के लिए संघर्ष। अगर ये तीनों ही लुप्त हो जाएं, तो इस दिवस को मनाना एक औपचारिकता भर रह जाती है।

अशोक वर्मा “हमदर्द”, लेखक

हमें यह स्वीकारना होगा कि पत्रकारिता संकट में है, लेकिन यह भी सत्य है कि हर संकट का समाधान भी होता है। आवश्यकता है एक सशक्त जनजागरण की, एक वैचारिक आंदोलन की, जो पत्रकारिता को फिर से उसकी जड़ों से जोड़े। नये पत्रकारों को प्रशिक्षित करने की, मीडिया संस्थानों को जवाबदेह बनाने की, और दर्शकों को जागरूक करने की।

प्रेस स्वतंत्रता दिवस केवल पत्रकारों का नहीं, बल्कि पूरे समाज का पर्व है। यह हमें याद दिलाता है कि एक स्वतंत्र प्रेस के बिना कोई भी लोकतंत्र अधूरा है। इस दिवस पर संकल्प लें कि हम सच के साथ खड़े होंगे, और पत्रकारिता को फिर से एक सम्मानित स्तंभ बनाएं।

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