
रायबरेली। हमारे समाज में घर और बाहर का बंटवारा सदियों से यूं हो रखा है कि अमूमन घर के बाहर का कार्य पुरुष सँभालते हैं और घर के अंदर के कार्यों की जिम्मेदारी गृहलक्ष्मी पर होती है। इसका फायदा यह था कि दोनों को अपने अधिकार क्षेत्र पता थे इसलिए ज्यादा खटपट नहीं होती थी। नुकसान यह होता कि पुरुषों को घर के अंदर की बातें पता न चलती। चावल डहरी में कितना भरा है, आटा बोरी में कितना बचा है, गुड़ भेली की कितनी गठरी और राब की कितनी मटकी शेष रह गई, मलकिन को ही पता होता।
इसी तरह महिलाओं को बाहर की दुनिया की जानकारी कम ही मिल पाती। कब गेंहू पके, कब धान कटे, कब आलू खोदने लायक हो गए और कब ऊँख पेरने लायक हो गई, कब महुआ चूने लगे और कब आमों में बौर आए, उन्हें कुछ ठीक से पता न चलता। संभवतः इसी कमी को पूरा करने के लिए सनातन धर्म में फसल बोए जाने से लेकर फसल कटने तक, बौर आने से लेकर आम पकने तक की पूर्व जानकारी देने के लिए कोई न कोई पर्व होता है, कोई त्यौहार होता है।
शायद इसी परंपरा का पालन करने के लिए हमारे यहां बैसवारा में बसंत पंचमी के दिन धोबिन चाची एक थाल में आम के बौर (मंजर), सिंदूर और साथ ही शिव पार्वती और गणेश की मूर्ति सबके घर लाती थी। यह थाल वह घर की महिलाओं को दिखाती तो महिलाएं थाल से सुहाग लेती और बदले में एक भेली गुड़, ब्लाउज का एक कपड़ा और श्रद्धानुसार कुछ पैसे भी उन्हें देती थी। मंजरियों वाला यह थाल गृहलक्ष्मियों के लिए इस बात की आधिकारिक रूप से सूचना होती थी कि अब फलों के राजा आम का आगमन होने वाला है।
थाल आने यानि बसंत पंचमी के कुछ ही दिनों बाद बौर (मंजर) में से छोटे-छोटे टिकोरे (अमिया) नजर आने लगती। टिकोरे कुछ और बड़े होते और कभी तेज हवा, आंधी चलती तो जमीन पर भद-भद करके गिर जाते। जिस रात आंधी आती, उसके अगले दिन हम बच्चे लोग सुबह मुंह अंधेरे ही आम के पेड़ के नीचे पहुंच जाते और झोलों में अमिया बीन कर ऐसे खुश होते गोया कि मुहरें और अशर्फी लूट लाए हों।
कुछ टिकोरे तो हम रास्ते में ही चट कर जाते। कुछ टिकोरे अजिया दाल में डाल देती, जिससे साधारण सी दाल का स्वाद कई गुना बढ़ जाता। कुछ टिकोरों की भौजी धनिया, पुदीना के साथ सिलबट्टे में पीसकर स्वादिष्ट चटनी बना देती थी। चटनी पीसते समय भौजाई कुछ टिकोरे छुपाकर आँचल में रख लेती और बाद में अकेले छुपकर नमक के साथ स्वाद लेकर खाती थी। पर पता नहीं क्यों घर की अन्य महिलाएं जब उन्हें ऐसा करते देख लेती तो शरारत से मुस्कराने लगती और भौजी शरमा कर अपने कमरे में चली जाती या घूंघट में मुंह छिपा लेती थी।
यह कोमल, गहरे हरे रंग के टिकोरे जब कुछ और बड़े होते तो हल्के हरे हो जाते, उनके अंदर सफेद चिकनी गुठली सी पड़ जाती। गुठली पड़ने के साथ ही कलमी टिकोरों में मीठापन और देशी टिकोरों में खट्टापन बढ़ जाता था। इसलिए इन टिकोरों के प्रति हमारा चाव भी पहले से अधिक बढ़ जाता था।
हम जब भी कभी हरहा-गोरु लेकर या कभी ऐसे ही जंगल की तरफ जाते तो दो-चार अमिया सबकी नजर बचाकर जरूर तोड़ते। अमिया तोड़ने के बाद सबकी देखादेखी उसके ऊपर वाले भाग को घास या जमीन में अच्छे से रगड़ देते ताकि चोपी निकल जाए। अब पता चला कि यह चोपी बड़ी गरम और अम्लीय होती है। अगर मुंह के किसी भी हिस्से में लग जाये तो उस स्थान पर फदक आएगा। उस समय तो बस यह पता था कि चोपी मुंह मे लग गई तो हमें दो तरह के कष्ट होने तय थे-
1) चोपी लग जाने से होने वाली जलन और पीड़ा तथा
2) अम्मा से पिटाई।
अम्मा पीटते जाती और कहती कि कच्ची अमिया चोपी सहित खाये हो तो मुंह तो खराब होगा ही साथ ही गर्मी बढ़ेगी तो नाक से खून भी निकलेगा। यह पिटाई और धमकियां हम पर कुछ ही समय असर करती थी क्योंकि खून निकलना कोई बड़ी बात नहीं थी हमारे लिए। हम कभी हंसिया से तो कभी खुरपा से हाथ काट लेते , कभी सायकिल से गिरकर पैर चोटिल कर लेते। एक बार गुल्ली डंडा खेलते समय आंख के बिल्कुल ऊपर चोट खा बैठे थे तो कुछ समय बाद क्रिकेट खेलते समय कॉर्क की बाल मुंह मे ऐसे लगी की होंठों से रक्त की धार बह निकली थी। कुल मिलाकर छोटे मोटे राणा सांगा हम भी थे एक समय।
इसलिए, तमाम डर और खतरों के बावजूद हम अमिया को नमक के साथ स्वाद ले -लेकर जरूर खाते। कोइली (काले रंग की पकी हुई अमिया) होती तो थोड़ी मीठी लगती, उसे हम बिना नमक के खाते और खूब खुश होते। फिर हम बच्चा पार्टी “आम के आम और गुठलियों के दाम” वसूल करते थे। अमिया चट कर जाने के बाद हम उसके अंदर की सफेद, चिकनी गुठली को अंगूठे और तर्जनी उंगली के बीच दबाकर किसी दोस्त या खुद का नाम लेकर जोर से ऊपर उछाल देते और चिल्लाते हुए कहते-
“गुठली रे गुठली बस इतना समझा दे।
‘मुन्ना’ की मेहरारू का पता बता दे।।”
उस समय हमारा ऐसा दृढ़ विश्वास था कि जिस दिशा में अमिया की गुठली जाएगी, जिसके नाम से गुठली उछाली गई है, उस लड़के की शादी उसी दिशा में होगी।
(विनय सिंह बैस)
जिनके नाम की गुठली हर बार पश्चिम दिशा में जाती थी

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