
एम.एल. वर्मा, कानपुर। ज्योतिराव गोविंदराव फुले, जिन्हें आमतौर पर महात्मा ज्योतिबा फुले के नाम से जाना जाता है, भारत के उन महान समाज सुधारकों में से एक थे जिन्होंने उन्नीसवीं शताब्दी में जातिगत भेदभाव, स्त्री शिक्षा, शूद्रों और अति-शूद्रों के अधिकारों के लिए निरंतर संघर्ष किया। उनका जन्म 11 अप्रैल 1827 को महाराष्ट्र के पुणे में एक माली (बागवानी) जाति में हुआ था। उस समय भारत में जातिगत व्यवस्था बहुत कठोर और अमानवीय थी, जहाँ शूद्रों को मानव के रूप में भी नहीं स्वीकारा जाता था।
बाल्यावस्था में भी महात्मा फूले को अनेक कठिनाइयों का सामना कारण करना पड़ा और ज्योतिबा फुले का बचपन बेहद कठिनाइयों में बीता। वे एक निम्न जाति में जन्मे थे, जिन्हें समाज में हेय दृष्टि से देखा जाता था। उनके पिता गोविंद राव एक माली थे, और समाज की परंपरा के अनुसार ज्योतिबा को भी यही कार्य करना था। बाल्यकाल में ही उनकी माँ का देहांत हो गया, जिससे उनका पालन-पोषण कठिन हो गया। समाज में व्याप्त जातिगत भेदभाव ने उन्हें बार-बार यह अहसास दिलाया कि वे एक नीची जाति से हैं और इसलिए उन्हें शिक्षा, सम्मान और सामाजिक अधिकारों से वंचित किया गया है।
शिक्षा में भी संघर्ष की वजह से महात्मा ज्योतिबा के पिता ने उन्हें पढ़ाई से दूर रखने की कोशिश की, क्योंकि समाज में यह मान्यता थी कि शूद्रों को पढ़ने का कोई अधिकार नहीं है। लेकिन एक स्कॉटिश मिशनरी स्कूल में पढ़ने के दौरान ज्योतिबा की प्रतिभा और सीखने की इच्छा ने शिक्षकों को प्रभावित किया। इसके बाद उनके एक मित्र के कहने पर उन्हें विद्यालय भेजा गया। यहाँ भी उन्हें ब्राह्मण छात्रों और शिक्षकों की उपेक्षा और तिरस्कार का सामना करना पड़ा। लेकिन फुले ने इन अपमानों को अपनी ताकत बना लिया। उन्होंने यह निश्चय कर लिया कि वे न केवल स्वयं पढ़ेंगे, बल्कि दूसरों को भी शिक्षा देंगे।
जातिगत प्रताड़ना का दंश झेला जहां महात्मा ज्योतिबा फुले को जीवन भर जातिगत उत्पीड़न का सामना करना पड़ा। समाज में उन्हें अपवित्र और अछूत माना जाता था। जब उन्होंने अपने एक ब्राह्मण मित्र की शादी में भाग लिया, तो उसके परिवार ने उन्हें अपवित्र घोषित कर दिया और ब्राह्मण समाज में हंगामा मच गया। उनके पिता को भी समाज के दबाव में आकर उन्हें घर से निकालना पड़ा। फुले को अपना जीवन निर्वाह खुद करना पड़ा और उन्होंने मेहनत मजदूरी करके अपनी पढ़ाई पूरी की।
स्त्री शिक्षा का प्रारंभ कर उन्होंने महिला सशक्तिकरण का बिगुल फूंका, फुले ने 1848 में पुणे में पहला बालिका विद्यालय खोला। यह एक क्रांतिकारी कदम था, क्योंकि उस समय स्त्रियों को शिक्षा देना पाप समझा जाता था। उनकी पत्नी सावित्री बाई फुले इस विद्यालय की पहली शिक्षिका बनीं। उन्होंने स्त्रियों को शिक्षित करने के लिए न केवल स्कूल खोले, बल्कि उन्हें आत्मसम्मान और आत्मनिर्भरता का पाठ भी पढ़ाया।
1873 में उन्होंने ‘सत्यशोधक समाज’ की स्थापना की, जिसका उद्देश्य जातिगत भेदभाव और धार्मिक पाखंड का विरोध करना था। इस समाज ने ब्राह्मणवाद और वर्ण व्यवस्था के खिलाफ एक आंदोलन खड़ा किया। उन्होंने सामाजिक समरसता, नारी मुक्ति और शूद्रों के अधिकारों की रक्षा के लिए अनेक अभियान चलाए।
धार्मिक पाखंड का विरोध कर लोगों को जागरूक किया तथा महात्मा फुले ने धर्म के नाम पर किए जाने वाले शोषण का तीव्र विरोध किया। उन्होंने ‘गुलामगिरी’ नामक ग्रंथ में ब्राह्मणों द्वारा रचित धर्मशास्त्रों और पुराणों की आलोचना की और बताया कि किस प्रकार इनका उपयोग शूद्रों को गुलाम बनाए रखने के लिए किया गया।
महात्मा फुले ने समाज में प्रचलित कुप्रथाओं जैसे बाल विवाह, सती प्रथा और विधवा उत्पीड़न का विरोध किया। उन्होंने विधवाओं के लिए आश्रय स्थल बनवाए और उनके पुनर्विवाह को प्रोत्साहित किया। दलितों के लिए कुएं और धर्मशालाएँ ये उस समय के भेद के मुख्य कारण थे, समाज में शूद्रों और दलितों को मंदिरों, कुओं और धर्मशालाओं में प्रवेश की अनुमति नहीं थी। फुले ने इनके लिए अलग से कुएं खुदवाए और धर्मशालाएँ बनवाईं ताकि वे सम्मानजनक जीवन जी सकें।
साहित्यिक योगदान के रूप में ज्योतिबा फुले ने अपने विचारों को जन-जन तक पहुँचाने के लिए कई पुस्तकें लिखीं। उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं। गुलामगिरी (1873) इसमें उन्होंने ब्राह्मणवाद और गुलामी की मानसिकता की तीखी आलोचना की। त्रितीय रत्न, सार्वजनिक सत्य धर्म, शेतकऱ्याचा असूड आदि कृतियों में उन्होंने सामाजिक अन्याय और आर्थिक शोषण का वर्णन किया।
फुले की विचारधारा का मूल तत्व मानवतावाद था। वे मानते थे कि सभी मनुष्य एक समान हैं और किसी को भी जन्म के आधार पर ऊँचा या नीचा नहीं माना जा सकता। उन्होंने शिक्षा को सामाजिक क्रांति का सबसे बड़ा हथियार माना। उनका विश्वास था कि जब तक शूद्रों, महिलाओं और गरीबों को शिक्षा नहीं मिलेगी, तब तक समाज में कोई परिवर्तन नहीं आएगा।
उनकी मृत्यु और विरासत पर नजर डालें तो 28 नवंबर 1890 को महात्मा ज्योतिबा फुले का निधन हो गया। लेकिन उनका कार्य आज भी जीवित है। उन्होंने जो बीज बोए थे, वे आज एक वटवृक्ष बन चुके हैं। डॉ. भीमराव अंबेडकर, पेरियार रामासामी नायकर जैसे अनेक समाज सुधारकों ने उनके विचारों से प्रेरणा ली। महाराष्ट्र और पूरे भारत में फुले को एक क्रांतिकारी विचारक, शिक्षाविद, और समाज सुधारक के रूप में याद किया जाता है।
ज्योतिबा फुले का जीवन एक प्रेरणा है- उनके संघर्ष, उनका साहस, और समाज के प्रति उनकी प्रतिबद्धता हमें यह सिखाती है कि सामाजिक बुराइयों के खिलाफ लड़ाई कठिन जरूर होती है, लेकिन असंभव नहीं। उन्होंने जातिगत उत्पीड़न और सामाजिक अन्याय के अंधकार में उम्मीद की किरण दिखाई। उनका जीवन इस बात का प्रमाण है कि अगर संकल्प दृढ़ हो, तो एक व्यक्ति भी सामाजिक परिवर्तन की लहर ला सकता है।
आज जब हम जातिगत भेदभाव के विरुद्ध कानून और अधिकारों की बात करते हैं, तो यह न भूलें कि इन अधिकारों की नींव फुले जैसे महापुरुषों ने अपने त्याग, तपस्या और संघर्ष से रखी है। उनके आदर्शों को आत्मसात करना ही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

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