गुनाहगार का क़त्ल, इंसाफ़ का जनाज़ा

डॉ. लोक सेतिया, स्वतंत्र लेखक और चिंतक

जो दवा के नाम पे ज़हर दे , उसका क़ातिल ही उसका मुंसिफ़ है , कानून के रखवाले ही जब अपराधी बन जाते हैं जैसी कितनी बातें ज़हन में आती हैं। देश में कोई विधान है कानून का संविधान का शासन है जिस में अपराध अपराध ही है कोई गुनहगार करे या फिर पुलिस सुरक्षा के लोग।

हम किसी अपराधी के मरने से कभी भी चिंतित नहीं होते हैं मगर गैरकानूनी ढंग से बदले की भावना या कोई और मनसूबा रख कर किसी का नियोजित ढंग से क़त्ल करना उसको एनकाउंटर बताना हमारी चिंता का विषय है होना भी चाहिए। क्या हमारा देश वास्तव में महान कहलाएगा अगर यहां सत्ता के अधिकार या पुलिस की वर्दी का उपयोग कोई मनमाने ढंग से नियम कानून को ताक पर रखकर करे।
मगर सब जानते हैं जिनको कानून व्यवस्था लागू करनी है खुद उनकी आस्था कानून में नहीं है बल्कि सच ये है कि पुलिस आदतन अपराधी से गठजोड़ करती है और उसकी सहमति और जानकारी से अपराधी अपराध करते हैं। विकास दुबे की अपराध कहानी भी यही है और ये कोई कानपुर और प्रदेश राज्य की बात नहीं हर शहर हर राज्य की यही सच्चाई है।
मुझे याद है कुछ साल पहले हरियाणा मानव अधिकार आयोग के सदस्य और पदाधिकारी फतेहाबाद आये थे और इक बैंक्वेट हाल दि फाइव एकर्स के शानदार भवन में भाषण दिए गए थे जिस में हैरानी की बात थी अपने छोटे दफ्तर से दो भवन बनने को उपलब्धि बता रहे थे जबकि उनको नागरिक के मानव अधिकारों की दशा और उसके हनन की बात करनी चाहिए थी। मंच पर पुलिस और अन्य विभाग के अधिकारी बैठे थे
और दोनों तरफ से इक दूसरे की तारीफ की जा रही थी। ऐसे में कोई उनको अधिकारी वर्ग की अन्याय की बात करने का साहस नहीं कर सकता था। मगर कुछ लोग पुलिस की मारपीट की शिकायत करने चले आये थे जिनको बाद में मिलने को कहा गया अर्थात जो आपका पहला फ़र्ज़ है उस को महत्व नहीं दिया गया।

पुलिस आम नागरिक से कभी भी सभ्य व्यवहार करने की आदी नहीं रही है। पैसा और जान पहचान उनके लिए कोई भी कर्तव्य निभाने के लिए इक शर्त है अन्यथा आपको भटकाना  और टाल मटोल करना उनको आता है। अधिकांश अपराधी पुलिस की जानकारी में जो चाहे करते हैं रिश्वत और मुफ्तखोरी पुलिस को अपने अधिकार लगते हैं। अपराधी और पुलिस का गठबंधन जब तक आपसी टकराव नहीं हो चलता रहता है जो विकास दुबे के मामले में भी हुआ सभी जानते हैं।

अपराधी ने साज़िश की उसका जुर्म संगीन है मगर पुलिस को अपराधी की तरह नहीं देश के कानून के रक्षक की तरह आचरण करना चाहिए। पुलिस को भी कानून से न्याय व्यवस्था से खिलवाड़ की अनुमति नहीं होती है। अगर हमारी पुलिस आपराधिक ढंग से कार्य करती है और सत्ताधारी नेता अपराध को बढ़ावा देते हैं और संसद विधानसभाओं में गंभीर अपराध के दोषी या आरोपी सदस्य बनकर माननीय कहलाते हैं तो ये समाज के लिए खतरनाक और डरावनी बात है।
क्या ऐसे तमाम अपराधियों को इसी तरह सड़क का न्याय देना उचित होगा तब तो कोई भी पुलिस या अन्य सुरक्षा बल की वर्दी पहन अपने विरोधी या दुश्मन को कत्ल कर उसे कोई भी नाम दे देगा। हम कई देशों की आलोचना करते हैं कि वहां सेना और पुलिस जो मर्ज़ी करते हैं। हम देश पर गर्व तभी कर सकते हैं अगर देश में नागरिक सुरक्षित हैं कोई असमानता भेदभाव अन्याय किसी के साथ नहीं हो और सभी को निडर होकर जीने का हक हो , डर अपराधी से हो या पुलिस या नेता या धनवान अथवा अफ़्सर से गलत ही है।

आपको सरकारी फॉर्म मिलते हैं सब दर्ज होता है बस आपको खाली जगह पर नाम और जानकारी भरनी होती है। उसी कहानी को नाम मुजरिम कौन समय और जगह बदली हुई मगर पहले से निर्धारित की हुई भोले मासूम पुलिस वाले लिखते हैं सुनाते हैं कोई भरोसा करे नहीं करे उनकी बला से। एन्कॉन्टर को आप कानून के नाम पर देश के सबसे बड़े गिरोह , जैसा किसी अदालत ने कहा था कि इस देश की पुलिस अपराधियों का संगठित गिरोह है।

पुलिस वाले एन्कॉन्टर कभी अपनी मर्ज़ी से नहीं करते हैं उनको मज़बूर होकर ऐसा करना पड़ता है अन्यथा गुनहगार अदालत में जाने कितने पुलिस वालों और नेताओं के साथ उसका इस्तेमाल करते रहे लोगों को बेनकाब कर सकता है।  इतने बड़े बड़े शातिर अपराधी ऐसी मूर्खता करते हैं खुद हिरासत में पकड़े जाने के बाद बीच राह किसी पुलिस वाले से पिस्तौल छीन कर भागने की कोशिश कर अपनी मौत को बुलावा देते हैं
जबकि उनको पता होता है अदालत उनको इक दिन बेगुनाह करार देकर बरी करेगी और हर दाग़ी नेता की तरह वो न्यायपालिका पर भरोसा था का ब्यान दोहराएंगे। 1975 से 2020 तक का सफर भी दुष्यंत कुमार की बात दोहराने से नहीं रोक सका है , ” यहां दरख्तों के साये में धूप लगती है , चलो यहां से चलें और उम्र भर के लिए। पुलिस अदालत इंसाफ सभी उस तरफ जा रहे हैं
जहां किसी शायर की नज़र में ” क्या बतलाएं हमने कैसे सांझ सवेरे देखे हैं , सूरज के आसन पर बैठे घने अंधेरे देखे हैं “। ” उनके पत्ते ही अगर आग बरसाने लगे , कौन फिर बैठेगा बरगदों की छांव में “।  ये कोई हैरानी की बात नहीं है इसी की आशंका थी ये नहीं होता तो जाने क्या होता। पुलिस का काम खुद ही निर्णय करना नहीं है क्योंकि ऐसा करने पर गुनाहगार से पहले इंसाफ़ का क़त्ल हो जाता है।

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