“मानवता, संवेदनशीलता और संस्कार ही समाज के वास्तविक विकास की नींव हैं।”
नई दिल्ली। आज का समाज तकनीक और आधुनिकता की ऊँचाइयों को छू रहा है, परंतु रिश्तों की बुनियाद दिन-ब-दिन खोखली होती जा रही है। हाल ही में घटी एक दर्दनाक घटना ने फिर से यह सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या आधुनिकता की दौड़ में हमने संवेदनाओं और संस्कारों को पीछे छोड़ दिया है?
दिल्ली में एक युवा, जो यूपीएससी जैसी प्रतिष्ठित परीक्षा की तैयारी कर रहा था। सपनों, उम्मीदों और मेहनत से भरा हुआ अपने गाँव से बड़े सपने लेकर आया था। लेकिन वह एक ऐसे रिश्ते में उलझ गया जो प्रेम के नाम पर शुरू हुआ, पर अंततः एक हत्या की त्रासदी में बदल गया।

सूत्रों के अनुसार, वह युवक एक युवती के साथ लिव-इन रिलेशन में रह रहा था। आपसी विवाद के बाद युवती ने अपने पुराने मित्र के साथ मिलकर उसकी हत्या कर दी और इसे हादसा बताने की कोशिश की। परंतु आधुनिक तकनीक कैमरों की सच्चाई ने पूरे अपराध की परतें खोल दीं। तीनों आरोपी गिरफ्तार हो चुके हैं। यह केवल एक हत्या नहीं, बल्कि हमारे समाज के बदलते मूल्य और खोती मानवता का आईना है।
सोचिए, जब हम किसी जानवर को भी पालते हैं, तो उसके दर्द में अपना दर्द महसूस करते हैं। सड़क किनारे कोई घायल जीव, इंसान दिख जाए, तो उसे अस्पताल पहुँचाने का दिल करता है, मैं स्वयं कई बार ऐसा कर चुका हूँ। फिर प्रश्न उठता है कि कोई इंसान होकर इंसान को कैसे चोट पहुँचा सकते हैं या उसकी जान ले सकते हैं?
मैं सदैव कहता हूँ कि “हर नारी में एक माँ का अंश है, चाहे वह किसी भी रूप में हो – माँ, बहन, बेटी या दादी-नानी।” वही नारी, जो अपनी कोख में जीवन को नौ माह तक पालती है, यदि असम्मानित होगी या स्वयं अमानवीय कृत्य करेगी, तो समाज का संतुलन बिगड़ना स्वाभाविक है।
ऐसा नहीं है कि ऐसी घटनाएं पहली बार हुई है, कई बार कभी नारी तो कभी पुरुष समाज में ऐसा कर रहे हैं। ऐसे विकृत कृत्य करने वाले नारी-पुरुष दोनों ही समाज के पतन के कारण बनते हैं। नारी और पुरुष दोनों जीवन के दो पहिए हैं, एक के बिना दूसरा अधूरा।
पर जब इनमें से किसी एक के मन में विकृत सोच या प्रतिशोध की भावना जन्म लेती है, तो पूरा समाज असंतुलित हो जाता है। आज के युग में लिव-इन रिलेशन को आधुनिकता का प्रतीक माना जा रहा है। परंतु कई बार यह केवल क्षणिक आकर्षण और स्वार्थ का माध्यम बनकर रह जाता है।
संवेदनाओं, कर्तव्य और मर्यादा पर टिका “संस्कार” शब्द कहीं पीछे छूट गया है। हमारे पूर्वज कहा करते थे “संस्कार ही व्यक्ति को मानव बनाते हैं, वरना शरीर तो पशु का भी होता है।”
जब परिवार, समाज और शिक्षा से संस्कारों की शिक्षा मिट जाती है, तो रिश्ते व्यापार बन जाते हैं और प्रेम वासना में बदल जाता है। आज “रखैल” जैसे शब्दों को सभ्यता के नाम पर “लिव-इन रिलेशन” कहकर सामान्य बनाने की कोशिश की जा रही है। परिणामस्वरूप, युवा पीढ़ी भ्रमित हो रही है न रिश्तों का मूल्य समझ पा रही है, न जीवन की मर्यादा।
अपराध रोकने के लिए केवल कानून पर्याप्त नहीं है। संस्कार ही सबसे बड़ा कानून हैं। घर में माता-पिता का आदर्श, विद्यालय में नैतिक शिक्षा और समाज में मर्यादित व्यवहार यही तीन स्तंभ हैं जो अपराध की जड़ों को समाप्त कर सकते हैं। यदि हम नई पीढ़ी को केवल स्वतंत्रता देंगे पर संस्कार नहीं देंगे, तो ऐसे हादसे बार-बार दोहराए जाएँगे जहाँ प्यार, विश्वास और सपनों की जगह अपराध, धोखा और हत्या ले लेंगे।
संस्कार केवल नैतिक शिक्षा नहीं, बल्कि मानवता की आत्मा हैं। जहाँ संस्कार जीवित हैं, वहाँ समाज कभी अमानवीय नहीं हो सकता अंत में फिर कहूंगा कि मानवता, संवेदनशीलता और संस्कार ही समाज के वास्तविक विकास की नींव हैं।
(स्पष्टीकरण : इस आलेख में दिए गए विचार लेखक के हैं और इसे ज्यों का त्यों प्रस्तुत किया गया है।)

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