वाराणसी। वैदिक ज्योतिष ज्ञान का अपार भण्डार है। इसमें अतीत को पहचानने और भविष्य को जानने की अपार संभावनाएँ निहित हैं। जन्मकुंडली में केतु की स्थिति, पूर्वजन्म की उन जिम्मेदारियों अथवा तीव्र आकांक्षाओं को इंगित करने में सक्षम है, जिन्हें वह अपने पिछले जन्म में अधूरा छोड़ आया था। केतु ‘ध्वजा’ का प्रतीक होता है। ध्वजा हमारी पहचान होती है। केतु नामक ध्वजा को लेकर जातक पुनः जन्म लेता है, ताकि वह अधूरे छोड़े गए कार्यों को पूरा कर पाए, अतः जन्म के समय जातक की लग्नकुंडली में केतु जिस भाव में स्थित होता है, उससे पूर्वजन्म का निश्चित ही गहरा सम्बन्ध होता है।
यदि जातक पिछले जन्म में अपने लिए ही कुछ कार्य करते हुए मृत्यु को प्राप्त हुआ हो, तो इस जन्म की जन्मकुंडली के लग्न भाव में केतु स्थित होता है अर्थात् पिछले जन्म में निश्चित ही जातक स्वयं के उन्नति के लिए प्रयासरत था और उसकी वह इच्छा पूर्ण होने से पूर्व ही उसकी मृत्यु हो गई थी। ऐसी स्थिति में इस जीवन में जातक स्वयं के ऊपर अत्यधिक ध्यान देने वाला होगा। वह स्वयं को ऊँचाई पर ले जाने की कोशिश करेगा। यदि केतु जन्मकुंडली में अच्छा होगा, तो जातक को आगे भी ले जाएगा, लेकिन यदि केतु अच्छी स्थिति में नहीं होगा, तो उसे संघर्ष भी करना पड़ सकता है।
यदि केतु की स्थिति द्वितीय भाव में हो, तो सम्भवतः जातक पिछले जन्म में अपने कुटुम्ब के प्रति कर्त्तव्यों का निर्वहन करते हुए मृत्यु को प्राप्त हुआ था अथवा धन कमाने या धन संचय करने में प्रयासरत रहते हुए काल-कवलित हुआ था। ऐसे में जातक निश्चित ही अपने पिछले जन्म के कर्त्तव्यों अथवा इच्छाओं की पूर्ति इस जन्म में करना चाहेगा। ऐसे जातक परिवार अथवा धन के मामले में सदैव जागरूक रहते हैं।

तृतीय भाव में केतु की स्थिति की विवेचना की जा सकती है। हो सकता है जातक की मृत्यु उसके छोटे भाई-बहनों के प्रति कोई कर्त्तव्य निर्वाह करते हुई हो अथवा किसी पराक्रम का प्रदर्शन करते हुए हुई हो, जिसे वह पूरा तो करना चाहता था, लेकिन कर नहीं पाया हो।
उदाहरण के लिए, हो सकता है कि जातक पिछले जीवन में सैनिक हो और युद्ध करते हो। ऐसी स्थिति में जातक की जन्मपत्रिका में केतु तृतीय भाव में स्थित होगा और वह अपने छूटे हुए कार्यों को पूर्ण करने की कोशिश करेगा। देखा जाता है कि कभी-कभी कोई जातक जन्म से ही किसी खेल में अतिरिक्त रुचि लेता है और जरा सा सीखते ही वह निपुण होने लगता है। इसका कारण यही है कि वह पूर्व में इसे सीख चुका था। हम इसे जन्मजात प्रतिभा कहते हैं, लेकिन इसका कारण पूर्वजन्म ही है।
केतु की चतुर्थ भाव में स्थिति से जातक उसकी माता के प्रति कर्त्तव्य निर्वहन करना चाहेगा अथवा हो सकता है कि वह किसी वाहन को अथवा बड़े मकान को खरीदने की अत्यधिक इच्छा रखेगा, क्योंकि पूर्वजन्म में वह इन्हीं इच्छाओं की पूर्ति करते-करते ही काल के गाल में समा गया था। केतु की किसी भाव में स्थिति उसे भाव के कार्यकत्वों से तो जोड़ता है। साथ ही, उससे सम्बन्धित भय भी पैदा करता है।
कई बार जिम्मेदारियों के बोझ तले जातक झुंझला भी जाता है और खीजता भी है। दूसरे शब्दों में यह कह सकते हैं कि केतु के कारण जातक जिम्मेदारियाँ पूरी तो करता है, लेकिन बेमन से, क्योंकि उसे पिछले जीवन की स्मृति नहीं होती। कर्मों की गति इतनी ही अटल है कि वह चाहकर भी कर्तव्यों को छोड़ नहीं पाता है। केतु उससे उसके कार्यों को पूरा करवाता ही है।
केतु के पंचम भाव में स्थित होने पर जातक अक्सर अपने बच्चों के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होता है। उसे सदैव बच्चों से बिछुड़ने का डर बना रहता है, क्योंकि पिछले जन्म में बच्चों के प्रति किसी कर्त्तव्य को अपूर्ण छोड़कर ही उसकी जीवनयात्रा समाप्त हो गई थी।
षष्ठ भाव में केतु की स्थिति से यही पता चलता है कि पूर्वजन्म में जातक निश्चित ही किसी रोग, ऋण अथवा रिपु के दबाव मृत्यु को प्राप्त हुआ था और इस जन्म में भी वह उसे रोग, ऋण या रिपु के रूप में प्रारब्ध का बचा हुआ हिस्सा भुगतना पड़ता है।
सातवें भाव का केतु जीवनसाथी के प्रति अथवा व्यापार में किसी साझेदार के प्रति उसके अधूरे रह गए कर्त्तव्यों का निर्वहन करवाता है। अपने जीवनसाथी अथवा साझेदार से असंतुष्ट रहकर लड़ाई-झगड़ा करते हुए भी वह उनसे कभी अलग नहीं हो पाता। इसके स्थान पर राहु हो, तो वह अलगाव करवाता है, लेकिन केतु अलगाव नहीं देता है।
आठवें भाव का केतु जातक को मृत्यु का डर देता है। कभी-कभी ऐसे जातक जन्म से ही तंत्र विद्या अथवा किसी गुप्त ज्ञान में निपुण पाए जाते हैं, क्योंकि वह तो पूर्व में ही सीख चुके थे।
केतु के नवम भाव में होने पर जातक अपने पिता के प्रति अपूर्ण रह गए अपने कर्त्तव्यों को पूरा करने के लिए तत्पर रहता है। उसे अपने पिता से बिछुड़ने का भी भय होता है। साथ ही, कभी-कभी ऐसे जातक जन्म से ही धर्म कार्यों में रुचि लेने वाले होते हैं, क्योंकि वे तो पूर्व से ही इस कार्य को जानते हैं, क्योंकि उनकी मृत्यु ही धार्मिक कार्य करते-करते अथवा पिता के प्रति कर्त्तव्यों का पालन करते-करते होती है।
केतु यदि दशम भाव में हो, तो जातक सदा ही अपने कार्य को लेकर असंतुष्ट रहता है, क्योंकि पूर्वजन्म में वह जो कार्य करना चाहता था, वह कर नहीं पाया था और अपने मनोवांछित कार्य की तलाश में वह इस जन्म में केतु रूपी ध्वजा के साथ लौटा है। ऐसे जातक अक्सर ही बार-बार नौकरी बदलने का प्रयास करते हैं और कार्य को लेकर परेशान रहते हैं।
केतु के ग्यारहवें भाव में स्थिति से जातक अपने यश अथवा अपने किसी लाभ को लेकर संवेदनशील होता है अथवा बड़े भाई बहनों के प्रति अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन करने में तत्परता दिखाता है, क्योंकि पूर्वजन्म में जातक ने इनमें से ही किसी अधूरी इच्छा की पूर्ति करते हुए शरीर छोड़ा था।
बारहवाँ भाव मोक्ष स्थान तो है, लेकिन शैया सुख का स्थान भी है। हो सकता है कि जातक पिछले जीवन में मोक्ष प्राप्ति के लिए प्रयासरत था और इसी दौरान उसकी मृत्यु हुई हो। ये भी हो सकता है कि शैया सुख से सम्बन्धित किसी तीव्र आकांक्षा की पूर्ति से पूर्व ही उसकी जीवन यात्रा समाप्त हुई हो। ऐसी स्थिति में जातक या तो आध्यात्मिक होगा अथवा अत्यधिक भोगी हो सकता है।
शास्त्रों में कहा गया है :
अवश्यमेव भोक्तव्यम् कृतम् कर्म शुभाशुभम्।
अर्थात् कर्मों के शुभ तथा अशुभ प्रतिफलों को अवश्य ही भोगना पड़ता है। आत्मा बार-बार शरीर बदलती है। शरीर तो नश्वर है, लेकिन आत्मा अजर है, अमर है। आत्मा की तरह ही कर्म भी अमर है। केवल कर्म ही तो है, जो शरीर की समाप्ति के बाद भी नष्ट नहीं होते वरन् साथ चलते हैं…सदा सर्वदा।
ज्योतिर्विद रत्न वास्तु दैवज्ञ
पंडित मनोज कृष्ण शास्त्री
मो. 99938 74848
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