जयंती विशेष : “जब-जब राजनीति लड़खड़ाएगी, तब-तब साहित्य उसे सहारा देगा” – रामधारी सिंह दिनकर

श्रीराम पुकार शर्मा, हावड़ा । हिंदी साहित्य में एक ओर भूषण की वीर रसात्मक कविताई की झंकार, तो दूसरी ओर मैथिलीशरण की शांत और करुण रस के सम्मिलित प्रवाह का अनोखा समन्वय यदि किसी एक साहित्यिक व्यक्तित्व में दृष्टिगोचर होता है, तो वह व्यक्तित्व है, राष्ट्रीयता के गंभीर उद्घोषणा करने वाले राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का।
ओजस्वी और करुणा कलवित भावना के संवाहक राष्टकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का जन्म 23 सितंबर 1908 में सिमरिया, वर्तमान ज़िला-बेगुसराय, (बिहार) में एक साधारण किसान रवि सिंह तथा उनकी पत्नी मनरूपा देवी के पुत्र के रूप में हुआ था।

रामधारी सिंह को किशोरावस्था से ही पितृ-वियोग सहन करना पड़ा था। परिणाम स्वरूप उनका किशोरावस्था अभावग्रस्त मातृ-प्रेम की छत्र-छाया में, देहात में दूर-दूर तक फैले शस्य-श्यामल खेतों में, बांसों के झुरमुटों में, आमों के बगीचों में, गंगा के किनारे के लहराते रोयेंदार कांसों में, पक्षियों के मधुर कलरवों आदि में बिता। प्रकृति की यह मधुर सुषमा रुपी विराट शक्ति स्वरूपा किशोर रामधारी सिंह के मन में केवल बस ही नहीं गयी, बल्कि भावी कवि जीवन में आने वाली कठोर आघातों को सहने के अनुकूल भी उन्हें बनाई, जो कालांतर में प्रखर, ओजस्वी तथा विद्रोही वाणी में परिणत होकर उनकी विविध रचनाओं में गूँज उठी।
‘स्वतंत्र गर्व उनका जिन पर संकट की घात न चलती है,
तूफानों में जिनकी मशाल कुछ और तेज हो जलती है।’

अपने गाँव के ही विद्यालय से प्रारम्भिक शिक्षा को प्राप्त कर रामधारी सिंह आगे की पढ़ाई के लिए गंगा पार के निकटवर्ती ‘बोरो’ ग्राम में तत्कालीन अंग्रेजी शिक्षण व्यवस्था के विरोध में खोले गए पूर्णतः स्वदेशी ‘राष्ट्रीय मिडिल स्कूल’ में भर्ती हुए। वर्ष के विभिन्न मौसम में बहुत कठिनाई से उस स्कूल में पहुँच पाते थे। वहाँ के स्वदेशी शिक्षण वातावरण में उनके मन-मस्तिष्क में धीरे-धीरे राष्ट्रीयता की अजस्र भाव-धारा प्रवाहित होने लगी। ऐसे ही समय सोलह वर्ष की तरुणाई में 1924 में उनकी पहली कविता ‘छात्र सहोदर’ नामक पत्र में प्रकाशित हो गई थी और उसके बाद उनका पहला कविता संग्रह ‘रेणुका’ नवंबर 1935 में प्रकाशित हुआ था। ‘मैट्रिक’ की परीक्षा में हिन्दी विषय में राज्य भर में सर्वाधिक अंक की प्राप्ति से “भूदेव” पुरस्कार को प्राप्त करने वाले प्रतिभावान रामधारी सिंह के मन-मस्तिष्क में तत्कालीन बिहार के देहातों की पीड़ित दशा के अनगिनत चित्र ऐसे अक्षुण्ण चित्रित हो गए, जो कालांतर में ‘रेणुका’, ‘हुंकार’, ‘रसवंती’ और ‘द्वंद्वगीत’ के प्रखर शब्दों के रूप में कागजों पर लिपिबद्ध हो गए।

‘जिस पापी को गुण नहीं गोत्र प्यारा है, समझो, उसने ही हमें यहाँ मारा है।
यह पाप उन्हीं का हमको मार गया है, भारत अपने घर में ही हार गया है।’

तत्कालीन अंग्रेजी प्रशासन की तमाम अड़चनों को पार करते हुए अपनी योग्यता के बल पर रामधारी सिंह ‘दिनकर’ तत्कालीन अंग्रेजी प्रशासन के विशेष पद तक जा पहुँचे थे। लेकिन उनकी कलम से उत्पन्न राष्ट्रीयता के प्रखर गूँज से अंग्रेज प्रशासकों को यह समझते देर न लगी कि वे ‘भारत-प्रेमी’ एक ग़लत आदमी को अपने तंत्र व्यवस्था का एक प्रमुख अंग बना बैठे हैं। फिर क्या था? उनकी गुप्त फ़ाइलें तैयार होने लगीं। बात-बात में उच्च दरबार में उन्हें तलब किया जाने लगा। चेतावनियाँ पर चेतावनियाँ मिलने लगीं और फिर चार वर्षों में ही बाईस बार उनका तबादला किया गया। पर उनकी लेखनी तो स्वतंत्र थी। वह प्रशासन के आदेश के पालक न थी, बल्कि वह अब तक तो अनगिनत पीड़ित भारतीयों की प्रखर गूंज बन चुकी थी, जो अपनी वाणी-रूपी चोटों से अंग्रेजों के मर्म को निरंतर भेदने लगी थी। स्वदेशी भावाग्नि में पक्के घड़े पर अंग्रेजी प्रशासनिक स्तर भला कैसे चढ़ सकता था? अंग्रेजों के कठोर आघातों के सम्मुख कवि लेखनी न झुकी, न मंथर ही हुई, बल्कि वह तो और अधिक प्रखर होकर हुंकार भरने लगी –
‘घातक है, जो देवता-सदृश दिखता है, लेकिन, कमरे में गलत हुक्म लिखता है।’

स्वतन्त्रतापूर्व के विद्रोही कवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ देश की आजादी के मार्ग को अपनी वाणी द्वारा प्रशस्त करने के लिए और फिर आजादी प्राप्ति के बाद समाज और देश के नवनिर्माण के लिए भारतीय पौराणिक पात्रों को अपने व्यक्तव्य का आधार बनाया। वीरता और पुरुषार्थ से परिपूर्ण ‘परशुराम’, ‘राम’, ‘लक्ष्मण’ और ‘कर्ण’ जैसे पौराणिक पराक्रमी पात्र इनकी रचनाओं में मुखरित होने लगे –
‘सहनशीलता, क्षमा, दया को तभी पूजता जग है,
बल का दर्प चमकता उसके पीछे जब जगमग है।’

राष्ट्रीयता के अमर गायक रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी ने सोयी हुई भारतीय पौरूष को ऐसे ललकारा कि स्वतंत्रता संग्राम के ‘कुरूक्षेत्र’ में धर्म (आजादी) की स्थापना करने की दिशा में अनगिनत भारतीय महारथी प्रवृत्त होने लगे। ‘कुरुक्षेत्र’ में उन्होंने स्वीकार किया कि युद्ध विनाशकारी होता है, लेकिन अन्याय एवं शोषण के विरूद्ध और स्वतंत्रता के लिए युद्ध आवश्यक होता है। किसान और मजदूरों के हृदय से उठने वाले क्रुंदन पुकार से उनका कवि हृदय द्रवित हो उठा था। जिसके प्रतिक्रिया स्वरूप ‘युद्ध एवं शांति’ की दिशा में भी कवि ने मौलिक चिन्तन को काव्यात्मक स्वरूप प्रदान कर किसान-मजदूर के दुश्मनों को ललकारा –
‘जब तक भोगी भूप प्रजाओं के नेता कहलायेंगे,
ज्ञान, त्याग, तप नहीं श्रेष्ठता का जब तक पद पायेंगे।’

जब देश स्वतंत्र हुआ तो रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की योग्यता को देख कर उन्हें ‘बिहार विश्वविद्यालय’ में हिन्दी के प्राध्यापक व विभागाध्यक्ष नियुक्त किया गया। सन् 1952 में जब भारत की प्रथम संसद का निर्माण हुआ, तो वे राज्यसभा का निर्विरोध सदस्य चुने गए और अगले 12 वर्ष तक संसद-सदस्य रहें। बाद में उन्हें सन 1964 से 1965 ई. तक भागलपुर विश्वविद्यालय का कुलपति नियुक्त किया गया। लेकिन अगले ही वर्ष भारत सरकार ने उन्हें 1965 से 1971 ई. तक अपना विशेष हिन्दी सलाहकार बना लिया।

एक बार दिल्ली में हो रहे एक कवि सम्मेलन में तत्कालीन प्रधान मंत्री पंडित नेहरू जी पहुँचे। सीढ़ियों से उतरते वक्त वो अचानक लड़खड़ाए, इसी बीच ‘दिनकर’ जी ने उनको सहारा दिया। नेहरू ने उन्हें ‘धन्यवाद’ कहा। इस पर ‘दिनकर’ जी ने तपाक से कहा, – ‘जब जब राजनीति लड़खड़ाएगी, तब-तब साहित्य उसे सहारा देगा।’

कवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के प्रथम तीन काव्य-संग्रह यथा – ‘रेणुका’ (1935 ई.), ‘हुंकार’ (1938 ई.) और ‘रसवन्ती’ (1939 ई.) उनके आरम्भिक आत्म-मंथन के युग की रचनाएँ हैं। इसके बाद के ‘द्वन्द्वगीत (1940)’, ‘कुरुक्षेत्र (1946)’, ‘सामधेनी (1947)’ में देश की आज़ादी की सम्भावना और उसकी तैयारी से सम्बन्धित विचारों का संवहन और गहन चिंतन है। उसके उपरांत अर्थात देश की आजादी के बाद की रचनाओं में यथा ‘रश्मिरथी’ (1952), ‘दिल्ली’ (1954), ‘चक्रवाल’ (1956), ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ (1963), ‘रश्मिलोक’ (1974) आदि में कवि ‘दिनकर’ जी जनता के दायित्वों को वहन करने वाले एक जनकवि के रूप में दिखने लगते हैं।
‘सब से विराट जनतंत्र जगत का आ पहुँचा, तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तैयार करो।
अभिषेक आज राजा का नहीं, प्रजा का है, तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो।’

ऐसे ही समय में रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी का व्यक्तिपरक और सौन्दर्यान्वेषी कवि-मन ‘उर्वशी’ (1961) और सामाजिक चेतना से युक्त ‘हारे को हरिनाम (1971) से परस्पर संघर्ष करता हुआ दिखाई देता है। परन्तु ऐसे में भी कवि मन राष्ट्रीय चेतना से विमुख हुए नहीं होता हैं, बल्कि आजादी के पूर्व के अपने प्रखर स्वरूप को पुनः ग्रहण कर जन की वाणी में अपने राजकर्ताओं को भी ललकारने से भी नहीं चुकता है और उनसे भी पूछ रहा होता है —
‘अटका कहाँ स्वराज? बोल दिल्ली! तू क्या कहती है?
तू रानी बन गयी, वेदना जनता क्यों सहती है?

और इसी भावना की एक ओजस्वी मिसाल 70 के दशक में ‘संपूर्ण क्रांति’ के दौर में दिखाई पड़ती है। दिल्ली के रामलीला मैदान में लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने हजारों लोगों के समक्ष ‘दिनकर’ जी की पंक्ति ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’ का उद्घोष करके तत्कालीन सरकार के खिलाफ विद्रोह का शंखनाद किया था। फिर तो उसके बाद से ही यह ‘पद्य’ सरकार की दुर्नीतियों के विरूद्ध जनता की विद्रोही वाणी ही बन गई हैं।
‘सिंहासन खाली करो की जनता आती है,
दो राह, समय के रथ का धर्धर नाद सुनो।’

रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की प्रसिद्ध पुस्तक ‘संस्कृति के चार अध्याय’ की प्रस्तावना तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने लिखी है। इस पुस्तक को साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। 1959 में, उन्हें भारत सरकार द्वारा ‘पद्म भूषण’ से भी सम्मानित किया गया था। 1972 में ‘उर्वशी’ के लिए ‘दिनकर’ जी को ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ से भी सम्मानित किया गया था।

24 अप्रैल, 1974 को हिंदी साहित्य का यह प्रखर ‘दिनकर’ इस जीवन को पूर्णता को प्रदान करते हुए अनजान पीड़ितों को दुःख से त्राण दिलाने के लिए पुनः एक प्रखर ‘दिनकर’ स्वरूप को धारण करने हेतु सदा के लिए अस्त हो गया। ‘दिनकर’ जी वास्तव में अपने युग के सूर्य थे। उनका काव्य, प्रगति का उद्घोषक और राष्ट्र-प्रेम का धरोहर पुंज है।

Sriram pukar Sharma
श्रीराम पुकार शर्मा

श्रीराम पुकार शर्मा
हावड़ा – 711101
पश्चिम बंगाल
ई-मेल सूत्र – rampukar17@gmail.com

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *