गुरु बनने से शिष्य बनना अधिक महत्वपूर्ण

प्रफुल्ल सिंह “बेचैन कलम”, लखनऊ । युग परिवर्तन केवल जल प्रलय से नहीं होता। युद्ध भी एक कारक होता है। महाभारत ऐसा ही युद्ध था। युद्ध मातृसत्ताक और पितृसत्ताक दो महापुरुषों व्यास और भीष्म की संततियों का आपसी संघर्ष था। जिसमें बृहत्तर भारत सम्मिलित ही नहीं नष्ट हो गया। सभ्यता और संस्कृति का यह भयंकर विनाश था। वैदिक परंपरा की श्रौत परंपरा के अधिकांश आचार्य समाप्त हो गये। निर्वाक थे सत्यवतीपुत्र व्यास और शांतनुपुत्र भीष्म जो मातृपक्ष से सौतेले भाई थे। भीष्म को शरशय्या मिली कृष्णद्वैपायन को विरक्ति।

प्रश्न था ज्ञान की मौखिक वैदिक परंपरा के संरक्षण और लोक में पुनर्प्रतिष्ठा की। व्यास ने संग्रहण, संरक्षण एवं लिपिबद्ध कराने का कार्य किया। वेदों की श्रौत परंपरा की आक्षरिक संरचना हुई उनका विभाजन हुआ। वेद अब संरक्षित थे। संहिताबद्ध हो गये पर तीनों वेदों का तत्त्व कैसे जानें। आचार्य तो रहे नहीं। व्यास ने मूल तत्वों को सूत्र रूप दिया। ब्रह्म सूत्र रचा। ब्रह्मसूत्र वेद तक ले जाते हैं पर वेद लोक तक कैसे आयें। वेद तक जाने वाले तो विरल होते हैं। ज्ञान का सनातन स्रोत लोक तक पहुँचे।

व्यास की लेखनी रुकी नहीं। वे कथाओं को विस्तार देते गये। भक्ति का ऋजुमार्ग, अवतारों और अवांतर कथाओं का विपुल साहित्य उनकी लेखनी से निकला। वेदों के प्राकृतिक तत्व अब कथाओं में समाहित हो गये अग्नि, वायु, सूर्य, चंद्र पूरे देश में विभिन्न क्षेत्रों में देवता के रूप प्रतिष्ठित शिव, स्कंद, नृसिंह सब एकात्म हो गये। अवतारवाद की इस भव्य परिकल्पना में सब लोकदेवता हो गये उनमें विभेद नहीं रहा और तब व्यास ने युगदेवता कृष्ण को केंद्र में रखकर ऐसे ग्रथ की रचना की जिसमें बौद्ध, जैन, शैव, वैष्णव, षट्दर्शन के आचार्य सब आ गये।

भागवतपुराण आराध्यों का नहीं आराधकों का आश्रय है, यह लोकपुराण है जिसमें देवता नहीं भावना का विस्तार है। व्यास का भागवत लोक में वेद की प्रतिष्ठा है। वेदों की महाभारत के कारण लुप्त होती परंपरा अब लोक में प्रतिष्ठित थी। वैदिक संस्कृति आरण्यक से लोकसंस्कृति में रूपांतरित हो गयी।

व्यास निश्चिंत थे। वे जानते थे युद्ध राजा को नष्ट कर सकते हैं, प्रजा का क्षय हो सकता है पर लोक नहीं मरता, वह अक्षर है अमर है। लुप्त होती ज्ञान परंपरा को नवनवोन्मेष देने वाले कृष्णद्वैपायन की पहचान यह व्यासपूर्णिमा ही आज की गुरुपूर्णिमा है। उन्हें सादर नमन करते हुए प्रार्थना है कि वे सूत जैसा शिष्य बनने की पात्रता दें। गुरु बनने से शिष्य बनना अधिक महत्वपूर्ण है।

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प्रफुल्ल सिंह “बेचैन कलम”
युवा लेखक/स्तंभकार/साहित्यकार

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