शादियों के सीजन में “मर्द” नहीं तो कम से कम “आदमी” बनने का प्रयास जरूर करना चाहिए

नई दिल्ली। आजकल शादियों का सीजन चल रहा है। दुल्हन बनी लड़कियों का साज सिंगार, मेकअप, ज्वेलरी आदि पहनना तो बनता है क्योंकि विवाह जीवन में सिर्फ एक बार होता है। मैं यह भी देखता हूँ कि दुल्हन की बहनें, सहेलियां यहां तक कि अधेड़ महिलाएं भी आजकल खूब मेकअप करने लगी हैं। वे अपने ड्रेसिंग सेंस, लुक को लेकर बड़ी जागरूक हो गई हैं। स्टेज पर भी एक बार दूल्हे-दुल्हन को देखती हैं तो दो बार खुद को आइने में देखती हैं।

लेकिन इन्हीं शादियों में आये हुए पुरुष अमूमन अपने मेकअप या ड्रेस कोड की ज्यादा फिक्र नहीं करते हैं। कई पुरुष तो इतने नादान होते हैं कि फैशन के इस घनघोर दौर में जहां एक ओर महिलाएं कड़कड़ाती ठंड में भी केवल बहुत जरूरी और पारदर्शी कपड़े पहनती हैं, वह पूरे कपड़े पहनता है। वह एक ही ड्रेस कई-कई बार बिना किसी झिझक और शरम के पहन लेता है। कई पुरूष तो हेयर स्टाइल खराब होने की चिंता किये बिना रात में आठ बजे के बाद मफलर और ऊनी टोपी भी पहन लेते हैं।

पर मैंने अपने अनुभव से एक चीज जानी है कि पुरुष फैशन, लुक, ड्रेस के प्रति तो नहीं लेकिन अपनी मर्दानगी के प्रति बेहद संवेदनशील होते हैं। इतने कि वे “नामर्द” होने के खतरे वाली सिगरेट के पैकेट को वापस करके “कैंसर” वाली सिगरेट पीते हैं। क्योंकि कैंसर जैसे राजरोग से तो आदमी बस एक बार ही मरता है लेकिन नामर्दगी तो उसे जीते जी मार देती है।

हमारी एक दूर की रिश्तेदार कहती थी कि- “जो पुरवाई में भी न कसके, वह दर्द कैसा।
और जो दारू न पिये, वह मर्द कैसा।”

वह तो यह भी कहती थी कि जो व्यक्ति शादी-ब्याह जैसे खुशी के मौके पर भी दारू ना पिए वह ‘मर्द’ तो खैर है ही नहीं, वह तो “आदमी” भी कहलाने के योग्य नहीं है। मुझे लगता है कि “मर्द” और “आदमियत” से खारिज होने के डर से ही आजकल की बारातों में बेवड़ों के प्रतिशत में बेतहाशा वृद्धि हुई है। कुल जमा तीन घंटे की बारात में सुरा के शौकीन लोग डेढ़ घंटे का सदुपयोग- ‘पीने की व्यवस्था/जगह’ ढूंढने में करते हैं और बाकी बचे डेढ़ घंटे में खाना-पीना, वर-वधू को आशीर्वाद देना जैसे कम आवश्यक कार्य निबटाते हैं।

शराब पीने से ‘मर्द’ होना तो खैर दूरगामी फायदा है क्योंकि ऐसा तो है नहीं कि दारू अंदर गई और मर्द बाहर आया। इसमें कुछ समय लगता है। लेकिन दारु पीने का तात्कालिक लाभ यह है कि सर्दी छूमंतर हो जाती है। सारे गम गलत हो जाते हैं। बैसवारा की सड़कें, वाशिंगटन जैसी लगने लगती हैं। मौसम सुहाना हो जाता है और बिना सीखे फर्राटेदार अंग्रेजी निकलने लगती हैं। दारू पीने के बाद आप किसी भी व्यक्ति से यहां तक कि अजनबी से भी बेझिझक बात कर सकते हैं। विधायक भी उस समय ग्राम प्रधान जैसा लगने लगता है और ग्राम प्रधान #@% जैसा लगता है।

विनय सिंह बैस, लेखक/अनुवाद अधिकारी

मैंने अनुभव किया है कि सोमरस अंदर जाते ही आदमी की उम्र कुछ 10-20 साल कम हो जाती है। इसलिए उसे मौसम सुहावना लगने लगता है और आसपास मौजूद सभी महिलाएं सुंदर दिखने लगती है। गांव की “रामकली” में “रेखा” की छवि दिखती है। मैंने तो कई बार सुरा के सुरूर में लोगों को खुद की बीवी से प्यार जताते हुए देखा है।

अल्कोहल डांस गुरु भी है। “अल्कोहल गुरु” की शरण मे जाते ही कोई भी व्यक्ति डांस के वह कठिन स्टेप भी आसानी से कर पाता है जो सामान्य स्थिति में कदापि संभव नहीं हैं। दारू पिया हुआ व्यक्ति भांगड़ा से लेकर नागिन डांस तक और डिस्को से लेकर डांडिया तक आसानी से कर लेता है और आश्चर्य यह कि उसे थकावट भी नहीं होती है। सच्चे और अच्छे बेवड़े तो बिजली चले जाने पर जेनेरेटर की बीट पर भी डांस कर लेते हैं।

इसीलिए मैं कहता हूं कि किसी व्यक्ति को सोमरस के तमाम फायदों को देखते हुए “मर्द” नहीं तो कम से कम “आदमी” बनने का प्रयास जरूर करना चाहिए।

विनय सिंह बैस
मद्य विभाग से पैसा लेकर पोस्ट लिखने वाले

(स्पष्टीकरण : इस आलेख में दिए गए विचार लेखक के हैं और इसे ज्यों का त्यों प्रस्तुत किया गया है।)

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