हिंदी, हिंदीं दिवस और हिंदी वाले

डॉ. लोक सेतिया, स्वतंत्र लेखक और चिंतक

मेरी ज़िंदगी गुज़री है हिंदी में लिखते लिखते। 44 साल से तो नियमित लिखता रहा हूं हर दिन। आज 14 सितंबर है हिंदी दिवस , क्या पाया क्या खोया सोचता हूं। हिंदी से बहुत लोग बहुत हासिल कर रहे हैं , हिंदी की फ़िल्में करोड़ों का कारोबार करती हैं , हिंदी की किताबें छापने वाले प्रकाशक भी मालामाल हैं , हिंदी के अख़बार भी करोड़ों की कमाई करते हैं , पत्रिकाएं भी खूब पैसा नाम शोहरत हासिल कर रही हैं , हिंदी के टीवी चैनल तो खुदा का रुतबा पा चुके हैं। सरकार की स्थापित की साहित्य अकादमी देश की राज्यों की भी करोड़ों के बजट से अपनों अपनों को रेवड़ियां बांटने का काम कर रही हैं, हर नई बदलती सरकार अपने चहेतों को निदेशक और सदस्य बनाकर हिंदी की भलाई में खुद की भलाई करती है।

पहले नहीं होता था साहित्य अकादमी की पत्रिका पर सत्ताधारी का नाम , संपादक का नाम ही पहला होता था और निदेशक प्रधान संपादक होता था। मगर कुछ साल से जिनको साहित्य से कोई सरोकार ही नहीं उनके नाम नेता अधिकारी के पहले दिए जाते हैं। अब तो विमोचन भी हर अंक का राजनेता से करवाया जाता है और कभी वो भी उनके निवास पर जाकर। हम हिंदी दिवस औपचारिकता निभाने की तरह निभाते हैं , कुछ जगह तो हिंदी दिवस वाले दिन नहीं किसी अन्य दिन ही मनाया जाता है। व्यंग्य वाले इसे श्राद्धपक्ष से जोड़ा करते हैं और जिस बात पर रोना आये उस पर ठहाके लगाते हैं। हिंदी के कवि सम्मेलन में हिंदी का चीर हरण होता दिखाई देता है।
कविता संवेदना नहीं जगाती शोर करती है , इक दहशत पैदा करती है , और हर सुनाने वाला बार बार तालियों की गुज़ारिश भीख मांगने की तरह करता है। गीत कभी मधुर होते थे आजकल गंदी बात का युग है। हिंदी का भी बाज़ार है और बहुत बड़ा कारोबार है मगर उस बाज़ार में लिखने वाला न बेचने वाला है न ही खरीदार ही है , वो तो तमाशाई है और खुद ही तमाशा भी। मुझे यकीन है मेरी तरह अधिकतर लिखने वालों को लोग समाज ही नहीं उनके अपने भी इक ऐसा शख्स समझते होंगे जिस को कोई ढंग का काम आता ही नहीं , और ऐसा बेकार का काम कर रहा है किसी पागल की तरह जिस से हासिल कुछ भी नहीं होता। घर फूंक तमाशा देखता है।
मगर क्या करूं मेरी विवशता है , बिना लिखे दम घुटता है , लिख रहा तभी ज़िंदा हूं नहीं लिखता तो कभी का मर गया होता। ये जीना भी कोई जीना है बहुत लोग मानते हैं , मगर मुझे लगता है जीना इसी का नाम है। आप कुछ तो सार्थक करते हैं देश और समाज का सच लिखकर बिना किसी स्वार्थ या आर्थिक लाभ के।
हिंदी दिवस भी मनाये जाते देखा है दो चार बार , क्योंकि मेरे शहर में हिंदी साहित्य को हमेशा को दफ़्ना दिया गया है कुछ खुद को बड़ा लेखक समझने वालों द्वारा , इसलिए ये शोकदिवस यहां मनाया ही नहीं जाता है। यहां कवि सम्मेलन भी करते हैं तो अपने शहर के कवियों को नहीं बुलाते , घर का जोगी जोगड़ा आन गांव का सिद्ध , और ऐसे में बहरी कवि ग़ज़लकार आकर पूछते हैं स्थानीय लिखने वालों के नाम वो क्यों नहीं आये। क्योंकि उनके लिए ये शहर लोक सेतिया , ठक्क्र जैसों का नगर है। मेरी तरह बहुत लोग हैं जिनकी रचनाएं सभी विधा की देश की पत्रिकाओं और अख़बारों में सालों से छपती हैं मगर अधिकतर कोई मानदेय नहीं देते हैं और कुछ देते हैं तो भीख की तरह , बहुत कम हैं जो नियमित रूप से इक उचित राशि भेजते हैं। खुद को हिंदी के हितेषी बताने वाले बड़े अख़बार भी मानदेय की राशि कभी भेजते हैं कभी नहीं भी भेजते और धीरे धीरे जब लेखक इसकी बात नहीं करता तो भेजना बंद ही कर देते हैं।
ये सभी हिंदी को बढ़ावा देते हैं मगर हिंदी लिखने वालों का शोषण कर के। शायद इन सभी को लगता है हिंदी के लेखक को भूख प्यास नहीं लगती और उसको पैसा नहीं देना उसकी भलाई है ताकि उसको दर्द का एहसास होता रहे और दर्द बेहद ज़रूरी है लिखने को। आप ने कोई और काम ऐसा देखा है जिस में दिन रात पूरी लगन से निष्ठा से काम करता रहे कोई बिना अपनी मेहनत का मोल मिले भी।
हिंदी लिखने वाले किसी और काम से आमदनी कर के अथवा साहित्य अकादमी से अनुदान लेकर अपनी किताब छपवाते हैं और फिर अपनी किताबों को अपने जान पहचान वालों को उपहार स्वरूप देते हैं भले वो पढ़ें या नहीं पढ़ें। फिर अपने किसी लिखने वाले से लिखवा किताब की समीक्षा खुद ही भेजते हैं सब जगह उसके नाम से। किताब का विमोचन करवाते हैं कभी पुस्तक मेले में दिल्ली जाकर तो कभी साहित्य अकादमी के कार्यकर्म में या फिर हिंदी दिवस मनाने को अपने शहर के आयोजित सभा में जिस में किताब लिखने वाले किताब की समीक्षा पढ़ने वाले ही दिखाई देते है और कोई साहित्य अनुरागी नहीं नज़र आता।
हिंदी दिवस पर हिंदी की हालत की कोई बात नहीं करता। स्कूली बच्चों की लिखी कविताओं जैसी रचनाओं को पढ़कर सुनाया जाता है। मेरा भारत महान। सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा। की तरह ही हिंदी को माथे की बिंदी बताते हैं। मगर हिंदी को अपने को सजाने को दिया जाता कुछ भी नहीं , क्या उसे उधर मांगकर कपड़े पहन और खुद को सजाकर लाना है। सजना भी किस की खातिर है। हिंदी की दशा उस महिला जैसी है जिसे मालूम ही नहीं वो क्या है। सुहागन है तो सुहाग कौन है। विधवा है तो किस की। और छोड़ी हुई है तो किस ने छोड़ दिया है। कुंवारी है तो हर कोई क्यों उस पर जब ज़रूरत हो अपना हक समझ हुक्म चलाता है। आज हिंदी को बता तो दो क्या है वो।

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