मुश्किल चुप रहना, आसां नहीं कहना

उलझन
डॉ. लोक सेतिया : लिखने का मकसद क्या है? सवाल पूछते हैं सभी दोस्त अपने जान पहचान वाले अजनबी लोग यहां तक बेगाने भी। हर किसी का अपना अलग नज़रिया है, कोई समझता है पैसा मिलना चाहिए वर्ना किसलिए जोखिम उठाना सच लिखना और दुश्मन बना लेना ज़माने भर को। किसी को लगता है छपने पर नाम शोहरत मिलती है समाज में, बुद्धिजीवी कहलाने से रुतबा बढ़ता है। किताबें छपने पर साहित्यकार की उपाधि हासिल कर ख़ास होने का एहसास मिलता है। सरकारी संस्थाओं में जगह ईनाम पुरस्कार पाने की कतार में खड़े होने का सौभाग्य मिलता है। ये सभी कारण लिखने की वजह नहीं बन सकते और इन सब की खातिर लिखने वाला कलमकार नहीं होता है।

डॉ. लोक सेतिया, विचारक

लेखक इक सिपाही होता है। कलम का सिपाही जो सामाजिक सरोकार और सच्चाई की खातिर निडरता पूर्वक जीवन भर अपनी अंतिम सांस तक लड़ता है। तलवार के साथ अन्याय अत्याचार के विरुद्ध देश समाज की वास्तविकता को उजागर कर आडंबर विडंबनाओं विसंगतियों पर चोट करने को। जब कोई लेखक कलम उठाता है, उसका दायित्व बन जाता है सार्थक लेखन करना अपना धर्म निभाना अन्यथा संकीर्णता पूर्ण रचनाकार आखिर रोता है जैसा नौवें सिख गुरु तेगबहादुर जी अपनी बाणी में कहते हैं, करणो हुतो सुना कियो परियो लोभ के फंद, नानक समियो रमी गईयो अब क्यों रोवत अंध। थोड़ा इस विषय को विस्तार से समझते हैं अन्य सभी लोगों को सामने रखते हुए।

शुरुआत आदमी से करते हैं इंसान को इंसानियत और सभ्य समाज की संरचना के लिए जैसा आचरण करना चाहिए वैसा नहीं उसके विपरीत करने पर स्वार्थी खुदगर्ज़ और असामाजिक पापी अधर्मी समझा जाता है। सरकार राजनेता अधिकारी कर्मचारी अपना कर्तव्य देश कानून संविधान की मर्यादा का पालन कर नहीं करते हैं तो उनको पद पर रहने का अधिकार नहीं होना चाहिए। हालत कितनी खेदजनक और भयभीत करने वाली दिखाई देती है। जब ये खुद को देश जनता का सेवक नहीं मालिक समझने लगते हैं। आज़ादी के बाद से सामान्य नागरिक की हालत बिगड़ती गई है और मुट्ठी भर धनवान एवं राजनीति करने वालों धर्म के झण्डाबरदार बने लोगों तथा विशेषाधिकार प्राप्त टीवी चैनल, अख़बार के सच के पैरोकार होने का दावा करने वाले शक्तिशाली बनकर अन्य लोगों की आज़ादी और जीने के अधिकारों का हनन करते हुए संकोच नहीं करते बल्कि अधिकांश गौरवान्वित महसूस करते हैं, सबको जूते की नोक पर रखते हुए। कोई डॉक्टर किसी रोगी को दवा ही नहीं दे तो क्या रोगी की मौत का मुजरिम नहीं हो सकता, बस यही किया है देश की सरकारों ने, अधिकारियों ने, धर्म उपदेश, समाज सेवा के नाम पर आडंबर करने वाले लोगों ने। किसी शायर ने कहा है ‘वो अगर ज़हर देता तो सबकी नज़र में आ जाता, तो यूं किया कि मुझे वक़्त पर दवाएं नहीं दीं।’

वापस लेखन धर्म की बात पर आते हैं। कोई पढ़ता है, चाहे नहीं कोई अखबार पत्रिका छापता है या नहीं हमारा कार्य है अपने समय की वास्तविकता को सामने लाने, आईना बनकर जो अच्छा बुरा है उसे दिखलाना। कायर बनकर कलम नहीं चलाई जा सकती है। घर फूंक तमाशा देखना पड़ता है। कबीर नानक जैसे संत शिक्षा देते हैं। चाटुकारिता नहीं करना काफी नहीं है आधुनिक काल में दुष्यन्त कुमार होना ज़रूरी है, पहली ग़ज़ल का पहला शेर कहता है ‘कहां तो तय था चिराग़ाँ हरेक घर के लिए, कहां चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए’। आखिरी ग़ज़ल का शेर भी ज़रूरी है, ‘मैं बेपनाह अंधेरों को सुबह कैसे कहूं, मैं इन नज़ारों का अंधा तमाशबीन नहीं’।

शासक आपको दिलकश खूबसूरत चकाचौंध रौशनियों की दास्तां सुनाते हैं जिनसे करोड़ों गरीबों के घरों में उजाला नहीं हो सकता है। सपनों की दुनिया से बाहर निकलना होगा सपनों का स्वर्ग किसी काम नहीं आता हमको जिस देश दुनिया धरती पर रहना है जीने को उसका अच्छा सुरक्षित और सबके लिए एक समान होना ज़रूरी है। बड़े संतों महात्माओं बड़े आदर्शवादी नायकों ने सदा यही कल्पना की थी भारत देश ही नहीं दुनिया को शानदार मिल जुलकर प्यार से रहने वाली जगह बनाने को जिस में छोटा बड़ा अमीर गरीब का अंतर नहीं हो भेदभाव की दीवार नफरत की भावना नहीं हो।

साहित्य हमेशा सामाजिक पतन को रोकने और उत्थान की राह बनाने का कार्य करता रहा है। मुंशी प्रेम चंद की विरासत को आगे बढ़ाना है, अपनी महत्वाकांक्षाओं को त्याग कर। हम किसी और पर दोष देकर बच नहीं सकते हैं। खामोश रहकर ज़ालिम के डर से अथवा अपने लोभ लालच स्वार्थ से झूठ को सच बताना। अपनी अंतरात्मा अपने ज़मीर से धोखा करना, ज़िंदा रहते लाश बनना होगा। चलती फिरती लाश होना किसी कलम के सिपाही को स्वीकार नहीं हो सकता है। साहित्य कलम की उपासना करते चालीस साल हो चुके हैं अब जाकर पुस्तक छपवाने की शुरुआत करते हुए इस विषय पर चिंतन करना उचित लगा है। पुस्तकें पाठक को पसंद आएंगी खरीदेंगे या मुमकिन है पाठक को मनोरंजन रोचकता की चाह होने से साहित्य की गंभीर रचनाओं समाजिक वास्तविकता से अधिक काल्पनिक विषयों का आनंद भाएगा ये मेरी चिंता का विषय नहीं है। मुझे लिखना है और सिर्फ वास्तविकता को उजागर करने की कोशिश करनी है और आधुनिक समय की सामाजिक वास्तविकता बेहद कड़वी है उसको मधुर बनाकर प्रस्तुत नहीं किया जा सकता है।

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