श्रेष्ठ मानवीय मूल्यों व सादा जीवन, उच्च विचार के महानतम आदर्श व्यक्तित्व ‘डॉo राजेन्द्र प्रसाद’

श्रीराम पुकार शर्मा, कोलकाता : चाहे धर्म हो, या वेदांत हो, चाहे साहित्य हो, या संस्कृति हो, चाहे इतिहास हो, या राजनीति हो, इन सबके मर्मज्ञ होने पर भी अपने ज्ञान-वैभव का प्रदर्शन न कर अपनी स्वाभाविक सरलता तथा सदा जीवन, उच्च विचार के कारण देशवासियों द्वारा ‘देशरत्न’ और “भारतरत्न” से सम्मानित महान आदर्श तथा विश्व के वृहतम स्वतंत्र गणतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉo राजेन्द्र प्रसाद को उनकी 137 वीं जयंती पर हम उन्हें सादर हार्दिक नमन करते हैं।

‘देशरत्न’ राजेन्द्र प्रसाद का जन्म 3 दिसम्बर, 1884 को जीरादेई, जिला छपरा, बिहार, (तत्कालीन बंगाल प्रेसीडेंसी) में एक सम्पन्न कायस्थ परिवार में हुआ था। उनके पिता महादेव सहाय संस्कृत एवं फारसी के अच्छे जानकार थे एवं उनकी माता कमलेश्वरी देवी एक धर्मपरायण महिला थीं। राजेन्द्र बाबू अपने पाँच भाई-बहनों में वे सबसे छोटे थे।

उनके पूर्वज मूलरूप से कुआँगाँव, अमोढ़ा (उत्तर प्रदेश) के एक कायस्थ परिवार से सम्बन्धित थे। उनमें से ही कुछ लोग सपरिवार वहाँ से बिहार के जिला छपरा के गाँव जीरादेई में जा बसे थे। इन्हीं में राजेन्द्र प्रसाद के पूर्वजों का परिवार भी था। चूँकि राजेन्द्र बाबू के दादा मिश्री लाल पढ़े-लिखे थे, अतः उन्हें पास के ‘हथुआ’ रियासत की दीवानी मिल गई थी।

पच्चीस-तीस सालों तक वे उस रियासत के दीवान के रूप में सेवा प्रदान करते रहे। इस पैत्रिक कार्य को राजेन्द्र बाबू के पिता महादेव सहाय भी किया करते थे। राजेन्द्र बाबू के चाचा जगदेव सहाय भी घर पर ही रहकर जमींदारी के काम-काज को देखा करते थे। चुकी राजेन्द्र बाबू घर-परिवार में सबसे छोटे थे, अतः पूरे परिजन के लाड़-प्यार में ही राजेन्द्र बाबू का पालन-पोषण हुआ था।

पाँच वर्ष की आयु में राजेन्द्र बाबू की शिक्षा के लिए घर पर ही एक मौलवी साहब को नियुक्त किया गया, और फारसी में ही उनकी शिक्षा प्रारम्भ हुई। तत्कालीन समयानुरूप मात्र 13 वर्ष की कम उम्र में उनका विवाह राजवंशी देवी के साथ हो गया, पर विवाह के बाद भी उन्होंने अपनी पढ़ाई को अनवरत जारी ही रखा। उसके बाद प्रारंभिक स्कूली शिक्षा जिला स्कूल, छपरा से प्राप्त करते हुए बाद में टी. के. घोष अकादमी, पटना, फिर 18 वर्ष की उम्र में सन् 1902 में उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा दी।

उस प्रवेश परीक्षा में उन्हें प्रथम स्थान प्राप्त हुआ और उन्होंने कोलकाता के प्रसिद्ध ‘प्रेसिडेंसी कॉलेज’ में दाखिला लिया। वहीं पर उन्होंने अपनी प्रतिभाशाली व्यक्तित्व से तत्कालीन राजनीति के धुरंधर रहे गोपाल कृष्ण गोखले तथा बिहार-विभूति अनुग्रह नारायण सिन्हा जैसे विद्वानों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया। फिर इसी प्रेसीडेंसी कॉलेज से स्नातक और कोलकाता विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र तथा विधिशास्त्र में परास्नातक तक की शिक्षा प्राप्त की।

राजेन्द्र बाबू को अंग्रेजी, हिन्दी, उर्दू, फ़ारसी व बंगाली भाषा और साहित्य का अच्छा ज्ञान था। अर्थशास्त्र में परास्नातक करने के बाद उन्होंने बिहार के लंगत सिंह कॉलेज (मुजफ्फरपुर, बिहार) में अंग्रेजी के प्रोफेसर और फिर प्रिंसिपल के कार्य किये। वर्ष 1909 में, कोलकाता में विधिशास्त्र का अध्ययन करते हुए उन्होंने “कलकत्ता सिटी कॉलेज” में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर के रूप में भी कार्य किया।

राजेन्द्र बाबू के मन में अपनी मातृभाषा हिन्दी के प्रति काफी गहरा लगाव था, पर अन्य भाषाओं के प्रति भी आदर-सम्मान की भावना थी। हिन्दी के तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं जैसे भारत मित्र, भारतोदय, कमला इत्यादि में उनके हिन्दी में लिखे लेख अक्सर प्रकाशित होते ही रहते थे। उन्होंने स्वयं हिन्दी में “देश” और अंग्रेजी में “पटना लॉ वीकली” समाचार पत्र का सम्पादन भी किया था।

वर्ष 1916 में, राजेन्द्र बाबू को पटना विश्वविद्यालय के सीनेटर और सिंडिकेट के पहले सदस्य के रूप में नियुक्त किया गया। बाद में उन्हें कलकता विश्वविद्यालय के भी सीनेटर नियुक्त किया गया था। पर बेहद ही सम्मानित इन सरकारी सेवाओं के शुरुआती दौर में ही उनका भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में पदार्पण एक वकील के रूप में हो गया था। जब चम्पारण में गाँधी जी सत्याग्रह आंदोलन कर रहे थे। तब राजेन्द्र बाबू अपने साथियों के साथ ही गाँधी जी को वहाँ भरपूर साथ दिया। गाँधी की निष्ठा, समर्पण एवं साहस से वे बहुत प्रभावित हुए थे।

फलतः 1921 में उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय के सीनेटर का पद त्याग दिया और गाँधी जी की सहायता से पटना में ‘बिहार विद्यापीठ’ की स्थापना की। अपने पुत्र मृत्युंजय प्रसाद (जो पढ़ाई में मेधावी छात्र थे) को कोलकाता विश्वविद्यालय से निकालकर उन्होंने बिहार विद्यापीठ में दाखिला करवाया था।

वर्ष 1934 में राजेन्द्र बाबू को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के मुंबई अधिवेशन के अध्यक्ष चुना गया। वर्ष 1939 में, नेताजी सुभाषचंद्र बोस के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देने के बाद कांग्रेस अध्यक्ष का पदभार राजेंद्र प्रसाद जी ने पुन: संभाला था। जब भारत का प्रथम मंत्रिमंडल बना, तब राजेंद्र बाबू उसमें कृषि और खाद्यमंत्री के दायित्वों को सफलतापूर्वक निर्वाहन किया था। फिर भारतीय संविधान के निर्माण सभा का दायित्व लेते हुए उसमें अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया था।

26 जनवरी, 1950 को भारत का संविधान लागू हो गया और देश ने सर्वसम्मति से डॉo राजेंद्र प्रसाद को देश के प्रथम राष्ट्रपति के रूप मनोनीत कर उनकी विद्वता और उच्च व्यक्तित्व को नमन किया। पर इस राष्ट्रीय सम्मान के साथ ही उन्हें अपने पारिवारिक दुःख-दंश भी सहन करना पड़ा। भारतीय संविधान के लागू होने के ठीक एक दिन पहले 25 जनवरी, 1950 को उनकी बड़ी बहन भगवती देवी का निधन हो गया था।

जो राजेन्द्र बाबू के लिए केवल बड़ी बहन ही नहीं, बल्कि मातृत्व की छाँव भी थीं। बहन की मृत्यु से राजेंद्र बाबू बेसुध होकर पूरी रात बहन की मृत्युशैय्या के निकट बैठे रहे। रात के आखिरी पहर में घर के सदस्यों ने उन्हें स्मरण कराया कि ‘सुबह 26 जनवरी है और आपको देश के राष्ट्रपति होने के नाते ‘गणतंत्र दिवस परेड’ की सलामी लेने जाना होगा।’

इतना सुनते ही उनकी चेतना जागृत हुई और पल भर में सार्वजनिक कर्तव्य ने उनके निजी दुख को ढंक दिया। चंद घंटों बाद सुबह वे सलामी की रस्म के लिए परेड के सामने थे। बुजुर्ग होने के बावजूद वे घंटों खड़े रहें, मगर उनके चेहरे पर न बहन की मृत्यु का शोक था और न ही थकान की क्लांति। सलामी की रस्म पूरी करने के बाद वे घर लौटे और बहन की मृत देह के पास जाकर फफक कर रो दिए। फिर अंत्येष्टि के लिए अर्थी के साथ यमुना तट तक गए और रस्म पूरी की।

राष्ट्रपति के रूप में उन्होंने अपने संवैधानिक अधिकारों में किसी राजनीति व्यक्तित्व या पार्टी को दखलअंदाजी करने का कोई मौका नहीं दिया और हमेशा स्वतन्त्र रूप से ही अपने कार्य करते रहें। उन्होंने 12 वर्षों तक राष्ट्रपति के रूप में कार्य किया और उसके बाद वर्ष 1962 में त्यागपत्र देने की घोषणा की। उसी वर्ष उन्हें पत्नी वियोग भी सहना पड़ा।

राष्ट्रपति के पद से निवृत होकर डॉo राजेन्द्र प्रसाद पटना के ‘सदाकत आश्रम’ में ही रहते थे। राष्ट्र ने उन्हें ‘भारत रत्‍न’ की सर्वश्रेष्ठ उपाधि से सम्मानित किया। इसी सदाकत आश्रम में यह भारत भूमि पुत्र ने 28 फ़रवरी 1963 अपनी आखरी साँस ली। राजेन्द्र बाबू ने अपनी आत्मकथा (1946) के अतिरिक्त कई अन्य पुस्तकें भी लिखी हैं – जिनमें ‘सत्याग्रह ऐट चम्पारण’, ‘इण्डिया डिवाइडेड’, ‘बापू के कदमों में’, ‘गांधी जी की देन’, ‘भारतीय संस्कृति व खादी का अर्थशास्त्र’ इत्यादि का नाम विशेष उल्लेखनीय हैं।

राजेन्द्र बाबू की वेशभूषा बड़ी ही सरल थी। उनके चेहरे-मोहरे को देखकर पता ही नहीं लगता था कि वे इतने प्रतिभासम्पन्न और उच्च व्यक्तित्ववाले सज्जन हैं। देखने में वे एक सामान्य भारतीय किसान जैसे लगते थे। सरोजिनी नायडू ने उनके बारे में लिखा था – “उनकी असाधारण प्रतिभा, उनके स्वभाव का अनोखा माधुर्य, उनके चरित्र की विशालता और अति त्याग के गुण ने शायद उन्हें हमारे सभी नेताओं से अधिक व्यापक और व्यक्तिगत रूप से प्रिय बना दिया है।”

श्रीराम पुकार शर्मा

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