श्री गोपाल मिश्र की गजल

।।गजल।।

यूं ग़ुमां होता है, बूंदों की किसी महफिल से
तुम बहकती हुई शबनम सी चली आई हो।
जैसे सपनों में कोई साज बजे धड़कन की
यूं खनकती हुई, तरन्नुम सी खिंची आई हो!

सर्द आहों से, सुलगती है इस रात की लौ
मैं दहकती हूं, सांसों में छुपे शोलों सी।
दिल की हर ताल पे, गाते हुए तुम ही तुम हो
मैं थिरकती हूं, पलकों से गिरे अश्कों सी!

क्यूं पिघलता है, कदमों के तले बर्फ सा फर्श
दिल की आवाज को, सांसों से छुआ है तुमने
हमने जाना, दिल फरोशी में है ऊष्मा कितनी
जब तेरे अश्कों को, होठों पे उठाया हमने।

जुल्फ लहराती है, सावन के हसीं झोकों से
तुम सिमट आते हो, बाहों से घिरे दामन में
जैसे खत मौत की आई हो, हयात के नाम
मैं लपकती हूं, पिरोने को तुम्हें धड़कन में!

ये ग़ुमां होता है, अंधेरों से घिरे अम्बर पर
हम चले आये हैं पलकों में सितारा लेकर।
तुम समाए हो, जुदाई में दिलासा बनकर
शब गुजर जाए ज्यूं, चन्दा का सहारा लेकर।

रचनाकार – श्री गोपाल मिश्र
(काॅपीराइट सुरक्षित)

(साहित्यकार, फिल्म पटकथा लेखक, गीतकार व शिक्षक)

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