विनय सिंह बैस की कलम से… “जब पापा हमसे मिलने हैदराबाद आये थे”

नई दिल्ली । 2004 की बात है!! मैं उस समय हैदराबाद में था और क्रिकेट के भगवान सचिन तेंदुलकर से प्रभावित होकर नई-नई टीवीएस विक्टर बाइक ख़रीदी थी। पापा हमसे मिलने हैदराबाद आये थे। एक छुट्टी के दिन मैं उन्हें बाइक पर बैठाकर हैदराबाद से लगभग 150 किलोमीटर दूर अपनी पुरानी यूनिट बीदर घुमाने ले जा रहा था। पापा ने बाइक पर बैठते ही ताक़ीद कर दी कि- “बेटा आराम से चलना। ”

कुछ देर यानी गागिलापुरम तक तो मैं आराम से ही चला। लेकिन कुछ तो जवानी का जोश, ऊपर से नई बाइक और सबसे बढ़कर हैदराबाद की चौड़ी, चिकनी, भीड़भाड़ रहित सड़कें। थोड़ी ही देर में मेरी बाइक का स्पीडोमीटर 60-65 के बीच दोलन करने लगा।

पापा ने फिर टोंका। बोले- “बेटा आराम से चलो, हमारी कोई ट्रेन थोड़े छूटी जा रही है।”

मैं कुछ स्लो हुआ। लेकिन कुछ देर बाद कांटा फिर 60 के पार पहुंच गया। पापा मुझे डिफेंसिव ड्राइविंग के फ़ायदे, कुत्ता-बिल्ली या किसी छोटे बच्चे के अचानक सड़क पर आने से हुए हादसों की हिस्ट्री तथा बाइक की स्पीड लिमिट के बारे में समझाते रहे। मैं उनकी बात सुनता, थोड़ी देर स्लो हो जाता लेकिन कुछ देर बाद फिर वही स्पीड पकड़ लेता।

इस बार 20-25 किलोमीटर तक मैं अपनी मनमर्जी करता रहा। पापा ने न टोंका, न उनकी कोई आवाज आई। मुझे अंदेशा हुआ कि कहीं पापा पिछली चाय की दुकान में छूट तो नहीं गए। एक बार मैं अम्मा के साथ ऐसा कर चुका था। लेकिन पापा तो दोनों तरफ पैर करके बैठते हैं, फिर ऐसा होना कैसे संभव है?? फिर भी खुद को doubly sure करने के लिए मैंने एक हाथ पीछे करके चेक किया, तो पापा बैठे थे।

इस बार मैंने उन्हें पुकारा- “पआआपा, पआआपा!!”
कोई जवाब नहीं आया।
मैंने फिर पुकारा लेकिन कोई आवाज नहीं आई। मैं अनजाने भय से कांप उठा और डरकर तुरंत बाइक रोक दी। रुकते ही पापा बोल उठे- “क्या हुआ ? बाइक क्यों रोक दी??”

मैंने कहा, “आप कुछ बोल ही नहीं रहे। मैं तो डर गया था। ”

पापा बोले, “बेटा, अगर तुम सचमुच डरते तो मेरा कहना पहले ही मान लेते। जहां तक मेरे जवाब न देने का सवाल है तो मैं ‘हनुमान चालीसा’ पढ़ रहा था। संकट के समय यही तो रामबाण उपाय है।”

पापा की यह प्रतिक्रिया सुनकर मैं तो जमीन से गड़ ही गया। उनके इस जवाब ने मुझे शर्मिंदा और निरुत्तर दोनों कर दिया। मैं यही सोचता रह गया कि पापा चाहते तो मुझे डांट सकते थे। उस जमाने के हिसाब से तो मुझे सड़क पर सरेआम कूट-पीट भी सकते थे और कुछ नहीं तो बाइक से उतरने की धमकी तो दे ही सकते थे या सचमुच उतर ही जाते। लेकिन उन्होंने यह नायाब, नफ़ासत भरा तरीका चुना मुझे सबक सिखाने का!!

आज पापा को याद करते हुए पाता हूँ कि वह पारिवारिक, सामाजिक व्यक्ति के रूप में तो सम्मानित और पूज्य थे ही। इसके अलावा वह एक अद्भुत पिता और लाजवाब शिक्षक भी थे।

#पापा की 13वीं पुण्यतिथि पर 

विनय सिंह बैस

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